Friday, October 31, 2014

प्यार में संवादहीनता : Communication Gap in Love

       अनेक मामलों में पत्नी की शिकायत होती है कि उसके पति उसे प्यार नहीं करते जबकि पति का दावा होता है कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है अथवा पति को अपनी पत्नी से शिकायत होती है कि उसकी अपनी पत्नी उसे प्यार नहीं करती जबकि पत्नी का दावा होता है कि वह अपने पति को बहुत प्यार करती है। यह स्थिति होने पर परिवार में तनाव बढ़ता है। इसी तरह अनेक बच्चे यह शिकायत करते हैं कि उनके मम्मी-पापा उन्हें प्यार नहीं करते जबकि उनके मम्मी और पापा का दावा होता है कि वे अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं। यह स्थिति होने पर बच्चों के समग्र विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि पति द्वारा पत्नी को प्यार किये जाने, पत्नी द्वारा पति को प्यार किये जाने और मम्मी-पापा द्वारा अपने बच्चों को प्यार किये जाने के दावे सही हैं तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दूसरा पक्ष प्यार पाने से वंचित क्यों रह जाता है, उसे प्यार की अनुभूति क्यों नहीं होती है।
मेरे विचार से पति-पत्नी के मध्य ऐसा निम्नलिखित कारणों से हो सकता है :
(1) प्यार जताने के लिए उपयुक्त वातावरण और समय का न होना।
(2) प्यार जताने वाले व्यक्ति द्वारा उपयुक्त और स्पष्ट भाषा का प्रयोग न किया जाना।
(3) प्यार जताने वाले की भाव भंगिमा (हाव-भाव) का उपयुक्त न होना।
(4) प्यार पाने वाले की प्यार करने वाले के प्रति नकारात्मक सोच।
(5) प्यार जताने और प्यार पाने वालों के मध्य किसी बात को लेकर तनाव का होना।
(6) प्यार का स्वरुप विद्यमान परिस्थितियों के अनुकूल न होना।
(7) संवाद के समय वाणी में मधुरता और सरसता का अभाव।
(8) संवाद में अनौपचारिकता का अभाव।
(9) दूसरे की भावनाओं और सम्बन्धियों का समुचित आदर न करना।
(10) दूसरे की रूचि और ख़ुशी का ख्याल न रखना।
(11) प्यार और उसके स्वरूपों के प्रति अनभिज्ञता।
      मेरा विचार है कि प्यार करना एक कला है। इसके अनेक स्वरुप हैं। यह अत्यंत आवश्यक होता है कि प्यार करने वाले को यह आना चाहिए कि किस समय और किस परिस्थिति में प्यार को इसके किस स्वरुप में व्यक्त किया जाय। प्यार में त्याग की भावना का होना भी आवश्यक होता है।
      मित्रो ! मैंने अपने विवेक से प्यार में संवादहीनता के कारणों का विश्लेषण किया है। संभव है कि कुछ कारणों का उल्लेख होने से रह गया हो। मैं अनुगृहीत हूँगा यदि आप अन्य मित्रों की जानकारी के लिए ऐसे कारणों का उल्लेख अपने द्वारा टिप्पणी में अंकित करने की कृपा करेंगे। माँ-वाप और बच्चों की मध्य प्यार में संवादहीनता के विषय में मैं अलग से विचार करना चाहूँगा।
***

Tuesday, October 28, 2014

ईश्वर - एक सोच : GOD - A CONCEPT

        कुछ लोगों की जिज्ञासा हो सकती है कि ईश्वर क्या है और वे ईश्वर के अस्तित्व को क्यों माने? कुछ लोगों की यह भी सोच हो सकती है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि ऐसे पहलू हैं जिन पर जीवन के अंतिम चरण में विचार किया जा सकता है। कुछ लोगों की यह सोच भी हो सकती है कि आत्मा, परमात्मा और उनका योग (Union) साधु-संतो के लिए हैं और इनका गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। इनकी सोच जीवन में वैराग्य को जन्म देती है।
       आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं जहाँ हम हर चीज की परिभाषा चाहते हैं, हम उसकी उत्पत्ति, गठन (constitution) और अपने लिए उसकी उपयोगिता जानना चाहते हैं। ऐसे में ईश्वर , धर्म, पूजा और साधु-संतों को लेकर उठने वाले प्रश्न स्वाभाविक ही हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए ये अहम प्रश्न हैं।
       ईश्वर के सन्दर्भ में कुछ भी कहने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इन प्रश्नों का उत्तर दे पाना मेरे लिए संभव नहीं है। शायद इस दुनिया में ऐसा कर पाना किसी के लिए संभव न हो। शायद इसलिए कि उसके विस्तार के आगे हम सब बौने हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, शर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता है, यह उसका विस्तार है। ईश्वर उदार है, दयालु है, न्यायी है, प्रकृति जिसका, जीवात्माएं भी एक हिस्सा हैं, का नियंता है, वह अकेले का साथी है, असहायों का सहायक है, एक सच्चा मित्र है, भय, रोग और अपराध-बोध से छुटकारा दिलाने वाला है, निर्बल का बल है, ज्ञान का भण्डार है, वह माता है, पिता है, कभी न समाप्त होने वाला समय है, वह सबका पोषक है, सबसे बड़ा न्यायालय है, निराशा में आशा की किरण है, सत्य का रक्षक है, जीवात्माओं के बीच प्रेम का जनक और पक्षधर है। … वह क्या - क्या है, समग्र रूप में सोच पाना मेरी और अन्य किसी की क्षमताओं के बाहर है।
       हम अनंत के विस्तार और स्वरुप को परिभाषित नहीं कर सकते किन्तु अनंत के अस्तित्व को मानते हैं। हम व्यवहारिक रूप में अनंत के गुणों और प्रभावों को मानते हैं और उनका उपयोग भी करते हैं। गणित और विज्ञान के उद्देश्य के लिए हम अनंत को एक सूक्ष्म चिन्ह या आकृति द्वारा प्रदर्शित भी करते हैं। उसी प्रकार हम ईश्वर के विस्तार और स्वरुप को सम्पूर्ण रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। किन्तु फिर भी हम उसके गुणों और प्रभावों को मानते और देखते हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ईश्वर गणितज्ञों और वैज्ञानिकों द्वारा माने जाने वाला अनंत है। ईश्वर अनंत है किन्तु वह अनन्त होकर भी अनंत से परे है।
       एक बौना अगर किसी विशाल पर्वत के पास खड़े होकर पर्वत को देखना चाहे तब समूचे पर्वत को देख पाना उसकी क्षमताओं के बाहर होगा। वह पर्वत का एक छोटा सा भाग ही देख पायेगा । अगर पर्वत अनेक प्रकार के दृश्यों से भरा हो तब बौना केवल कुछ ही दृश्य देख पाने में समर्थ होगा। पर्वत के पास अनेक स्थानों पर खड़े बौनों से अगर पर्वत के बारे में पूछा जाय तब प्रत्येक बौना पर्वत का स्वरुप वह बताएगा जिस सीमित स्वरुप में उसने पर्वत को देखा है। ईश्वर के सामने हम सब बौने हैं। इस कारण हम बौनों के बीच ईश्वर के बारे में भी भिन्न - भिन्न धारणायें या मान्यतायें होना भी होना स्वाभाविक है।
       ईश्वर के प्रभाव को देखने के लिए हम नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों पर विचार कर सकते हैं:
       ईश्वर के रहते आप इस दुनिया में अकेले होते हुए भी अकेले नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है और इस कारण निर्जन में भी आपके साथ होता है। कल्पना कीजिये कि आप एक रात्रि में ऐसे निर्जन से गुजर रहे हैं जिसमें हिंसक जंगली जानवरों या डाकू - लुटरों के मिल जाने की संभावना है और उनसे आपको खतरा हो सकता है। जैसे ही यह भाव आपके मन में आता है, आपके मन में भय उत्पन्न हो जाता है और आप घबरा जाते हैं। इसी समय याद आता है कि बजरंगवली (हनुमान  जी ) का स्मरण करने से भय दूर हो जाता है। आप हनुमान जी का स्मरण करते हैं। आप के अंदर नयी ऊर्जा का संचार होता है और आपके अंदर का भय समाप्त हो जाता है। आप का कोई स्नेही प्रतिदिन अपने नियमित कार्य से घर से दूर जाता है और रात्रि १० बजे तब बापस आ जाता है। एक दिन वह रात्रि के ११ बजे तक नहीं लौटता, आपको उसके बारे में चिंता होने लगती है। जैसे-जैसे विलम्व होता जाता है आपकी चिंता बढ़ती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब आपका धैर्य टूट जाता है और आप तरह - तरह की होनी और अनहोनी की कल्पना करके दुःख में डूब जाते हैं। किन्तु जैसी ही आप ईश्वर का स्मरण करके उसको रक्षा का भार सौंप देते हैं आपका मन शांत हो जाता है।
       ईश्वर अपराध बोध से छुटकारा दिलाता है। कभी-कभी आप भावावेश में या अनजाने में अपराध कर बैठते हैं। बाद में अपराध का बोध होने पर आपको आत्मग्लानि होती है। आपका मन अपने प्रति घृणा से भर जाता है। आप ह्रदय और मन में भारीपन (depression) महसूस करते हैं। जब-जब आपको अपराध की याद आती है आपको कष्ट होता है। अगर आपके मित्र हों और यदि आप मित्रों के समक्ष इसको स्वीकार लें तब आपका ह्रदय और मन हल्का हो जाता है और अपराध बोध से उत्पन्न होने वाले भारीपन से आप छुटकारा पा जाते हैं। मान लीजिये की आपका कोई मित्र नहीं है या फिर अपराध ऐसा है जिसको आप अपने किसी भी मित्र से साझा नहीं कर सकते। तब क्या होगा? तब आप ऐसी अपराध बोध की भावना को ढोते हुये जीवन भर कष्ट उठाते रहेंगे। ईश्वर सर्वव्यापी है अतः वह आपके द्वारा अपराध करने के समय भी आपके पास होता है और इस कारण वह आपके अपराध के बारे में जानता है। ईश्वर आपका मित्र है। अतः उसके साथ आप अपने प्रत्येक कृत्य को साझा कर सकते हैं। जब आप उसके सामने अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लेते हैं तब अपराध से उत्पन्न होने वाली आत्मग्लानि से आपको छुटकारा मिल  जाता है।
       ईश्वर निराशा में आशा की किरण है। जब कभी आप निराशा के अँधेरे में घिर जाते हैं और आपको कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर होता है जो आपको हिम्मत बँधाता है। जब डॉक्टर किसी रोगी के बारे में सभी चिकित्सा विकल्पों पर विचार कर लेता है और कोई विकल्प कारगर नहीं पाता तब वह भी यह सोचकर निराश नहीं होता कि अभी परम चिकित्सक ultimate doctor ईश्वर है जो रोगी को ठीक कर सकता है। ऐसी स्थिति में यह परम चिकित्सक ultimate doctor रोगी के तीमारदारों और चिकित्सकों के लिए आशा की किरण बन कर अस्तित्व में आता है।
       मेरा पुत्र यूनाइटेड किंगडम (इंग्लॅण्ड) में एक शहर में रहकर वहां से लगभग १२० किलोमीटर दूरी पर स्थित अन्य शहर में सर्विस कर रहा है। वह प्रतिदिन यह दूरी मोटर द्वारा तय करके आता-जाता है। घर की सफाई से लेकर घर के सभी काम स्वयं करता है। माँ-वाप का उसके कुशल क्षेम को लेकर चिंता करना स्वाभाविक है। सप्ताह में एक दिन शनिवार या रविवार को उसकी कुशल क्षेम पूछने का अवसर मुझे मिलता है। वाकी दिनों की कुशल क्षेम का भार मैंने ईश्वर पर छोड़ रखा है। इसलिए मैं निश्चिन्त रहता हूँ। कल्पना कीजिये कि अगर ईश्वर न होता तो मैं कितने कष्ट में होता।
       ईश्वर न्याय प्रिय है, दयालु है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, प्राणियों पर दया करता है। वह यही सब हमसे भी अपेक्षा करता है। जब हम इन गुणों को अपनाकर इनका समाज में पालन करते हैं तब समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता है। ऐसा करके हम अच्छे सामाजिक मूल्यों की स्थापना करते हैं।
       उपर्युक्त उदाहरणों का उल्लेख मैंने अपनी यह बात प्रमाणित करने के लिए किया है कि ईश्वर का अस्तित्व और उसकी मान्यता हमारे व्यवहारिक जीवन में ख़ुशी के लिए, हमारी सुख-समृद्धि के लिए और हमारे समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। यह हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए एक सत्य है। मैंने यहां पर ईश्वर की लीलाओं का उल्लेख नहीं किया है। लीलाओं को कुछ लोग कभी-कभी चमत्कार की संज्ञा भी देते हैं। ईश्वर यह लीलाएं किसी को प्रभावित करने के उद्देश्य से नहीं करते वल्कि वे लीलाओं के माध्यम से अपनी संतानों पर कृपा करते है। उनके कष्टों का निवारण करते हैं। जैसे एक पिता अपनी संतानों से वही सब-कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करता है। उसी प्रकार परम पिता ईश्वर अपनी संतानों से भी वही सब -कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करना पसंद करता है। श्रीमद भगवद गीता के अद्ध्याय १२ के श्लोक २१ के अनुसार:
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तत् तद् एवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद अनुवर्तते।।
श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो आदर्श बताता है, जन समुदाय उसी का आचरण करता है। 

       स्पष्ट है की परमात्मा हमारा रोल मॉडल है और हमसे वही सब गुण धारण करने की अपेक्षा करता है जो उसने धारण किये हुए हैं। वह अनेक प्रकार के भोगों से प्रसन्न नहीं होता, "ताहि अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावें। ". वह प्रेमवश कदली के छिलके खाकर प्रसन्न होता है। दीन - दुखी मित्र सुदामा के कष्ट हरने के लिए अपने दो लोक देकर प्रसन्न होता है। दुखियारी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए चीर बढ़ाकर प्रसन्न होता है। वह प्रेम का भूखा है। उसे प्रेम चाहिए, वह अपनी सृष्टि में प्रेम देखना चाहता है।
       जहां तक कि इन्द्रियों पर नियंत्रण के औचित्य के सम्बन्ध में है हम जानते है कि हमारे स्थूल शरीर में ही भावनाओं, इच्छाओं और कल्पनाओं का जन्म होता है। भावनाओं का प्रभाव हमारे शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंगों यथा ह्रदय, लीवर, किडनी आदि के साथ-साथ हमारे विवेक पर भी पड़ता है। अतः क्रोध, राग, द्वेष जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक होता है । इच्छाएं, शरीर में जो कुछ उपलब्ध है, उसकी मांग नहीं करती, उनकी पूर्ति बाहर से ही संभव होती है। किन्तु अनेक इच्छाओं की पूर्ति घातक हो सकती है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति में अन्य किसी प्राणी की स्वतन्त्रता और अधिकारों का हनन हो सकता है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति करने में समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। हमारे शरीर में पांच (५) ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच (५) कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के माध्यम से हम बाहरी जगत (outer world) से जुड़े होते हैं। इन्हीं के माध्यम से हमारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। अतः अवांछित इच्छाओं की पूर्ति इन पर नियंत्रण करने से ही रोकी जा सकती है। हमारे चरित्र विकास में वाणी का अत्यंत महत्व और योगदान होता है। वाणी पर नियंत्रण भी इन्द्रिय नियंत्रण के माध्यम से किया जा सकता है।
       मेरा विचार है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि विषय आचरण की दृष्टी से जीवन के अंतिम चरण के लिए छोड़ने के लिए नहीं हैं। अंतिम चरण तो इनमें विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने या पारंगत होने के लिए हो सकता है। ।
***

Monday, October 27, 2014

अपेक्षित करें और अपेक्षित की अपेक्षा करें : Expect and Do What is Expected

      उन दिनों मैं आई. आई. टी. कानपुर में बी. टेक. प्रथम वर्ष का छात्र था। एक दिन भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में मेरी कक्षा के छात्रों को वर्नियर कैलिपर से एक क्यूबिकल शेप के मेटल ब्लॉक का आयतन (volume) निकालने का प्रयोग दिया गया। प्रयोगशाला में प्रक्रिया यह रहती थी कि प्रयोग करने के दौरान ली जाने वाली रीडिंग्स प्रयोगशाला में उपस्थित इंस्ट्रक्टर (जो उस विषय के कोई प्रोफेसर होते थे) को दिखाकर रीडिंग्स का वेरीफिकेशन कराना होता था। रीडिंग्स सही पाये जाने पर इंस्ट्रक्टर रीडिंग ली जाने वाली शीट पर वेरीफाइड शब्द लिखकर हस्ताक्षर कर देते थे। बाद में इन्हीं रीडिंग्स के आधार पर अपेक्षित गणनाएं की जाता थीं। जहाँ प्रोफेसर यह पाते थे कि रीडिंग्स सही नहीं हैं तब वह रीडिंग ली जाने वाली शीट पर रिपीट (Repeat) शब्द लिख देते थे। इसका अभिप्राय होता था कि वह छात्र अगले सप्ताह उस प्रयोग को पुनः करेगा। उस दिन डाक्टर रजत रे इंस्ट्रक्टर के रूप में कार्य देख रहे थे।
      सामान्यतः वर्नियर कैलिपर से प्रयोग छात्रों को आठवीं या नौंवीं कक्षा में कराये जाते हैं। बी. टेक कर रहे छात्र कम से कम इंटरमीडिएट पास मेधावी छात्र रहे थे। अतः मुझे वर्नियर कैलिपर से आठवीं कक्षा के छात्रों द्वारा किया जाने वाला एक्सपेरिमेंट का कराया जाना तुरन्त समझ में नहीं आया।
      मैंने अपने दिमाग पर जोर डाला। मैंने सोचा कि एक्सपेरिमेंट के लिए तीन चीजें थीं। वर्नियर कैलिपर, क्यूबिकल मेटल ब्लॉक और वर्नियर कैलिपर से मेजरमेंट लेने का मेरा ज्ञान। पहली और तीसरी चीज अपनी जगह पर सहीं थीं। अतः मैंने क्यूबिकल मेटल ब्लॉक पर ध्यान केंद्रित किया और कैलिपर से मोटे तौर पर उसके सभी किनारों (क्यूबिकल ब्लॉक में 12 किनारे होते हैं) की लम्बाइयां नापीं। मैंने पाया कि ब्लॉक पूरी तरह क्यूबिकल नहीं था। उसकी लम्बाई के समानांतर किनारों और ऊंचाई के समानांतर किनारों की लम्बाइयों (lengths) में बहुत ही थोड़ा (मिलीमीटर के दशमलव में पहले स्थान पर एक या दो अंकों में) फ़र्क़ था। इसके अतिरिक्त उसके दो सतहों पर बहुत ही छोटे दो गढढे थे। यह गढढे ऊपर वेलनाकार (cylindrical) और नीचे कोनिकल (conical) थे। यह गढढे इतने छोटे थे कि इनको अक्सर लोग महत्व नहीं देते और नज़रंदाज़ (ignore) कर देते हैं।
      यहां पर मुझे समझने में देर नहीं लगी कि मुझसे क्या अपेक्षा की गयी थी। मैंने ब्लॉक की सभी १२ किनारों पर लम्बाई नापने, दोनों गढढों के रेडियस नापने, वेलनाकार गहराई नापने और कोनिकल भाग की गहराई नापने का निर्णय लिया। प्रत्येक नाप के लिए मुझे एक-एक तालिका बनानी थी और प्रत्येक रीडिंग 4 बार लेनी थी ताकि नाप में होने वाली त्रुटि को न्यूनतम (minimize) किया जा सके। इस प्रकार मुझे कुल 18 तालिकाएं बनाकर कुल 72 रीडिंग्स लेनी थीं। दूसरी ओर मेरे बैचमेट्स ने कुल तीन तालिकाएं (एक लम्बाई, एक चौड़ाई और एक ऊंचाई के लिए ) बनाने तथा कुल 12 रीडिंग्स लेने का निर्णय लिया। मेरे बैचमेट्स ने लगभग आधे घंटे में रीडिंग लेने का काम पूरा कर लिया। उसके बाद वे एक-एक करके डाक्टर रजत रे को रीडिंग्स चेक कराने के लिए ले जाने लगे। डाक्टर रजत रे ब्लॉक देखते और शीट पर टेबल देखते और प्रत्येक शीट पर रिपीट (repeat) शब्द लिखकर हस्ताक्षर करके बिना कोई टिप्पणी किये शीट लौटा देते। जब १०-१२ स्टूडेंट्स के साथ ऐसा हो चुका तब अन्य स्टूडेन्ट्स चिंता में पड़ गए तथा शीट डाक्टर रजत रे के पास ले जाने से रूक गए। एक्सपेरिमेंट प्रारम्भ करने के लगभग ढाई घंटे बाद मेरा प्रयोग पूरा हुआ और मैं अपना ब्लॉक और रीडिंग शीट लेकर डाक्टर रजत रे के पास गया। उन्होंने ब्लॉक देखा और शीट पर टेबल कॉउंट कीं। दो टेबल की रीडिंग्स चेक कीं और इसके बाद शीट पर वेरीफाइड शब्द लिख कर शीट अपने पास रोक कर सभी स्टूडेंट्स को अपने पास बुला कर उनसे कहा :
"Look here. Lacs of students perform experiments every day in this country. This involves lot of money and years of time every day. What counts is what they learn. Even if they perform experiments correctly, it does not add anything new to the glory of the nation. But If they do not learn then it is shere wastage of time and money and a great loss to the nation. What they should know first is that they should know what is expected from them. You were expected to behave like a student of B. Tech. and not like a student of seventh or eighth class. What you have done, you have repeated what you had done 6-7 years back. Had you been student of seventh or eighrth class, I would have accepted gladly. But for being a student of B. Tech. it is sign of immaturity."
      देखिये ! देश में प्रतिदिन लाखों छात्र प्रयोग करते हैं। जिसमें ढेर सारा धन और प्रत्येक दिन वर्षों का समय व्यय होता है। मायने यह रखता है कि उन्होंने क्या सीखा। उनके ठीक प्रकार से प्रयोग करने पर भी देश के सम्मान में कोई बृद्धि नहीं होती। किन्तु यदि वे सीखते नहीं हैं तब यह मात्र समय और धन की बर्बादी और देश को होने वाली क्षति है। पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि उनसे क्या अपेक्षित है। उनसे बी. टेक. के विद्यार्थी की तरह व्यवहार की अपेक्षा की गयी थी जब कि उन्होंने कक्षा 6-7 के विद्यार्थियों की तरह व्यवहार किया है। उन्होंने वह किया है जो वह 6-7 वर्ष पूर्व ही कर चुके थे। अगर आप कक्षा छह या सात के विद्यार्थी रहे होते तब मैंने इसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर लिया होता। किन्तु बी. टेक. का स्टूडेंट होने के लिए यह अपरिपक्वता की निशानी है।
      इसके बाद डाक्टर रजत रे ने मेरी शीट दिखाकर पूछा कि क्या उनमें से किसी ने ऐसा किया है? किसी ने उत्तर नहीं दिया। इस पर उन्होंने मुझे छोड़ कर सभी को अगले सप्ताह प्रयोग ठीक से करने का निर्देश दिया।
      डाक्टर रजत रे ने अपने विद्यार्थियों से जो कुछ कहा उसमें मुझे दो वाक्य अच्छे लगे। प्रथम तो यह कि बी. टेक. प्रथम वर्ष के छात्रों ने जो कुछ किया अगर वही कक्षा 6 या 7 के विद्यार्थियों ने किया होता तब इसे उचित मान लेते, दूसरे यह कि बी. टेक. प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों ने जो कुछ किया वह उनकी अपरिपवता की निशानी थी। डाक्टर रजत रे के इन शब्दों में एक बहुत बड़ा सन्देश छिपा हुआ है। यह सन्देश हम सब के व्यवहारिक जीवन के लिए बहुत महत्व का है।
      अगर आप किसी विभाग में ५-६ वर्ष का कार्य करने का अनुभव रखने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी हैं और आपके अधीनस्थ कनिष्ठ अधिकारी और कर्मचारी कार्य करते हैं। आप समय- समय पर इन अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करते हैं। तब ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्य का मूल्यांकन विभाग में उनके कार्य करने के अनुभव के परिपेक्ष्य में किया जाना चाहिए। क्योंकि कनिष्ठ अधिकारियों और कर्मचारियों से उनके अनुभव के आधार पर ही कार्य की अपेक्षा की जा सकती है। आप अपने अनुभव के आधार पर उनसे कार्य की अपेक्षा नहीं कर सकते। यही आपके बच्चो के कार्य मूल्यांकन के लिए भी लागू होता है। आप पोस्ट ग्रेजुएट हैं और आप जो कुछ सूर्य के बारे में जानते हैं उसके जाने जाने की अपेक्षा आप अपने कक्षा 5 में पढ़ रहे बच्चे से नहीं कर सकते।
      बचपन बहुत अच्छा होता है, युवा होने पर भी बचपन की यादें सुख देतीं हैं किन्तु जहां तक युवावस्था में आपकी कार्य पद्यति, आपकी आदतों, आपके ज्ञान एवं आचरण के सम्बन्ध में है इनमें यदि बचपन की झलक दिखती है तब यह गंभीर दोष है। समाज आप से परिस्थितियों में श्रेष्ठ और विवेक से परिपूर्ण कार्य और निर्णय की अपेक्षा करता है। आपके उच्चाधिकारी भी आपके कार्य का मूल्यांकन करते समय आपसे अपेक्षित के अनुसार ही मानदंड बनाकर कार्य का मूल्यांकन करेंगे। जो कुछ आप से अपेक्षित है वही आपका दायित्व भी है। मेरा विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को वह करना चाहिए जो उससे अपेक्षित है और प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से उसकी अपेक्षा करनी चाहिए जो ऐसे दूसरे व्यक्ति से अपेक्षित है।
       फेसबुक पर मित्र निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करके कॉमेंट्स पढ़ और अपने कॉमेंट्स अंकित कर सकते हैं :
      

विनाशकारी क्रोध Anger : The Destroyer

      क्रोध एक मानसिक विकार है। क्रोधित व्यक्ति की अन्य कुछ भी सोचने की क्षमता समाप्त हो जाती है। क्रोधित अवस्था में व्यक्ति जो कुछ कर रहा होता है उसके परिणामों को सोच पाने में असमर्थ होता है। क्रोध में वह ऐसे गंभीर अपराध भी कर सकता है जिससे उसका भरा-पूरा हँसता-खेलता परिवार भी उजड़ सकता है, उसके बच्चे अनाथ हो सकते हैं। स्वयं के अपराधी होने से उसे सजा भी हो सकती है जिसके परिवारीय सदस्यों को भयानक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। उसका व्यापर या रोजगार समाप्त हो जाता है और इस सबसे अलग उसे और उसके परिवार के सदस्यों को समाज का तिरस्कार भी सहन करना पड़ता है।
      बच्चों पर माता-पिता के क्रोध के भयंकर परिणाम होते हैं। बच्चों के अन्दर डर बैठ जाता है, क्रोध करने वाले माँ या वाप के प्रति बच्चों के अन्दर घृणा का भाव घर कर जाता है। उनका अध्ययन और अन्य कार्यों में जी नहीं लगता। अपनी आवश्यकताओं को भी माँ - वाप को बताने से कतराने लगते हैं। इन सब का प्रभाव यह होता है कि बच्चे का जीवन बर्वाद हो जाता है। इस सब के लिए माँ-वाप का क्रोध जिम्मेदार होता है। बच्चों के सामने अगर पति अपनी पत्नी पर भी क्रोध करता है तब भी बच्चों पर यही प्रभाव पड़ते हैं।
      मित्रो ! जब मैं किसी व्यक्ति को क्रोधित होते देखता हूँ तब मैं बहुत ही दुःखी और भयभीत हो जाता हूँ। मेरा मानना है कि क्रोध मानवता के लिए बहुत बड़ा श्राप है। इसका निदान खोजा जाना अत्यंत आवश्यक है। मेरे द्वारा फेसबुक पर पब्लिश किये गए आर्टिकल्स "Cause of Our Anger", "Where Battle is Won by Quitting the Battlefield" और "क्रोध पर नियंत्रण (बात पते की -१२)" क्रोध के प्रति मेरी भड़ास की ही उपज हैं। गत कुछ समय से मैं प्रयासरत हूँ कि कुछ ऐसा आपके सामने ला सकूँ जो स्वयं के क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक हो सके। किन्तु अब तक कुछ ठोस तलाश नहीं कर पाया हूँ। इतना अवश्य समझ पाया हूँ कि प्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि क्रोध आये ही नहीं, फिर भी अगर कभी क्रोध आता है तब कुछ ऐसा होना चाहिए जो हमारे अन्दर यह सोच पैदा कर सके कि हमें क्रोध नहीं करना है। ऐसा कुछ हो जो रेड कार्ड (Red Card) सावित हो सके।
      मेरा मानना है कि मेरे अधिकाँश मित्रो को क्रोध नहीं आता होगा। ऐसे मित्रों को मैं प्रणाम करता हूँ। किन्तु क्रोध के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है। मैं अपने उन मित्रो जो कभी-कभी क्रोध के शिकार हो जाते हैं से अनुरोध करना चाहूँगा कि वे क्रोध से छुटकारा पाने के लिए एक संकल्प लें कि उन्हें क्रोध से बचना है। संकल्प का अपनी दैनिक प्रार्थना में स्मरण करें। कोई चिन्ह रेड कार्ड के रूप में अपने साथ रखें जो उन्हें याद दिलाता रहे की उन्हें क्रोध नहीं करना है। प्रत्येक दिन सोने से पहले यह विचार करें कि क्या वे उस दिन क्रोध के शिकार हुए हैं? यदि हाँ, तब अपनी गलती मानकर इस पर शर्मिंदा हों। जिस व्यक्ति पर हम क्रोध करते हैं वह आहत होता है। हमें समय पाकर उससे Sorry कहकर अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए। इससे रिश्ते पुनः निर्मल और नार्मल हो जाएंगे और आपके संकल्प को भी बल मिलेगा।
जिन मित्रों को क्रोध नहीं आता, उनसे मेरा निवेदन है कि ऐसे लोगों की सहायता करें जिन्हें क्रोध आता है ताकि ऐसे लोग क्रोध विकार से छुटकारा पा सकें। उनके द्वारा मानवता की यह बहुत बड़ी सेवा होगी। ऐसे मित्रों का मैं जीवन भर आभारी रहूँगा।
साभार।
केशव दयाल।
***