Wednesday, June 3, 2015

मोक्ष क्या है


मित्रो !

हमारे शरीर में आत्मा जीवात्मा के रूप में रहता है। हम अपने मन, बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा जो भी शारीरिक, मानसिक या वाचिक (वाणी) कर्म करते हैं उसका कर्त्ता जीवात्मा होता है। हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म दो प्रकार के होते हैं, सकाम कर्म और निष्काम कर्म। कोई भी कर्म जो फल की इच्छा से किया जाता है, सकाम कर्म की श्रेणी में आता है, जो कर्म बिना फल की इच्छा के किया जाता है वह निष्काम कर्म की श्रेणी में आता है।
प्रत्येक सकाम कर्म का फल अवश्य मिलता है, यह हमारी इच्छा पर नहीं निर्भर करता कि हम किसी सकाम कर्म का फल न लें। हमारे शरीर में कर्मों के फलों का भोग करने वाला हमारे शरीर का जीवात्मा होता है।
फल प्राप्ति के समय की दृष्टी से सकाम कर्म तीन श्रेणियों के होते हैं, क्रियमाण कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म। जब कर्म करने के साथ ही साथ हमें उसका फल भी मिल रहा होता है तब यह क्रियमाण कर्म कहलाता है। जिस कर्म का फल हमें कर्म करने के साथ नहीं मिलता संचित कर्म कहलाता है, संचित कर्मों में से जिस कर्म का फल हमें किसी समय मिल रहा होता है वह प्रारब्ध कर्म कहलाता है। किसी क्षण पर संचित कर्म के अंतर्गत वे सभी कर्म आते हैं जिनके उस समय तक फल प्राप्त नहीं हुए होते हैं। समय गुजरने के साथ संचित कर्म जुड़ते रहते हैं और कुल संचित कर्मों में से प्रारब्ध कर्म जिनके फल मिल चुके होते हैं घटते रहते हैं। 
किसी भी संचित कर्म के अवशेष रहते जीवात्मा स्वतंत्र नहीं हो पाता, जिस कर्म का वह कर्त्ता है उसका फल तो उसे भोगना ही होता है। अनेक ऐसे कर्म होते हैं जिनका फल जीवन में मृत्यु से पूर्व नहीं मिल पाता। अतः मृत्यु के समय उपलब्ध संचित कर्मों के फलों के भोग के लिए जीवात्मा को नया शरीर पुनर्जन्म के रूप में धारण करना पड़ता है ताकि जीवात्मा फलों का भोग कर सके। 
एक प्रश्न यह हो सकता है कि संचित कर्मों के फलों का भोग जीवात्मा बिना शरीर के क्यों नहीं करता, नया शरीर क्यों धारण करता है। इसका उत्तर यह है कि वास्तव में मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ प्रकृति के तीन गुणों से प्रेरित हुयी कर्म करती हैं किन्तु जीवात्मा कर्त्ता स्वयं को मान लेता है। यह जीव के शरीर में विद्यमान अहंकार की बजह से है। फल का भी वास्तविक भोग शरीर ही करता है किन्तु जीवात्मा स्वयं अपने को भोक्ता मानता है। मृत्यु होने पर शरीर नष्ट हो जाता है अतः संचित कर्म उसके साथ नहीं जाते और न ही नष्ट होते हैं। जीवात्मा मरता नहीं है अतः संचित कर्म जीवात्मा के साथ उस समय तक रहते हैं जब तक उनका फल प्राप्त नहीं हो जाता।
जिस समय संचित कर्मों की पूँजी शून्य हो जाएगी अर्थात सभी संचित कर्मों के फल जीवात्मा भोग चुका होगा और जीवात्मा आगे फल की इच्छा से कोई कर्म नहीं करेगा, केवल निष्काम कर्म ही करेगा (यथा बिना मनोरथ के भगवद भक्ति) तब उसे किसी कर्म का फल भोगने के लिए किसी शरीर की आवश्यकता अर्थात पुनर्जन्म की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, वह पुनर्जन्म और मृत्यु के बन्धन से छूट जाएगा। यही मुक्ति होगी, यही मोक्ष होगा।

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