मित्रो !
श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा ईश्वर
के समय-समय पर अवतरित होने के कारण अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना करना बताये गए हैं। गीता और
रामायण धार्मिक ग्रन्थ हैं, उनमें क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है का वर्णन
है। उनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार आवश्यक है। उनका संरक्षण और उचित सम्मान हमारा कर्तव्य
हैं। किन्तु धर्म का अर्थ धारण करने से होता
है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि धार्मिक ग्रंथों की उपयोगिता केवल उनकी पूजा करने में
है अथवा उनमें कही गयी बातों पर आचरण करने में है।
मेरा विचार है कि धर्म ग्रन्थ केवल संरक्षण और पूजा के लिए ही नहीं हैं,
हमें उनमें कही गयी
बातों / दिए गए सिद्धांतो को अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाना चाहिए। हमें यह नहीं
भूलना चाहिए कि शाश्वत मूल्य सदैव अपरिवर्तित रहते हैं। अन्य मामलों में धर्म ग्रंथों में कही गयी बातों
को आधुनिक जीवन की परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में देखना और समझना चाहिए।
यह मेरी समझ से पर है कि ईश्वर के द्वारा बताये गए सिद्धांतों के विपरीत आचरण करके
कोई ईश्वर को कैसे प्रसन्न कर सकता है। क्या
ऐसा करना ईश्वर से बगावत करना नहीं होगा?
यह सब हमें यह सोचने पर विवश करता है कि -
जो व्यक्ति ईश्वर
द्वारा स्वयं अवतरित होकर प्रस्तुत किये गए आदर्शों, जिनका वर्णन धर्म ग्रंथों में है,
पर न चलकर उनके विपरीत
आचरण करता हो उसका ईश्वर और धर्म को मानने और ईश्वर की पूजा करने का दावा सही नहीं
ठहराया जा सकता। ईश्वर के अवतरण का उद्देश्य
मनुष्य से अपनी पूजा करवाने का नहीं होता।
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