Tuesday, November 22, 2016

असहाय के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें


मित्रो!

जब हमारा कोई परिचित या संबंधी गंभीर अवस्था में अस्वस्थ होता है और उपचार का भी उस पर कोई असर नहीं दिखाई देता। उस समय हम यही सोचते हैं कि काश हम कुछ कर सकते। उस समय हमें एक रास्ता दिखाई देता है, हम उसके लिए ईश्वर से दुआ माँगते हैं कि वह स्वस्थ हो जाय। ऐसे ही हमें चाहिए कि जहां हम किसी गरीब या असहाय की अपने तन, मन या धन से सहायता कर पाने में असमर्थ हों वहां पर हमें उस गरीब या असहाय के लिए ईश्वर से दुआ माँगनी चाहिए। इससे हमारा चरित्र निर्मल होता है।


Sunday, November 20, 2016

निराशा, चिंता या तनाव से मुक्ति : Freedom from Despair, Worry or Tension

मित्रो !
निराशा, चिंता या तनाव से ग्रसित होने पर हमारा मष्तिष्क सामान्य स्थिति में कार्य नहीं करता और इस कारण हम कोई कार्य सुचारू रूप से नहीं कर पाते। इनसे स्वास्थ्य हानि भी होती है। इनसे जितनी जल्दी छुटकारा पा लिया जाय उतना ही स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है।
जो लोग ईश्वर में आस्था रखते हैं उनको निराशा, तनाव और चिन्ताएं नहीं सतातीं। आस्थावान व्यक्ति निराशा, चिंता या तनाव से ग्रस्त होने पर ईश्वर को याद कर यह सोच कर कि ईश्वर सब ठीक करेगा निश्चिन्त हो जाता है। ऐसा होने पर वह निराशा, चिंता और तनाव से मुक्त हो जाता है।



Friday, November 18, 2016

THE TRUTH


Friends !

Truth is statement of fact about existence or occurrence of something. Truth expects that the fact should be stated correctly.



Monday, November 14, 2016

निर्णय लेने में देश, काल और परिस्थितियों का महत्व : Importance of Time, Place and Circumstances in Taking a Decision

मित्रो ! 
देश, कल और परिस्थितयों को देखकर लिया गया निर्णय व्यवहारिक निर्णय होता है। जो निर्णय व्यवहार में न लाया जा सके, उस निर्णय की कोई उपयोगिता नहीं होती।  
देश, काल और समस्त  परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय ही उचित निर्णय होता है। इनकी उपेक्षा कर लिया गया कोई निर्णय अनुपयोगी और अनुपयुक्त निर्णय होता है। 
 Importance of Time, Place and Circumstances in Taking a Decision.




Sunday, November 13, 2016

अगर हमारी आवाज बेसुरी भी हो Even if Our Voice is Hoarse

मित्रो !
आवाज (voice) कर्कश (hoarse) भी हो फिर भी हमें बोल-चाल में विनम्र होना चाहिए। हमें अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कड़क आवाज से हमें बचना चाहिए जब तक कि पेशे में ऐसा करना अपेक्षित न हो।  


Tuesday, November 8, 2016

खुशी चाहिए तो ख़ुशी पहचानो

  • मित्रो !
    यहॉं पर हम एक साधारण उदहारण लेते हैं। मान लीजिये कि आप अपने घर के बाहर सड़क के किनारे टहल रहे हैं। आपके पास एक अजनबी आकर एक स्थान विशेष का पता पूछता है। इस परिस्थिति में आप निम्नलिखित में से कोई एक कार्यवाही कर सकते हैं:
    1.आप रूककर विनम्रता पूर्वक उस व्यक्ति को पता बता देते हैं; अथवा
    2.आप उस व्यक्ति की ओर देखते हैं और उससे बिना कुछ बोले आगे बढ़ जाते हैं; अथवा 
    3.आप उसे विनम्रता पूर्वक बताते हैं कि आपको वह पता ज्ञात नहीं है; अथवा
    4.आपको पता ज्ञात न होने की स्थिति में आप उसे संमीप के किसी ऐसे व्यक्ति का पता बता देते हैं जो उसे पते की जानकारी दे सकता हो; अथवा
    5.आप उसे समीप के किसी ऐसे परिचित के पास ले जाते हैं जो पता बता सके।
    जब आपको ज्ञात किसी स्थान विशेष का पता पूछने वाले किसी व्यक्ति को पता बताये बिना आप उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ जाते हैं, आप भले ही माने कि आपका कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा करके आप बहुत कुछ खो देते हैं। 
    किसी जरूरतमंद की मदद करने से आत्म संतुष्टि और ख़ुशी मिलती है। आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। ईश्वर अनन्य लोगों को छोड़कर तुम्हें अपना प्रिय मानकर तुम्हें दूसरे व्यक्ति को उपकृत करने का अवसर देता है । जाने -अनजाने में तुम से हुए तुम्हारे अपने गुनाहों का बोझ हल्का करने का तुम्हें एक अवसर मिलता है। जब आप पता पूछने वाले से मुंह फेर कर आगे बढ़ जाते हैं तब आप यह सब खो देते हैं।

Friday, November 4, 2016

काया का रख-रखाव ही लक्ष्य नहीं

मित्रो !
        हम जिंदगी भर अपने शरीर को सजाने संबारने में लगे रहते हैं। सत्य यह है कि परमात्मा ने हमें शरीर आवश्यक और शुभ कर्म करने के लिए दिया है। शरीर का क्षय होना निश्चित है और एक दिन शरीर मिटटी में बदल जाना है। बचना है तब शुभ कर्मों की पूँजी। 
       मेरा यह आशय नहीं है कि शरीर को स्वस्थ न रखा जाय। नीरोग काया पहली आवश्यकता है। काया नीरोग और स्वस्थ न होने पर अपना जीवन निर्वाह भी नहीं हो सकता। किन्तु शरीर का रख-रखाव ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। हमें ध्यान रखना चाहिए शरीर लक्ष्य प्राप्त करने के लिए साधन है, लक्ष्य नहीं। हमें शरीर का उचित रख-रखाव करते हुए जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के लिए कर्म करना चाहिए।


Thursday, November 3, 2016

वह मंदिरों में ही नहीं मंदिरों में भी

मित्रो !
         जो यह जानता है कि ईश्वर सब जगह है उसे ईश्वर को याद करने के लिए मंदिर की जरूरत नहीं होती, वह मंदिर के बिना भी ईश्वर को याद कर लेता है। केवल मंदिर ही वह स्थान नहीं है जहां ईश्वर है, अपितु मंदिर उन स्थानों में से एक स्थान है जहां ईश्वर है क्योंकि ईश्वर सर्वविद्यमान (Omnipresent) है। इसीलिये मेरा मानना है कि -
       मैं नास्तिक हूँ किन्तु इतना बड़ा नहीं कि राह में आये मन्दिरों में ईश्वर को नकार दूँ, साथ ही इतना बड़ा आस्तिक भी नहीं हूँ कि मंदिरों की खोज में ही घूमा करूँ, क्योंकि मेरा अपना विश्वास है कि भगवान मंदिरों में ही नहीं, मंदिरों में भी है क्योंकि वह सर्वविद्यमान है।


Monday, October 31, 2016

प्यार का अनमोल उपहार : Valuable Gift of Love

  • मित्रो !
    God has blessed all of us with valuable gift of love. We should understand love and thereafter -
        Live in love and inspire others to live with love.
    ईश्वर ने हम सभी को प्यार के अनमोल उपहार से आशीर्वाद दिया है। हमें चाहिए कि हम प्यार को समझें और उसके बाद -
    प्यार को जियें और औरों को प्यार से जीने के लिए प्रेरित करें।
  • Promote and propagate love.

Thursday, October 27, 2016

इच्छाशक्ति का जागरण और अभिप्रेरण : Awakening and Motivation of Willpower

मित्रो !
         मनोविज्ञान के अनुसार इच्छाशक्ति या संकल्प (Will या Volition) वह संज्ञानात्मक प्रक्रम है जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य को किसी विधि का अनुसरण करते हुए करने का प्रण करता है। संकल्प मानव की एक प्राथमिक मानसिक क्रिया है। इस आधार पर यह मान सकते हैं कि स्वस्थ मष्तिष्क में इच्छाशक्ति का जन्म होता है। स्वस्थ मष्तिष्क तो जन्म जात हो सकता है किन्तु मष्तिष्क में इच्छाशक्ति जन्म-जात नहीं है। जहाँ तक इच्छाशक्ति को अभिप्रेरित और जाग्रत किये जाने के सन्दर्भ में है मेरा मानना है कि प्रारम्भ में इस संकाय को अभिप्रेरित करने की आवश्यकता होती है किन्तु कुछ अभ्यास के उपरान्त यह क्रिया उपयुक्त वातावरण में स्वचलित हो जाती है।
   इच्छाशक्ति का जागरण और अभिप्रेरण आत्म-नियंत्रण और एकाग्रता से ही किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण हमें तीन दिशाओं में करना होता है: 
(1) शारीरिक आत्म-नियंत्रण; 
(2) मानसिक आत्म-नियंत्रण; और 
(3) संसारिक आत्म-नियंत्रण।
         शारीरिक आत्म-नियंत्रण के अंतर्गत हमें अपने को पूर्णतया स्वस्थ रखना होता है। आपने यह कहावत अवश्य ही सुनी होगी "A sound mind in a sound body". शारीरिक आत्म-नियंत्रण में अपेक्षित होता है कि आप संतुलित आहार लें, हल्का और सुपाच्य भोजन करें। अधिक कड़ुआ, तीखा, चटपटा और अपाच्य भोजन न करें। न अधिक सोएं और न अधिक जागें, उचित व्यवधान रहित पर्याप्त नींद अवश्य लें। यदि प्राणायाम नहीं भी करते हैं तब प्रतिदिन कुछ एक्सरसाइज अवश्य करें। मानसिक आत्म-नियंत्रण में काम, क्रोध, लोभ, मद, अहंकार आदि से दूर रहकर सतत विनम्र बने। अहंकार और झूठ से बचें। इन व्यसनों से बचने के लिए जब भी इनसे सम्बंधित इच्छाएं आपके मष्तिष्क में जन्म लें उनसे आप तुरंत मुंह मोड़ लें, उनकी पूरी तरह अनसुनी कर दें। संतोष धारण करें, क्षमा को अपनायें, कम बोलें, मधुर बोलें, वाणी पर नियंत्रण रखें। एकाग्रता (Concentration) का अभ्यास करें। सांसारिक आत्म-नियंत्रण में सांसारिक प्रलोभनों से बचें। दूसरों से वादा सोच-समझकर करें और वादा करने के बाद उसे समय से निभाएं। कभी किसी से छल - प्रपंच न करें। सभी से प्रिय बोलें। 

       मेरे विचार से इस प्रकार से आत्म-नियंत्रण रखे जाने पर इच्छाशक्ति अवश्य प्रबल होगी और हर क्षेत्र में सफलता हमारे हाथ लगेगी।
इच्छाशक्ति का जागरण और अभिप्रेरण : Awakening and Motivation of Willpower

Wednesday, October 26, 2016

विडम्बना : The Irony

मित्रो !
       कैसी विडम्बना है कि हम उन उपकरणों, जो हमने अपनी अल्पकालिक सुविधा के लिए बनाये हैं, का रख-रखाव और रक्षा तो नियमित रूप से करते हैं किन्तु हम पृथ्वी और प्रकृति, जिन्होंने हमारा जन्म से पोषण किया है और जिनके कारण हम जीवित हैं, के रख-रखाव और रक्षा की हम कोई परवाह नहीं करते।

Earth, Nature, Maintenance, Birth,Irony,

Sunday, October 23, 2016

सकाम कर्म ही पुनर्जन्म का कारण : Cause of Rebirth : Deeds Performed with Desire of Fruits


मित्रो !

सकाम कर्म ऐसे कर्म होते हैं जो फल की इच्छा से किये जाते हैं। ऐसे कर्मों का कर्मों के अनुसार फल अवश्य मिलता है। कर्मों का फल मिलने का भी समय होता है, कुछ कर्मों का फल तुरंत मिलता जाता है, कुछ कर्मों का फल कर्म करने के कुछ समय बाद और कुछ कर्मों का फल काफी समय बाद, यहां तक कि मृत्यु के बाद मिलता है। जिन कर्मों का फल उसी जन्म में नहीं मिल पाता है उसका फल भोगने के लिए आत्मा नया शरीर धारण करता है। जो कर्म फल के लिए नहीं किये जाते हैं निष्काम कर्म कहलाते हैं। ऐसे कर्मों का फल जीवात्मा को  नहीं  भोगना पड़ता है। अतः ऐसे कर्म पुनर्जन्म का कारण नहीं बनते। 

श्रीमद भगवद गीता में भगवन श्री कृष्ण द्वारा मानव शरीर को क्षेत्र (खेत) और इसके ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ बताया गया है। कर्म करने और कर्म के फल का भोग / उपभोग करने के लिए शरीर और जीवात्मा का साथ होना आवश्यक है। पच-तत्व "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा" से बना शरीर तब तक मिटटी है जब तक उसमें जीवात्मा का प्रवेश नहीं होता और जब जीवात्मा इस शरीर को छोड़ देता है तब जो कुछ बचता है वह यही पांच तत्व होते हैं। अतः फलों का भोग भी तभी किया जा सकता है जब जीवात्मा शरीर धारण किये हुए हो। 
शरीर के बिना जीवात्मा कर्म और कर्म के फल का भोग नहीं कर सकता। किसी जन्म में किये गए ऐसे कर्मों, जिनके फलों का भोग उसी जन्म में संभव नहीं हो पाता, के फलों का भोग करने के लिए जीवात्मा नया शरीर धारण करता है।
deeds,God,Soul,Karma

Friday, October 21, 2016

गरीबी रेखा : Poverty Line

मित्रो !
         गरीब वह व्यक्ति होता है जिसे अपनी आय को देखते हुए सामान्य जीवन जीने के लिए भी अपनी न्यूनतम बुनियादी आवश्यकताओं (minimum basic necessities) से समझौता करना पड़ता है। स्थानीय परिस्थितियों और बुनियादी आवश्यकताओं को देखते हुए अलग-अलग स्थानों और देशों में रह रहे व्यक्तियों के लिए ऐसी न्यूनतम आय भिन्न-भिन्न हो सकती है। एक गरीब व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित हो सकतीं हैं किन्तु जिस देश में वह रह रहा है उस देश की सरकार अपने नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं में एक न्यूनतम स्तर तक शिक्षा और चिकित्सा भी अनिवार्य रूप में शामिल कर सकती है। ऐसी स्थिति में अपेक्षित न्यूनतम आय सीमा भी अधिक हो जाती है। मंहगाई बढ़ने से भी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने की लागत बढ़ जाती है। किसी देश की सरकार, जो मंहगाई उन्मूलन का प्रोग्राम चलाती है उसे गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को चिन्हित करने के लिए ऐसे सभी तथ्यों पर विचार करना चाहिए। मेरा मानना है कि -

         किसी देश की सरकार अपने देश के नागरिकों के रहन-सहन के जिस न्यूनतम स्तर का पूरा होना आवश्यक मानती है, रहन-सहन के उस स्तर को प्राप्त करने और बनाये रखने के लिए आवश्यक आय से कम आय वाले नागरिकों को उस देश का गरीब नागरिक समझा जाना चाहिए।
Below Poverty Line : गरीबी रेखा के नीचे। 


Monday, October 17, 2016

उत्साह के बिना उत्सव कैसा : No festival without festivity

मित्रो !
         उमंग, उछाह, विनोद, आमोद-प्रमोद, आदि, हमारे त्यौहारों में जान डाल देते हैं। इनके बिना कोई उत्सव या त्यौहार, त्यौहार होने का अहसास ही नहीं होता। त्यौहार के दिन यदि हमारे परिवार का कोई सदस्य अस्वस्थ हो या घर में कोई अन्य परेशानी हो तब त्यौहार फीका पड़ जाता है। उत्सव ही हमारे त्यौहारों को यादगार बनाते हैं।
        संयुक्त राष्ट्र द्वारा समय-समय पर अनेक अन्तर्राष्ट्रीय विश्व दिवस यथा मातृ दिवस, पितृ दिवस, मित्रता दिवस, भ्रातृ दिवस, नशा मुक्ति दिवस, योग दिवस, सामाजिक न्याय दिवस, आदि घोषित कर रखे हैं। इतनी अधिक संख्या में दिवस घोषित किये जा चुके हैं कि इनका याद रख पाना भी आसान नहीं रह गया है। यदि प्रत्येक दिवस को मनाया जाए तब अगर पूरे वर्ष नहीं तब वर्ष का एक बड़ा भाग इसी में निकल जायेगा। और यदि न मनाया जाय तब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस घोषित करने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। ऐसे में विषय विशेष के प्रति जन सामान्य के बीच कोई जागरूकता (awareness) लाना संभव नहीं होगा।

       मेरा विचार है कि अब तक जो विश्व दिवस घोषित किये गए हैं उन्हें विभिन्न श्रेणियों में रखकर दिनों की संख्या को सीमित किया जाना चाहिए। उदहारण स्वरुप स्वास्थ्य या बिमारियों से सम्बंधित दिवस हैं उनको एक श्रेणी में स्वास्थ्य दिवस में रखा जाना चाहिए। ऐसा होने से दिवसों की संख्या सीमित हो जाएगी और उन्हें उत्साह के साथ मनाया जा सकेगा। इस दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से अथवा उनकी पहल पर सरकारों द्वारा उत्सवों, प्रदर्शनियों, शिविरों आदि का आयोजन किया जाना चाहिए। मात्र विश्व दिवस कलेंडर में तिथि के आगे दिवस का नाम अंकित कर देने में सार्थकता नहीं है। सनातन धर्म के अनुयायियों द्वारा अनेक मामलों में दिवसों को त्यौहारों के रूप में मनाया जाता है और इस कारण उनका महत्व समाज में सहस्त्रों वर्ष गुजरने के बाद भी बना हुआ है।


Saturday, October 15, 2016

क्या आपने कभी सोचा है? : Have You Ever Thought?

मित्रो !
          जब हम मन, बुद्धि और शरीर से किसी क्रिया को बार-बार करते हैं तब कुछ समय बाद हम उस क्रिया को करने के अभ्यस्त हो जाते हैं और उसके बाद उस क्रिया को करने के लिए हमें सोचना - विचारना नहीं पड़ता। विचारणीय यह है कि हम अपने व्यक्तित्व विकास के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?
          व्यक्तित्व के ऐसे कुछ क्षेत्र निम्नप्रकार हो सकते हैं 
क्रोध पर नियंत्रण, सहनशीलता, मृदु भाषण, जरूरतमंदों की सहायता, अहिंसा, दया भाव, आपसी सहयोग, क्षमा, सदभावना, आभार, सत्य भाषण, समयनिष्ठा, ईमानदारी, स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण, आदि।
(जिस क्रम में क्षेत्र / गुण अंकित किये गए हैं, वे महत्ता प्रदर्शित नहीं करते।)
 
       When we do any act repeatedly applying our mind, intellect and body, we become accustomed of doing it and thereafter, we can perform such act without much thinking. The question is that why we do not apply this aspect for development of our personality?
       Few such aspects / fields of our personality may be as follows:

Control over anger, Tolerance, Soft speech, Help to needy, Non-violence, Compassion, Mutual co-operation, Forgiveness, Harmony, Gratitude, Truth, Punctuality, Honesty, Cleanliness, Environment protection, etc.


 

Thursday, October 13, 2016

सर्वोच्च एकल ईश्वर : Supreme One God

मित्रो !
      ईश्वर का विस्तार ऐसा है जिसका न कोई प्रारम्भ है और न ही जिसका कोई अंत है अतः उसका वर्णन कर पाना मनुष्य की पहुँच से परे है। मेरा मानना है कि ईश्वर को मानने वाले लोग मोटे तौर पर ईश्वर के बारे में मानते हैं कि ईश्वर
1. इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (cosmos) का रचयिता और नियंता है;
2. सर्वशक्तिमान, सर्वविद्यमान और सर्वज्ञानी है;
3. सर्वोच्च (Supreme) है, उसके समान या उससे बड़ा कोई दूसरा नहीं है।
     यदि ऊपर उल्लिखित गुणों वाले ईश्वर की कल्पना करें तब ईश्वर के ऊपर किसी अन्य ईश्वर या ईश्वर के समान्तर किसी दूसरे ईश्वर अथवा ईश्वर के नीचे उसके समतुल्य किसी ईश्वर के होने की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसा होने पर ईश्वर सर्वोच्च नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति में महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि भिन्न-धर्मों में भिन्न-भिन्न ईश्वर अथवा एक ही धर्म में अलग-अलग लोंगों के अलग-अलग ईश्वर क्यों हैं।
      एक ऐसी विशालकाय पहाड़ी की कल्पना करते हैं जो किसी भी मनुष्य द्वारा अगम्य है और जिस पर प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल खिले हुए हैं। इसके तलहटी में इसके चारों ओर मनुष्य खड़े हैं जी पहाड़ी को देख रहे हैं। स्पष्ट है पहाड़ी की ओर देखने वाला कोई भी व्यक्ति पहाड़ी का सीमित क्षेत्र ही देख पायेगा, भिन्न-भिन्न व्यक्ति पहाड़ी पर अलग-अलग फूल होने की बात कहेंगे। अगर प्रत्येक व्यक्ति से कहा जाय कि वह पहाड़ी का चित्र बनाये तब प्रत्येक व्यक्ति उसने जो कुछ देखा है वैसा ही चित्र बनाएगा। किन्तु किसी भी व्यक्ति द्वारा बनाया गया चित्र पहाड़ी की प्रतिकृति (Replica) नहीं होगी क्योंकि पहाड़ी के बारे में उसका ज्ञान सीमित और अपूर्ण है। यही स्थिति ईश्वर की प्रतिकृति (Replica) बनाने वालों की है, उनके द्वारा ईश्वर के बनाये गए चित्र या मूर्तियां ईश्वर की प्रतिकृतियां नहीं है क्योंकि वे संपूर्ण ईश्वर का वर्णन नहीं करतीं। उनमें ईश्वर को देखने वाला उतना ही ईश्वर देखता है जितना वह ईश्वर के बारे में ज्ञान रखता है। 

     ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी अदृश्य है, उसका दर्शन केवल आस्थावान मनुष्यों द्वारा ज्ञान चक्षुओं (eyes) द्वारा ही किया जा सकता है। सर्वत्र व्याप्त होने के कारण उसे प्रतिकृति रखने या उसकी प्रतिकृति होने का कोई औचित्य या आवश्यकता नहीं है, प्रतिकृतोयों की रचना या कल्पना मनुष्य की अपनी की हुयी है। इन प्रतिकृतियों की रचना मनुष्य द्वारा ईश्वर में उसकी अपनी आस्था और ईश्वर के बारे में उसके अपने ज्ञान के आधार पर हुयी है। विभिन्न मनुष्यों और समाजों में ईश्वर में उनकी आस्था और ज्ञान में भिन्नता के कारण प्रतिकृतियों में असमानता और भिन्नता आ गयी है।