Saturday, December 5, 2015

अक्षय एवं असीमित प्यार

मित्रो !

     प्यार की भावना ईश्वर की अनमोल देन है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर प्यार का अक्षय एवं असीमित भण्डार होता है। इसमें से जितना प्राणी खर्च करता है ईश्वर उतने की प्रतिपूर्ति कर देता है। 
     जो प्यार से अनभिज्ञ रहता है या जानकार होने के बाद भी इसे खर्च नहीं करता वह घाटे में रहता है। जो प्यार को जानता है और खर्च करता है वह खुशियाँ बिखेरता और समेटता रहता है , उसका जीवन हरे-भरे बगीचे के समान होता है।


सोच का प्रदूषण - I


मित्रो !
       महामहिम राष्ट्रपति भारत सरकार, प्रणब मुखर्जी द्वारा दिनांक दिसम्बर 01, 2015 को साबरमती आश्रम अहमदाबाद, गुजरात में एक उदघाटन समारोह में एकत्र हुए जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए निम्न प्रकार अपने विचार व्यक्त किये हैं :
“The real dirt of India lies not on our streets but in our minds and in our unwillingness to let go of views that divide society into them and us, pure and impure.” 
      मेरे द्वारा यहीं फेसबुक पर अपनी टाइमलाइन पर नवम्बर 21, 2015 को इसी शीर्षक "सोच का प्रदूषण" से निम्न लिखित शब्दों में फोटो के साथ एक पोस्ट प्रकाशित की गयी थी :
     "पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो अपनी जगह है ही, दुनियां के विभिन्न देश इसको कम करने के लिए सक्रिय भी हैं किन्तु विकृत विचारों, वैमनस्य, असहिष्णुता, आदि से हमारी सोच में होने वाला प्रदूषण एक बड़ी चिंता का विषय है। इसके चलते मानवता और भाईचारे के मूल्यों में लगातार ह्रास हो रहा है।"
     मेरा मानना है कि यदि ऐसे प्रदूषण पर नियंत्रण न पाया गया तब हमारी प्रगति शून्य हो जाएगी, हम असभ्य की श्रेणी में पहुँच जायेंगे और यदि ऐसा हुआ तब ईश्वर भी हमारी मदद नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी संतानों से ऐसे कुत्सित आचरण की अपेक्षा नहीं करता। परमपिता ही क्या कोई भी पिता अपनी संतानों को आपस में लड़ता - झगड़ता नहीं देखना चाहता।
    आप सोच सकते हैं यह विचारों का प्रदूषण कितना गंभीर विषय है। मेरे द्वारा पूर्व में 21-11-2015 को व्यक्त किये गए विचारों को महामहिम द्वारा 01-12-2015 को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद में व्यक्त किये गए विचारों से बल मिलता है।



सोच का प्रदूषण 
मित्रो !

   "पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो अपनी जगह है ही, दुनियां के विभिन्न देश इसको कम करने के लिए सक्रिय भी हैं किन्तु विकृत विचारों, वैमनस्य, असहिष्णुता, आदि से हमारी सोच में होने वाला प्रदूषण एक बड़ी चिंता का विषय है। इसके चलते मानवता और भाईचारे के मूल्यों में लगातार ह्रास हो रहा है।"
   मेरा मानना है कि यदि ऐसे प्रदूषण पर नियंत्रण न पाया गया तब हमारी प्रगति शून्य हो जाएगी, हम असभ्य की श्रेणी में पहुँच जायेंगे और यदि ऐसा हुआ तब ईश्वर भी हमारी मदद नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी संतानों से ऐसे कुत्सित आचरण की अपेक्षा नहीं करता। परमपिता ही क्या कोई भी पिता अपनी संतानों को आपस में लड़ता - झगड़ता नहीं देखना चाहता।
आप सोच सकते हैं यह विचारों का प्रदूषण कितना गंभीर विषय है।




मा फलेषु कदाचन


मित्रो !
       कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा क्यों कहा है ? 
       गीता के अध्याय 2 के श्लोक 47 के अनुसार कर्म करने का अधिकार मनुष्य को मिला है किन्तु मनुष्य फल का अधिकारी नहीं है। विचारणीय यह है कि क्या कर्म का कोई फल नहीं होता ? क्या कर्म करने से फल नहीं मिलता ? क्या यहाँ पर निस्वार्थ कर्म करने की बात कही गयी है ? ऐसे प्रश्न मन में प्रायः उठते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रत्येक कर्म का एक फल होता है। कर्म करने वाले को इसका फल मिलता भी है। ईश्वर महान्यायी है, वह कर्म करने वाले प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देता है किन्तु मनुष्य अपने द्वारा किये गए कर्म का फल स्वयं नहीं चुन सकता, कर्म के अनुसार फल का निर्धारण ईश्वर ही करता है। 
       क्या कर्म करना है, का चुनाव मनुष्य करता है। अगर फल के चुनाव का अधिकार मनुष्य को मिल जाय तब प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक कर्म का सर्वोत्तम फल ही लेना चाहेगा भले ही उसने आधा-अधूरा कार्य किया हो। मनुष्य अपराध करके भी स्वर्ग भोगना चाहेगा। अच्छे और बुरे का भेद ही समाप्त हो जायेगा। इसी कारण कर्म के चयन करने और चयनित कर्म को करने का अधिकार मनुष्य को दिया गया है और फल के चयन करने का अधिकार मनुष्य को नहीं दिया गया है।



न करें दाता का अपमान


मित्रो !
     जो ख़ुशी मिली नहीं उसकी चाहत में जो खुशियाँ मिलीं हैं उनका व्यर्थ में गँवा देना स्वयं की मूर्खता और खुशियाँ देने वाले का अपमान है। 
    जो मिला नहीं उसका गम नहीं, जो मिला है वह कम नहीं। गोस्वामी तुलसी दास जी ने उचित ही कहा है "जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिये।"


असहिष्णुता


मित्रो !
     आज हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि सहिष्णुता के मामले में हम अन्य देशों से आगे हैं। किन्तु इस आधार पर सहिष्णुता में विश्वास रखने वाले देश में किसी व्यक्ति को असहिष्णु आचरण करने की छूट नहीं दी जा सकती है।


कारण और उद्देश्य


मित्रो !
      कारण और उद्देश्य के जाने बिना हमें कोई कार्य नहीं करना चाहिए।

We should not act without knowing the reason and the purpose.


बदनामी पीछा नहीं छोड़ती


मित्रो !
     बदनाम व्यक्ति द्वारा नेक इरादों से किये गए कार्यों को भी लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं। हमें चाहिए कि हम अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए अच्छे कार्य करते हुए अपनी अच्छी छवि का निर्माण करें।


जन अदालत माफ़ नहीं करती


मित्रो !
      हमें याद रखना चाहिए कि जनता के बीच या जनता के साथ किये गए किसी अपराध के मामले में कोई अदालत सबूतों के अभाव में किसी अपराधी को भले ही ससम्मान बरी कर दे किन्तु जनता न तो अपराधी को सम्मान लौटाती है और न ही कभी माफ़ करती है। जनता अपने अपराध करने वाले को अपराधी ही मानती है।
     जन अदालत सबूतों की मोहताज नहीं होती, वह अपना निर्णय आत्मा की आवाज पर करती है। उसकी नज़रों में अपराधी सदैव अपराधी रहता है और निर्दोष सदैव निर्दोष रहता है, भले ही न्यायलय द्वारा इसके विपरीत निर्णय दिए गए हों।


देश और समाज हित



मित्रो !
     प्रत्येक व्यक्ति अपने देश और समाज का ऋणी होने के साथ-साथ इनकी एक इकाई भी होता है। उसका दयित्व होता है कि वह देश और समाज की बेहतरी के लिए कार्य करे।


धर्म परिवर्तन


मित्रो !
    मैंने पूर्व में एक पोस्ट "धर्म-क्षेत्र में परिवर्तनों की गुंजाइश : Scope for Changes in the Field of Religion" शीर्षक से प्रकाशित की थी। इस पोस्ट में मैंने निम्नप्रकार विचार व्यक्त किये थे :
मेरे विचार से सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए धर्म के दो भाग होते हैं। एक भाग में जीवन के अपरिवर्तनशील शाश्वत मूल्य होते हैं, दूसरे भाग में रीति-रिवाज (customs & traditions) और जीवन शैली होते हैं। मेरा मानना है कि शाश्वत मूल्यों पर प्रभाव डाले बिना मानव जीवन की बेहतरी के लिए दूसरे भाग में किये गए परिवर्तनों से धर्म की हानि नहीं होती। 
    यदि हम लोगों को यह समझा पाने में कामयाब हो जाते हैं तब हम अनेक कुरीतियों से समाज को बचा सकते हैं। इसी सन्दर्भ में मैं कहना चाहूँगा कि - 
   हिन्दू दलितों और आदिवासियों द्वारा हिन्दू धर्म को छोड़कर कोई अन्य धर्म अपनाना उनका शौक नहीं, उनकी मजबूरी है। मेरा मानना है कि धार्मिक एकता की वकालत करने वालों द्वारा उनकी मजबूरियों को समझने और दूर करने की दिशा में सकारात्मक पहल किये जाने की जरूरत है।


आरक्षित ईश्वर

मित्रो !

     कभी-कभी इस सोच में पड़ जाता हूँ कि अगर मेरा जन्म हिन्दू धर्म के अनुयायी किसी दलित परिवार में हुआ होता और जब मेरी कोई संतान किसी मंदिर के पास से गुजरने पर मंदिर में बैठे ईश्वर को देखने की जिद करती तब मैं उसे क्या कह कर बहलाता।

     क्या मैं यह कह देता कि यह तुम्हारा ईश्वर नहीं है या उससे अगले जन्म का इंतजार करने को कहता या शायद मैं यह भी सोचने को विवश हो जाता कि मैं कोई ऐसा धर्म अपना लूँ जिसमें ईश्वर के घर के दरवाजे बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुले रहते हैं और जिसके अनुयायियों में ऊँच-नीच को लेकर इंसानों में भेदभाव नहीं होता।
    मंदिर की सुरक्षा, सफाई,  पवित्रता और शांति को बनाये रखने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश न देना उचित हो सकता है किन्तु स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, धर्म और जाति के आधार पर भेद-भाव किया जाना पूर्णतः अनुचित है। ईश्वर केवल चयनित वर्ग के ही लोंगों का नहीं है, वह (ईश्वर) तो उन सब का है जो उसमें विश्वास करते हैं।