Friday, November 21, 2014

आशावाद और सकारात्मक सोच : Optimism and Positive Thinking

मित्रो !
         मैंने अपने पूर्व आर्टिकल में सकारात्मक सोच (positive thinking) पर चर्चा प्रारम्भ की थी। उसी आर्टिकल के क्रम में मैं यह आर्टिकल प्रस्तुत कर रहा हूँ।
        आशावाद (optimism) और सकारात्मक सोच (positive thinking) दो अलग-अलग धारणाएं हैं। आशावाद "सब कुछ ठीक होगा, हर समस्या का एक समाधान होता है।" पर विश्वास करने की प्रवृति है। किसी कार्य के संपन्न करने की पद्यति और कार्य के संपादन के दौरान आने वाली समस्यायों के सम्बन्ध में आशावादी व्यक्ति के मष्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आशावादी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि कोई कार्य किस प्रकार पूरा होगा किन्तु फिर भी उसका विश्वास होता है कि कार्य पूरा हो जायेगा। आशावाद में अनुकूल परिणाम का विचार केवल धारणा पर आधारित होता है। यह धारणा गलत भी हो सकती है और सही भी हो सकती है। 
       आशावादी सोच के विपरीत निराशावादी सोच ऐसी सोच है जिसमें मनुष्य के अंदर यह धारणा घर कर जाती है कि वह किसी कार्य विशेष को करने में सफल नहीं होगा। जब किसी निराशावादी व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को दोषी मानता है, वह सोचता है कि उसके साथ हमेशा ऐसा ही होगा और यह उसके जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करेगा। विपरीत इसके यदि किसी आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को उत्तरदायी न मान कर इसके पीछे वाह्य कारणों को उत्तरदायी मानता है, प्रतिकूल प्रभाव को स्थायी नहीं मानता। यह मानता है कि ऐसा उसके साथ सदैव होने वाला नहीं है। वह जीवन पर इसका प्रभाव अल्प और सीमित मानता है। 
        आशावाद और निराशावाद को समझने के लिए मैं एक उदहारण अपने व्यक्तिगत जीवन से देना चाहूँगा। 1969-70 शिक्षा सत्र में मैंने एम. एससी. अंतिमवर्ष में अध्ययन किया और मार्च 1970 में परीक्षा दी । इसी वर्ष मैंने जुलाई से मार्च तक 5 इंटरमीडिएट के छात्रों को प्रत्येक दिन 3 घंटे पढ़ाया और इसी वर्ष दिसंबर 69-जनवरी 70 में UPPCS (उत्तर प्रदेश संयुक्त राज्य सेवा) की मुख्य परीक्षा दी। जाहिर है कि अन्य छात्रों की तुलना में मुझे एम. एससी. की पढ़ाई के लिए कम समय मिला। मेरे पड़ौस में मेरी कक्षा का ही एक अन्य छात्र रहता था। पढ़ने में अच्छा था। एम. एससी. परीक्षा शुरू होने से पहले हम दोनों सभी प्रश्न-पत्रों में मिलाकर कुल ६० प्रतिशत से अधिक अंक लाने का लक्ष्य बनाकर चल रहे थे। कुल चार प्रश्न-पत्र प्रत्येक 100 अंक के होने थे। परीक्षा शिड्यूल के अनुसार प्रथम और द्वितीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 2 दिन का अंतराल, द्वितीय और तृतीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 4 दिन का अन्तराल और तृतीय और चतुर्थ प्रश्न-पत्रों के मध्य 16 दिन का अंतराल था। दो प्रश्न-पत्र होने पर हम दोनों ने पाया कि हम दोनों के ही दोनों प्रश्न-पत्रों में से प्रत्येक में 50-55 के बीच ही अंक आ सकते थे। मैंने उस लडके से कहा चलो हुआ सो हो गया वाकी पेपर्स में हम कोशिश करेंगे कि इन दो पेपर्स में आयी कमी भी पूरी हो जाय और मुझे उम्मीद है कि हम कमी पूरी कर लेंगे। इस पर मेरे साथी ने कहा "हमें मालूम है कि वाकी पेपर्स में भी मेरे साथ यही होगा। हमारे मेरे साथ ऐसा ही होता है। कुछ नहीं बदलेगा। जिंदगी भर सेकेण्ड क्लास की डिग्री लिए बेरोज़गार फिरता रहेगा। कोई नौकरी नहीं देगा।" मैंने बहुत समझाने का प्रयास किया पर वह नहीं माना। मैंने उससे यह भी कहा कि पेपर्स के बीच में 20 दिनों की छुटियाँ हैं उनमें तैयारी की जा सकती थी। इस पर उसने अपनी प्रतिक्रिया दी कि जब साल भर पढ़ने से कुछ नहीं हुआ तब 20 दिन में क्या हो जायेगा। उसकी सोच का प्रभाव यह हुआ कि वह हर समय सुस्त रहने लगा। उसका मन पढ़ने में भी नहीं लगने लगा। मैंने छुटियों का उपयोग पढ़ने में किया। तृतीय प्रश्न-पत्र होने पर उसमें 70 अंक आने की संभावना ने मेरी आशा को और वल दिया। चतुर्थ प्रश्न-पत्र देकर जब मैं परीक्षा कक्ष से निकला तब मुझे पूरा विश्वास था कि मेरे सभी पेपर्स में मिलाकर 60 प्रतिशत से अधिक अंक आएंगे। इसका कारण यह रहा था कि मेरा चतुर्थ प्रश्न-पत्र बहुत अच्छा हुआ था और उसमें मुझे कम से कम ९० अंक प्राप्त होने की आशा थी। परीक्षा परिणाम आने पर मेरा साथी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। मैंने अपने बारे में जैसा सोचा था उसी प्रकार अंक मिले, चतुर्थ पेपर में 90 अंक मिले और मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। यहां पर हम देखें तब पाते हैं कि दो पेपर्स देने के बाद जो कुछ मेरे सहपाठी ने कहा वह सब निराशावादी दृष्टिकोण था। जो कुछ मैंने कहा वह आशावादी दृष्टिकोण था। 
       यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या आशावादी या निराशावादी व्यक्ति की सोच का प्रभाव ऐसे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। मेरा मानना है कि आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है वह असफलता मिलने पर उसका अस्थायी और सीमित प्रभाव अनुभव कर तनाव या अवसाद का शिकार नहीं होता जबकि निराशावादी सोच रखने वाला व्यक्ति किसी अप्रिय घटना के घटित होने या किसी प्रतिकूल परिणाम के आने पर तनाव और अवसाद का शिकार हो जाता है।
      जहां तक सकारात्मक सोच के सम्बन्ध में है सकारात्मक सोच के अंतर्गत हम यह मान कर चलते हैं कि कार्य के करने में समस्याएं आ सकतीं हैं और उनका निदान स्वतः नहीं होगा। सकारात्मक सोच समस्यायों पर विचार कर उसका समाधान खोजती है। सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति के मन में समस्यायों का विचार आने पर वह कार्य न करने का निर्णय न लेकर समस्याओं का समाधान खोजने पर विचार करता है। वह इस विचार को लेकर आगे बढ़ता है कि प्रत्येक समस्या का एक समाधान होता है। नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति असफलता के भय से या तो कार्य प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा कार्य प्रारम्भ करने के बाद कार्य करने के दौरान कोई समस्या या कठिनाई आने पर कार्य बीच में ही छोड़ देता है। इसका मुख्य कारण है कि सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को उसका शरीर तंत्र प्रारम्भ ही में आवश्यक ऊर्जा दे देता है। ऐसे लोग समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं। विपरीत इसके नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार न होने के कारण उनके अंदर आवश्यक ऊर्जा का अभाव होता है। इसी कारण नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति कार्य अनमने (half heartedly) ढंग से प्रारम्भ करते हैं और समस्या या कठिनाई आने पर बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उनसे यह कार्र्य नहीं होगा।
      सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ हम सुखद और अच्छी भावनाओं का अनुभव करते हैं। ऐसी सोच आंखों में चमक, शरीर में अधिक ऊर्जा और खुशी लाती है। हमारे स्वास्थ्य को अनुकूल रूप में लाभदायक तरीके से प्रभावित करती है। हमारे शरीर की भाषा बदल जाती है और हम गर्व के साथ अपना सीना तान कर विजयी मुद्रा में चलते हैं।
आशावादी दृष्टिकोण के आचरण से हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार आता है, यह पुरानी बीमारी को रोकने में सहायक की भूमिका निभाता है और हमें अशुभ को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।

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