मित्रो !
सनातन धर्म और विश्व के अन्य अनेक धर्मों के अनुयायी यह मानते हैं कि हमारे शरीर की रचना आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी से हुयी है। जिसे हम आकाश (sky) जानते हैं, वास्तव में आकाश (sky) अपने में कोई तत्व या पदार्थ न होकर पृथ्वी के ऊपर वायुमंडल और ऊपर का रिक्त स्थान प्रदर्शित करता है। इस तथ्य को विज्ञान भी मानता है। इसे शून्य भी कहते हैं। हमारे शरीर में बहुत सारा स्थान रिक्त स्थान के रूप में विद्यमान होता है। शरीर की त्वचा में भी रंध्र (pores) के रूप में रिक्त स्थान होते हैं जिनसे शरीर से पसीना और हानिप्रद पदार्थ भी बाहर निकलते हैं। फेफड़ों के नीचे रिक्त स्थान होने से स्वास लेना और बाहर छोड़ना संभव हो पाता है। अन्य रिक्त स्थानों और उनकी उपयोगिता के बारे में आप स्वयं सोच सकते हैं। रिक्त स्थान की शरीर की आवश्यक प्रक्रियाएं संचालित करने और नीरोग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। पृथ्वी तत्व से तात्पर्य पृथ्वी में पाये जाने वाले जड़ तत्वों और पदार्थों से है। अग्नि का गुण एवं प्रभाव ऊष्मा होता है। स्वस्थ शरीर का एक निश्चित तापमान होता है। भोजन को पचाने में अग्नि जठराग्नि के रूप में कार्य करती है। अन्य तत्वों की उपस्थिति के विषय जानकारी हम सभी को है।
जीवित शरीर (Live body) में आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी जड़ तत्वों के अतिरिक्त एक तत्व चेतना (consciousness) भी होता है। इस चेतना के कारण ही हमें सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; हम देखते, सुनते, समझते और चिंतन करते हैं; हमें सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, आदि की भी अनुभूति होती है और हम अनेक प्रकार के निश्चय तथा चेष्टाएं करते हैं। इस प्रकार की चेतना जड़ तत्व या जड़ तत्व से बने किसी अन्य तत्व का गुण नहीं है। इस चेतना के बिना पांच तत्वों से बना शरीर भी मृत शरीर के सामान जड़ है। जीवित शरीर में चेतना इन पांच तत्वों के अतिरिक्त एक अन्य सजीव तत्व के रूप में विद्यमान रहता है।
जिन पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से शरीर बना है वे सभी जड़ (निर्जीव या inanimate) तत्व या पदार्थ हैं। जड़ तत्वों में कोई चेतना नहीं होती है। जड़ तत्वों या पदार्थों से किसी ऐसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती जो चेतन हो। जड़ से किसी चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसका ज्ञान हमारे ऋषियों को हजारों वर्ष पहले हो गया था। इसका अभी तक विज्ञान भी खंडन नहीं कर सका है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी सभी जड़ होने के कारण सजीव (चेतन animate) की रचना नहीं कर सकते, केवल जड़ स्वरुप में ही जड़ शरीर की रचना कर सकते हैं। ऐसा जड़ शरीर निष्क्रिय और निश्चल होगा।
श्रीमद भगवद गीता के अनुसार शरीर में उक्त पांच तत्वों के अतिरिक्त प्रकृति जड़ रूप में और आत्मा जीवात्मा के रूप में विद्यमान रहते हैं। जीवात्मा के रूप में आत्मा कर्मों से बंधता है, कर्म फलों का उपभोग भी करता है। वास्तव में यही जीवात्मा चेतन के रूप में शरीर में विद्यमान होता है। आत्मा अपने सर्वोच्च रूप में अकर्ता, अभोक्ता, अपरिवर्तनशील, शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी, और समस्त विश्वो का सार है। जीवरूप में आत्मा को परिवर्तनशील, अनित्य,कर्मो का सम्पादन करने वाला और उनके फलो का भोग करने वाला, पुनर्जनम लेने वाला, और शरीर में सीमित माना गया है. वस्तुत जब अविद्या के कारण आत्मा शरीर से सम्बंधित हो जाता है तो वह जीवात्मा कहलाता है।
इस आधार पर हम कह सकते हैं कि -
जीवित शरीर मात्र पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही नहीं बना है क्योंकि यह सभी जड़ (inanimate) पदार्थ हैं। अभी तक यह निर्विवाद है कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति संभव नहीं है। जीवित शरीर में तीन ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक गुणों वाली चेतना (consciousness) भी होती है। इस चेतना के कारण ही हमें सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं, हम देखते, सुनते, समझते और चिंतन करते हैं, हमें सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, आदि की भी अनुभूति होती है और हम अनेक प्रकार के निश्चय तथा चेष्टाएं करते हैं।
No comments:
Post a Comment