मित्रो !
कभी-कभी इस सोच में पड़ जाता हूँ कि अगर मेरा जन्म हिन्दू धर्म के अनुयायी किसी दलित परिवार में हुआ होता और जब मेरी कोई संतान किसी मंदिर के पास से गुजरने पर मंदिर में बैठे ईश्वर को देखने की जिद करती तब मैं उसे क्या कह कर बहलाता।
क्या मैं यह कह देता कि यह तुम्हारा ईश्वर नहीं है या उससे अगले जन्म का इंतजार करने को कहता या शायद मैं यह भी सोचने को विवश हो जाता कि मैं कोई ऐसा धर्म अपना लूँ जिसमें ईश्वर के घर के दरवाजे बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुले रहते हैं और जिसके अनुयायियों में ऊँच-नीच को लेकर इंसानों में भेदभाव नहीं होता।
मंदिर की सुरक्षा, सफाई, पवित्रता और शांति को बनाये रखने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश न देना उचित हो सकता है किन्तु स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, धर्म और जाति के आधार पर भेद-भाव किया जाना पूर्णतः अनुचित है। ईश्वर केवल चयनित वर्ग के ही लोंगों का नहीं है, वह (ईश्वर) तो उन सब का है जो उसमें विश्वास करते हैं।