मित्रो!
      मेरी समझ से यह परे है कि जो लोग धर्म के सशक्तिकरण की बात करते हैं, उन लोंगों, जो धर्म के नाम पर अपने ही धर्म के मानने बाले अज्ञानी, अल्प -शिक्षित, अनपढ़ या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों को गुमराह कर उनका शोषण कर रहे हैं, ईश्वर के नाम पर अपनी तिजारत चला रहे हैं, स्वयं को ईश्वर या उसका दूत बताकर भोली - भाली जनता से अपनी पूजा करवा रहे हैं, का हम विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं।
      वे जो धर्म के सशक्तिकरण की बात नहीं भी करते हैं किन्तु धर्म में आस्था रखते हैं, वे लोग यह सब देखकर भी चुप क्यों हैं। जब दया धर्म का मूल है तब क्या धर्म के मानने वालों से धर्म यह अपेक्षा नहीं करता कि वे उन पर जिनका धर्म के नाम पर शोषण हो रहा है, दया करें और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाएं। बात समूह बनाकर लड़ने की नहीं है। इस कार्य को व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रारम्भ किया जा सकता है। गुमराह हुए एक-एक व्यक्ति को लक्षित करके उसका विश्वास दया और सहानुभूति से जीता जा सकता है और तब उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाई जा सकती है। इस कार्य में समय लग सकता है किन्तु कार्य इतना भी दुरूह नहीं है कि पूरा न हो सके। गुमराह न होने की तुलना में गुमराह हुए लोंगों की संख्या भी अधिक नहीं है।  
    ऐसे गुमराह हुए न जाने कितने लोंगों के घर उजड़ गए हैं। मेरा तो आपसे यही अनुरोध है कि गुमराह हो रहे लोंगों में से यदि आप किसी के संपर्क में आते हैं तब आप अपना धर्म समझकर उसकी सहायता करें और शोषण से उसकी रक्षा करें। यह ईश्वर की पूजा भी है और हमारा धर्म भी।  

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