मित्रो!
कभी-कभी
यह सोच कर
कि हमारे राष्ट्र
का चरित्र क्या
है और हम
जी क्या रहे
हैं? दुखी हो
जाता हूँ। धर्म चाहे
कोई भी क्यों
न हो, हम
अपने ईश्वर को
करुणा का अवतार
(करुणावतारम) मानकर उसकी आराधना
करते हैं किन्तु
जब करुणा करने
की बारी आती
है तब हम
निर्दयी बन जाते
हैं। क्या
यह हमारा दोहरा
और संदिग्ध चरित्र
नहीं दर्शाता है?
Sometimes
when I think about our national character and the character which we are living, I become sad. Regardless of our
religion, we all worship our God as the incarnation of compassion
(Karunavataam), but when it comes to compassion, then we become merciless.
Whether this does not reflect our double and dubious character?
मेरा मानना है कि
--
किसी राष्ट्र
का चरित्र वह
नहीं होता जिसकी
अपेक्षा ग्रंथों और धर्म-
ग्रंथों में की
गयी होती है।
किसी राष्ट्र का
धर्म वह होता
है जो उसमें
रहने वाले लोगों
के क्रिया-कलापों
से परिभाषित होता
है।
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