मित्रो !
मनुष्य के अपने गंतव्य को पाने के रास्ते में अनेक प्रकार के प्रलोभन और आकर्षण सृष्टि के प्रारम्भ से ही चुनौतियों के रूप में रहे हैं। मनुष्य के चारों ओर का वातावरण इन प्रलोभनों और आकर्षणों के कारण एक अशांत समुद्र की तरह रहा है। वैश्वीकरण के चलते विभिन्न सभ्यताओं के तौर-तरीकों और परम्पराओं के संभावित आपसी मेल-मिलाप से इस अशांत समुद्र के विकराल रूप को और अधिक विस्तार मिला है। । विचारों के खुले पन के चलते अनेक नयी चुनौतियों का प्रादुर्भाव हुआ है।
मनुष्य
का जीवन अशांत समुद्र में तैरने वाली एक नौका के समान होता है जिसका नाविक वह स्वयं होता है। जीवन को दिशा देने और सही गन्तव्य पर पहुँचने के लिए मनुष्य को पतवार उठाकर संघर्षरत रह कर नौका को स्वयं सही दिशा में खेना (to sail) होता है। जब मनुष्य नौका को स्वतंत्र छोड़ देता है तब समुद्र की अशांत लहरें या तो नौका को समुद्र में डुबो देती हैं अथवा नौका को अपनी दिशा में ले जातीं हैं।
ऐसे में यदि हमने पौरुष का रास्ता नहीं चुना अथवा संघर्ष छोड़ने का विकल्प चुना तब हम दिशाहीन होकर पथ से भटक जायेंगे। बच्चे अबोध होते हैं, किशोरावस्था में उनके भटक जाने की संभावना
अधिक होती है। बच्चों का कुशल नाविक के रूप में विकास हो, किशोरों में भटकाव की स्थिति उत्पन्न न हो, इसका दायित्व भी हम सब पर है। यदि हम इस दिशा में अपना दायित्व निर्वहन न कर सके तब हम उस चिड़िया से भी गए-गुजरे होंगे जो अपने बच्चे को तब तक तेज हवा में नहीं उड़ने देती जब तक वह आश्वस्त नहीं हो जाती कि उसका बच्चा तेज हवा के विपरीत उड़ने के काबिल हो गया है।
No comments:
Post a Comment