Saturday, December 5, 2015

मा फलेषु कदाचन


मित्रो !
       कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा क्यों कहा है ? 
       गीता के अध्याय 2 के श्लोक 47 के अनुसार कर्म करने का अधिकार मनुष्य को मिला है किन्तु मनुष्य फल का अधिकारी नहीं है। विचारणीय यह है कि क्या कर्म का कोई फल नहीं होता ? क्या कर्म करने से फल नहीं मिलता ? क्या यहाँ पर निस्वार्थ कर्म करने की बात कही गयी है ? ऐसे प्रश्न मन में प्रायः उठते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रत्येक कर्म का एक फल होता है। कर्म करने वाले को इसका फल मिलता भी है। ईश्वर महान्यायी है, वह कर्म करने वाले प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देता है किन्तु मनुष्य अपने द्वारा किये गए कर्म का फल स्वयं नहीं चुन सकता, कर्म के अनुसार फल का निर्धारण ईश्वर ही करता है। 
       क्या कर्म करना है, का चुनाव मनुष्य करता है। अगर फल के चुनाव का अधिकार मनुष्य को मिल जाय तब प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक कर्म का सर्वोत्तम फल ही लेना चाहेगा भले ही उसने आधा-अधूरा कार्य किया हो। मनुष्य अपराध करके भी स्वर्ग भोगना चाहेगा। अच्छे और बुरे का भेद ही समाप्त हो जायेगा। इसी कारण कर्म के चयन करने और चयनित कर्म को करने का अधिकार मनुष्य को दिया गया है और फल के चयन करने का अधिकार मनुष्य को नहीं दिया गया है।



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