कुछ लोगों की जिज्ञासा हो सकती है कि ईश्वर क्या है और वे ईश्वर के अस्तित्व को क्यों माने? कुछ लोगों की यह भी सोच हो सकती है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि ऐसे पहलू हैं जिन पर जीवन के अंतिम चरण में विचार किया जा सकता है। कुछ लोगों की यह सोच भी हो सकती है कि आत्मा, परमात्मा और उनका योग (Union) साधु-संतो के लिए हैं और इनका गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। इनकी सोच जीवन में वैराग्य को जन्म देती है।
आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं जहाँ हम हर चीज की परिभाषा चाहते हैं, हम उसकी उत्पत्ति, गठन (constitution) और अपने लिए उसकी उपयोगिता जानना चाहते हैं। ऐसे में ईश्वर , धर्म, पूजा और साधु-संतों को लेकर उठने वाले प्रश्न स्वाभाविक ही हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए ये अहम प्रश्न हैं।
ईश्वर के सन्दर्भ में कुछ भी कहने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इन प्रश्नों का उत्तर दे पाना मेरे लिए संभव नहीं है। शायद इस दुनिया में ऐसा कर पाना किसी के लिए संभव न हो। शायद इसलिए कि उसके विस्तार के आगे हम सब बौने हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, शर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता है, यह उसका विस्तार है। ईश्वर उदार है, दयालु है, न्यायी है, प्रकृति जिसका, जीवात्माएं भी एक हिस्सा हैं, का नियंता है, वह अकेले का साथी है, असहायों का सहायक है, एक सच्चा मित्र है, भय, रोग और अपराध-बोध से छुटकारा दिलाने वाला है, निर्बल का बल है, ज्ञान का भण्डार है, वह माता है, पिता है, कभी न समाप्त होने वाला समय है, वह सबका पोषक है, सबसे बड़ा न्यायालय है, निराशा में आशा की किरण है, सत्य का रक्षक है, जीवात्माओं के बीच प्रेम का जनक और पक्षधर है। … वह क्या - क्या है, समग्र रूप में सोच पाना मेरी और अन्य किसी की क्षमताओं के बाहर है।
हम अनंत के विस्तार और स्वरुप को परिभाषित नहीं कर सकते किन्तु अनंत के अस्तित्व को मानते हैं। हम व्यवहारिक रूप में अनंत के गुणों और प्रभावों को मानते हैं और उनका उपयोग भी करते हैं। गणित और विज्ञान के उद्देश्य के लिए हम अनंत को एक सूक्ष्म चिन्ह या आकृति द्वारा प्रदर्शित भी करते हैं। उसी प्रकार हम ईश्वर के विस्तार और स्वरुप को सम्पूर्ण रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। किन्तु फिर भी हम उसके गुणों और प्रभावों को मानते और देखते हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ईश्वर गणितज्ञों और वैज्ञानिकों द्वारा माने जाने वाला अनंत है। ईश्वर अनंत है किन्तु वह अनन्त होकर भी अनंत से परे है।
एक बौना अगर किसी विशाल पर्वत के पास खड़े होकर पर्वत को देखना चाहे तब समूचे पर्वत को देख पाना उसकी क्षमताओं के बाहर होगा। वह पर्वत का एक छोटा सा भाग ही देख पायेगा । अगर पर्वत अनेक प्रकार के दृश्यों से भरा हो तब बौना केवल कुछ ही दृश्य देख पाने में समर्थ होगा। पर्वत के पास अनेक स्थानों पर खड़े बौनों से अगर पर्वत के बारे में पूछा जाय तब प्रत्येक बौना पर्वत का स्वरुप वह बताएगा जिस सीमित स्वरुप में उसने पर्वत को देखा है। ईश्वर के सामने हम सब बौने हैं। इस कारण हम बौनों के बीच ईश्वर के बारे में भी भिन्न - भिन्न धारणायें या मान्यतायें होना भी होना स्वाभाविक है।
ईश्वर के प्रभाव को देखने के लिए हम नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों पर विचार कर सकते हैं:
ईश्वर के रहते आप इस दुनिया में अकेले होते हुए भी अकेले नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है और इस कारण निर्जन में भी आपके साथ होता है। कल्पना कीजिये कि आप एक रात्रि में ऐसे निर्जन से गुजर रहे हैं जिसमें हिंसक जंगली जानवरों या डाकू - लुटरों के मिल जाने की संभावना है और उनसे आपको खतरा हो सकता है। जैसे ही यह भाव आपके मन में आता है, आपके मन में भय उत्पन्न हो जाता है और आप घबरा जाते हैं। इसी समय याद आता है कि बजरंगवली (हनुमान जी ) का स्मरण करने से भय दूर हो जाता है। आप हनुमान जी का स्मरण करते हैं। आप के अंदर नयी ऊर्जा का संचार होता है और आपके अंदर का भय समाप्त हो जाता है। आप का कोई स्नेही प्रतिदिन अपने नियमित कार्य से घर से दूर जाता है और रात्रि १० बजे तब बापस आ जाता है। एक दिन वह रात्रि के ११ बजे तक नहीं लौटता, आपको उसके बारे में चिंता होने लगती है। जैसे-जैसे विलम्व होता जाता है आपकी चिंता बढ़ती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब आपका धैर्य टूट जाता है और आप तरह - तरह की होनी और अनहोनी की कल्पना करके दुःख में डूब जाते हैं। किन्तु जैसी ही आप ईश्वर का स्मरण करके उसको रक्षा का भार सौंप देते हैं आपका मन शांत हो जाता है।
ईश्वर अपराध बोध से छुटकारा दिलाता है। कभी-कभी आप भावावेश में या अनजाने में अपराध कर बैठते हैं। बाद में अपराध का बोध होने पर आपको आत्मग्लानि होती है। आपका मन अपने प्रति घृणा से भर जाता है। आप ह्रदय और मन में भारीपन (depression) महसूस करते हैं। जब-जब आपको अपराध की याद आती है आपको कष्ट होता है। अगर आपके मित्र हों और यदि आप मित्रों के समक्ष इसको स्वीकार लें तब आपका ह्रदय और मन हल्का हो जाता है और अपराध बोध से उत्पन्न होने वाले भारीपन से आप छुटकारा पा जाते हैं। मान लीजिये की आपका कोई मित्र नहीं है या फिर अपराध ऐसा है जिसको आप अपने किसी भी मित्र से साझा नहीं कर सकते। तब क्या होगा? तब आप ऐसी अपराध बोध की भावना को ढोते हुये जीवन भर कष्ट उठाते रहेंगे। ईश्वर सर्वव्यापी है अतः वह आपके द्वारा अपराध करने के समय भी आपके पास होता है और इस कारण वह आपके अपराध के बारे में जानता है। ईश्वर आपका मित्र है। अतः उसके साथ आप अपने प्रत्येक कृत्य को साझा कर सकते हैं। जब आप उसके सामने अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लेते हैं तब अपराध से उत्पन्न होने वाली आत्मग्लानि से आपको छुटकारा मिल जाता है।
ईश्वर निराशा में आशा की किरण है। जब कभी आप निराशा के अँधेरे में घिर जाते हैं और आपको कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर होता है जो आपको हिम्मत बँधाता है। जब डॉक्टर किसी रोगी के बारे में सभी चिकित्सा विकल्पों पर विचार कर लेता है और कोई विकल्प कारगर नहीं पाता तब वह भी यह सोचकर निराश नहीं होता कि अभी परम चिकित्सक ultimate doctor ईश्वर है जो रोगी को ठीक कर सकता है। ऐसी स्थिति में यह परम चिकित्सक ultimate doctor रोगी के तीमारदारों और चिकित्सकों के लिए आशा की किरण बन कर अस्तित्व में आता है।
मेरा पुत्र यूनाइटेड किंगडम (इंग्लॅण्ड) में एक शहर में रहकर वहां से लगभग १२० किलोमीटर दूरी पर स्थित अन्य शहर में सर्विस कर रहा है। वह प्रतिदिन यह दूरी मोटर द्वारा तय करके आता-जाता है। घर की सफाई से लेकर घर के सभी काम स्वयं करता है। माँ-वाप का उसके कुशल क्षेम को लेकर चिंता करना स्वाभाविक है। सप्ताह में एक दिन शनिवार या रविवार को उसकी कुशल क्षेम पूछने का अवसर मुझे मिलता है। वाकी दिनों की कुशल क्षेम का भार मैंने ईश्वर पर छोड़ रखा है। इसलिए मैं निश्चिन्त रहता हूँ। कल्पना कीजिये कि अगर ईश्वर न होता तो मैं कितने कष्ट में होता।
ईश्वर न्याय प्रिय है, दयालु है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, प्राणियों पर दया करता है। वह यही सब हमसे भी अपेक्षा करता है। जब हम इन गुणों को अपनाकर इनका समाज में पालन करते हैं तब समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता है। ऐसा करके हम अच्छे सामाजिक मूल्यों की स्थापना करते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों का उल्लेख मैंने अपनी यह बात प्रमाणित करने के लिए किया है कि ईश्वर का अस्तित्व और उसकी मान्यता हमारे व्यवहारिक जीवन में ख़ुशी के लिए, हमारी सुख-समृद्धि के लिए और हमारे समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। यह हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए एक सत्य है। मैंने यहां पर ईश्वर की लीलाओं का उल्लेख नहीं किया है। लीलाओं को कुछ लोग कभी-कभी चमत्कार की संज्ञा भी देते हैं। ईश्वर यह लीलाएं किसी को प्रभावित करने के उद्देश्य से नहीं करते वल्कि वे लीलाओं के माध्यम से अपनी संतानों पर कृपा करते है। उनके कष्टों का निवारण करते हैं। जैसे एक पिता अपनी संतानों से वही सब-कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करता है। उसी प्रकार परम पिता ईश्वर अपनी संतानों से भी वही सब -कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करना पसंद करता है। श्रीमद भगवद गीता के अद्ध्याय १२ के श्लोक २१ के अनुसार:
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तत् तद् एवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद अनुवर्तते।।
श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो आदर्श बताता है, जन समुदाय उसी का आचरण करता है।
स्पष्ट है की परमात्मा हमारा रोल मॉडल है और हमसे वही सब गुण धारण करने की अपेक्षा करता है जो उसने धारण किये हुए हैं। वह अनेक प्रकार के भोगों से प्रसन्न नहीं होता, "ताहि अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावें। ". वह प्रेमवश कदली के छिलके खाकर प्रसन्न होता है। दीन - दुखी मित्र सुदामा के कष्ट हरने के लिए अपने दो लोक देकर प्रसन्न होता है। दुखियारी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए चीर बढ़ाकर प्रसन्न होता है। वह प्रेम का भूखा है। उसे प्रेम चाहिए, वह अपनी सृष्टि में प्रेम देखना चाहता है।
जहां तक कि इन्द्रियों पर नियंत्रण के औचित्य के सम्बन्ध में है हम जानते है कि हमारे स्थूल शरीर में ही भावनाओं, इच्छाओं और कल्पनाओं का जन्म होता है। भावनाओं का प्रभाव हमारे शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंगों यथा ह्रदय, लीवर, किडनी आदि के साथ-साथ हमारे विवेक पर भी पड़ता है। अतः क्रोध, राग, द्वेष जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक होता है । इच्छाएं, शरीर में जो कुछ उपलब्ध है, उसकी मांग नहीं करती, उनकी पूर्ति बाहर से ही संभव होती है। किन्तु अनेक इच्छाओं की पूर्ति घातक हो सकती है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति में अन्य किसी प्राणी की स्वतन्त्रता और अधिकारों का हनन हो सकता है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति करने में समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। हमारे शरीर में पांच (५) ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच (५) कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के माध्यम से हम बाहरी जगत (outer world) से जुड़े होते हैं। इन्हीं के माध्यम से हमारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। अतः अवांछित इच्छाओं की पूर्ति इन पर नियंत्रण करने से ही रोकी जा सकती है। हमारे चरित्र विकास में वाणी का अत्यंत महत्व और योगदान होता है। वाणी पर नियंत्रण भी इन्द्रिय नियंत्रण के माध्यम से किया जा सकता है।
मेरा विचार है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि विषय आचरण की दृष्टी से जीवन के अंतिम चरण के लिए छोड़ने के लिए नहीं हैं। अंतिम चरण तो इनमें विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने या पारंगत होने के लिए हो सकता है। ।
आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं जहाँ हम हर चीज की परिभाषा चाहते हैं, हम उसकी उत्पत्ति, गठन (constitution) और अपने लिए उसकी उपयोगिता जानना चाहते हैं। ऐसे में ईश्वर , धर्म, पूजा और साधु-संतों को लेकर उठने वाले प्रश्न स्वाभाविक ही हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए ये अहम प्रश्न हैं।
ईश्वर के सन्दर्भ में कुछ भी कहने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इन प्रश्नों का उत्तर दे पाना मेरे लिए संभव नहीं है। शायद इस दुनिया में ऐसा कर पाना किसी के लिए संभव न हो। शायद इसलिए कि उसके विस्तार के आगे हम सब बौने हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, शर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता है, यह उसका विस्तार है। ईश्वर उदार है, दयालु है, न्यायी है, प्रकृति जिसका, जीवात्माएं भी एक हिस्सा हैं, का नियंता है, वह अकेले का साथी है, असहायों का सहायक है, एक सच्चा मित्र है, भय, रोग और अपराध-बोध से छुटकारा दिलाने वाला है, निर्बल का बल है, ज्ञान का भण्डार है, वह माता है, पिता है, कभी न समाप्त होने वाला समय है, वह सबका पोषक है, सबसे बड़ा न्यायालय है, निराशा में आशा की किरण है, सत्य का रक्षक है, जीवात्माओं के बीच प्रेम का जनक और पक्षधर है। … वह क्या - क्या है, समग्र रूप में सोच पाना मेरी और अन्य किसी की क्षमताओं के बाहर है।
हम अनंत के विस्तार और स्वरुप को परिभाषित नहीं कर सकते किन्तु अनंत के अस्तित्व को मानते हैं। हम व्यवहारिक रूप में अनंत के गुणों और प्रभावों को मानते हैं और उनका उपयोग भी करते हैं। गणित और विज्ञान के उद्देश्य के लिए हम अनंत को एक सूक्ष्म चिन्ह या आकृति द्वारा प्रदर्शित भी करते हैं। उसी प्रकार हम ईश्वर के विस्तार और स्वरुप को सम्पूर्ण रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। किन्तु फिर भी हम उसके गुणों और प्रभावों को मानते और देखते हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ईश्वर गणितज्ञों और वैज्ञानिकों द्वारा माने जाने वाला अनंत है। ईश्वर अनंत है किन्तु वह अनन्त होकर भी अनंत से परे है।
एक बौना अगर किसी विशाल पर्वत के पास खड़े होकर पर्वत को देखना चाहे तब समूचे पर्वत को देख पाना उसकी क्षमताओं के बाहर होगा। वह पर्वत का एक छोटा सा भाग ही देख पायेगा । अगर पर्वत अनेक प्रकार के दृश्यों से भरा हो तब बौना केवल कुछ ही दृश्य देख पाने में समर्थ होगा। पर्वत के पास अनेक स्थानों पर खड़े बौनों से अगर पर्वत के बारे में पूछा जाय तब प्रत्येक बौना पर्वत का स्वरुप वह बताएगा जिस सीमित स्वरुप में उसने पर्वत को देखा है। ईश्वर के सामने हम सब बौने हैं। इस कारण हम बौनों के बीच ईश्वर के बारे में भी भिन्न - भिन्न धारणायें या मान्यतायें होना भी होना स्वाभाविक है।
ईश्वर के प्रभाव को देखने के लिए हम नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों पर विचार कर सकते हैं:
ईश्वर के रहते आप इस दुनिया में अकेले होते हुए भी अकेले नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है और इस कारण निर्जन में भी आपके साथ होता है। कल्पना कीजिये कि आप एक रात्रि में ऐसे निर्जन से गुजर रहे हैं जिसमें हिंसक जंगली जानवरों या डाकू - लुटरों के मिल जाने की संभावना है और उनसे आपको खतरा हो सकता है। जैसे ही यह भाव आपके मन में आता है, आपके मन में भय उत्पन्न हो जाता है और आप घबरा जाते हैं। इसी समय याद आता है कि बजरंगवली (हनुमान जी ) का स्मरण करने से भय दूर हो जाता है। आप हनुमान जी का स्मरण करते हैं। आप के अंदर नयी ऊर्जा का संचार होता है और आपके अंदर का भय समाप्त हो जाता है। आप का कोई स्नेही प्रतिदिन अपने नियमित कार्य से घर से दूर जाता है और रात्रि १० बजे तब बापस आ जाता है। एक दिन वह रात्रि के ११ बजे तक नहीं लौटता, आपको उसके बारे में चिंता होने लगती है। जैसे-जैसे विलम्व होता जाता है आपकी चिंता बढ़ती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब आपका धैर्य टूट जाता है और आप तरह - तरह की होनी और अनहोनी की कल्पना करके दुःख में डूब जाते हैं। किन्तु जैसी ही आप ईश्वर का स्मरण करके उसको रक्षा का भार सौंप देते हैं आपका मन शांत हो जाता है।
ईश्वर अपराध बोध से छुटकारा दिलाता है। कभी-कभी आप भावावेश में या अनजाने में अपराध कर बैठते हैं। बाद में अपराध का बोध होने पर आपको आत्मग्लानि होती है। आपका मन अपने प्रति घृणा से भर जाता है। आप ह्रदय और मन में भारीपन (depression) महसूस करते हैं। जब-जब आपको अपराध की याद आती है आपको कष्ट होता है। अगर आपके मित्र हों और यदि आप मित्रों के समक्ष इसको स्वीकार लें तब आपका ह्रदय और मन हल्का हो जाता है और अपराध बोध से उत्पन्न होने वाले भारीपन से आप छुटकारा पा जाते हैं। मान लीजिये की आपका कोई मित्र नहीं है या फिर अपराध ऐसा है जिसको आप अपने किसी भी मित्र से साझा नहीं कर सकते। तब क्या होगा? तब आप ऐसी अपराध बोध की भावना को ढोते हुये जीवन भर कष्ट उठाते रहेंगे। ईश्वर सर्वव्यापी है अतः वह आपके द्वारा अपराध करने के समय भी आपके पास होता है और इस कारण वह आपके अपराध के बारे में जानता है। ईश्वर आपका मित्र है। अतः उसके साथ आप अपने प्रत्येक कृत्य को साझा कर सकते हैं। जब आप उसके सामने अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लेते हैं तब अपराध से उत्पन्न होने वाली आत्मग्लानि से आपको छुटकारा मिल जाता है।
ईश्वर निराशा में आशा की किरण है। जब कभी आप निराशा के अँधेरे में घिर जाते हैं और आपको कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर होता है जो आपको हिम्मत बँधाता है। जब डॉक्टर किसी रोगी के बारे में सभी चिकित्सा विकल्पों पर विचार कर लेता है और कोई विकल्प कारगर नहीं पाता तब वह भी यह सोचकर निराश नहीं होता कि अभी परम चिकित्सक ultimate doctor ईश्वर है जो रोगी को ठीक कर सकता है। ऐसी स्थिति में यह परम चिकित्सक ultimate doctor रोगी के तीमारदारों और चिकित्सकों के लिए आशा की किरण बन कर अस्तित्व में आता है।
मेरा पुत्र यूनाइटेड किंगडम (इंग्लॅण्ड) में एक शहर में रहकर वहां से लगभग १२० किलोमीटर दूरी पर स्थित अन्य शहर में सर्विस कर रहा है। वह प्रतिदिन यह दूरी मोटर द्वारा तय करके आता-जाता है। घर की सफाई से लेकर घर के सभी काम स्वयं करता है। माँ-वाप का उसके कुशल क्षेम को लेकर चिंता करना स्वाभाविक है। सप्ताह में एक दिन शनिवार या रविवार को उसकी कुशल क्षेम पूछने का अवसर मुझे मिलता है। वाकी दिनों की कुशल क्षेम का भार मैंने ईश्वर पर छोड़ रखा है। इसलिए मैं निश्चिन्त रहता हूँ। कल्पना कीजिये कि अगर ईश्वर न होता तो मैं कितने कष्ट में होता।
ईश्वर न्याय प्रिय है, दयालु है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, प्राणियों पर दया करता है। वह यही सब हमसे भी अपेक्षा करता है। जब हम इन गुणों को अपनाकर इनका समाज में पालन करते हैं तब समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता है। ऐसा करके हम अच्छे सामाजिक मूल्यों की स्थापना करते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों का उल्लेख मैंने अपनी यह बात प्रमाणित करने के लिए किया है कि ईश्वर का अस्तित्व और उसकी मान्यता हमारे व्यवहारिक जीवन में ख़ुशी के लिए, हमारी सुख-समृद्धि के लिए और हमारे समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। यह हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए एक सत्य है। मैंने यहां पर ईश्वर की लीलाओं का उल्लेख नहीं किया है। लीलाओं को कुछ लोग कभी-कभी चमत्कार की संज्ञा भी देते हैं। ईश्वर यह लीलाएं किसी को प्रभावित करने के उद्देश्य से नहीं करते वल्कि वे लीलाओं के माध्यम से अपनी संतानों पर कृपा करते है। उनके कष्टों का निवारण करते हैं। जैसे एक पिता अपनी संतानों से वही सब-कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करता है। उसी प्रकार परम पिता ईश्वर अपनी संतानों से भी वही सब -कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करना पसंद करता है। श्रीमद भगवद गीता के अद्ध्याय १२ के श्लोक २१ के अनुसार:
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तत् तद् एवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद अनुवर्तते।।
श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो आदर्श बताता है, जन समुदाय उसी का आचरण करता है।
स्पष्ट है की परमात्मा हमारा रोल मॉडल है और हमसे वही सब गुण धारण करने की अपेक्षा करता है जो उसने धारण किये हुए हैं। वह अनेक प्रकार के भोगों से प्रसन्न नहीं होता, "ताहि अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावें। ". वह प्रेमवश कदली के छिलके खाकर प्रसन्न होता है। दीन - दुखी मित्र सुदामा के कष्ट हरने के लिए अपने दो लोक देकर प्रसन्न होता है। दुखियारी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए चीर बढ़ाकर प्रसन्न होता है। वह प्रेम का भूखा है। उसे प्रेम चाहिए, वह अपनी सृष्टि में प्रेम देखना चाहता है।
जहां तक कि इन्द्रियों पर नियंत्रण के औचित्य के सम्बन्ध में है हम जानते है कि हमारे स्थूल शरीर में ही भावनाओं, इच्छाओं और कल्पनाओं का जन्म होता है। भावनाओं का प्रभाव हमारे शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंगों यथा ह्रदय, लीवर, किडनी आदि के साथ-साथ हमारे विवेक पर भी पड़ता है। अतः क्रोध, राग, द्वेष जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक होता है । इच्छाएं, शरीर में जो कुछ उपलब्ध है, उसकी मांग नहीं करती, उनकी पूर्ति बाहर से ही संभव होती है। किन्तु अनेक इच्छाओं की पूर्ति घातक हो सकती है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति में अन्य किसी प्राणी की स्वतन्त्रता और अधिकारों का हनन हो सकता है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति करने में समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। हमारे शरीर में पांच (५) ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच (५) कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के माध्यम से हम बाहरी जगत (outer world) से जुड़े होते हैं। इन्हीं के माध्यम से हमारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। अतः अवांछित इच्छाओं की पूर्ति इन पर नियंत्रण करने से ही रोकी जा सकती है। हमारे चरित्र विकास में वाणी का अत्यंत महत्व और योगदान होता है। वाणी पर नियंत्रण भी इन्द्रिय नियंत्रण के माध्यम से किया जा सकता है।
मेरा विचार है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि विषय आचरण की दृष्टी से जीवन के अंतिम चरण के लिए छोड़ने के लिए नहीं हैं। अंतिम चरण तो इनमें विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने या पारंगत होने के लिए हो सकता है। ।
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