Friday, September 16, 2016

कर्म करने में ईश्वर का दखल नहीं : No Interference of God in Karm


मित्रो !
      ईश्वर को मानने वाले अधिकांश व्यक्ति यह मानते हैं कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। यदि इसे सही मान लें तब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे पाप कर्म करने में ईश्वर की सहमति या मर्जी होती है? मेरे विचार से ऐसा मान लेना पूर्णतः गलत है। 
     ऐसा मान लेना तीन कारणों से उचित नहीं है, पहला यह कि पाप कर्म करने के लिए प्रेरित करने या सहमति देने वाला ईश्वर नहीं हो सकता, दूसरे यह कि मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ कर्म करता है और तीसरे यह कि मनुष्य कर्म करने और किये जाने वाले कर्म का चयन करने के लिए स्वतंत्र है। 
    श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 3 (कर्मयोग) के श्लोक 5 का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अतः कोई भी एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। इसी अध्याय के श्लोक 8 में भगवान श्री कृष्णा अर्जुन को बताते हैं कि तुम अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर का निर्वाह भी नहीं होता। 
    यहां पर यह समझ लेना उचित होगा कि गीता में संदर्भित प्रकृति क्या है। प्रयेक जीव को जन्म के समय प्रकृति प्राप्त होती है। यह प्रकृति तीन प्रकार के गुणों से बनी होती है, सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण। मनुष्य का स्वभाव इन्हीं गुणों पर निर्भर करता है। मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ प्रकृति के अनुसार कर्म करता है। 
    अध्याय 3 के श्लोक 8 में "नियत कर्म" करने की बात कही गयी है। प्रश्न यह उत्पन्न होता है "किसके द्वारा नियत कर्म". इसका उत्तर भगवान श्री कृष्णा द्वारा इसी अध्याय के श्लोक 5, जिसका सन्दर्भ ऊपर दिया गया है, में यह कहते हुए दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा उसकी अपनी प्रकृति से मिलती है उसे भगवान या कोई अन्य प्रेरित नहीं करते। 
     यहां पर मैं गीता के अध्याय 2 के श्लोक 47 का भी देना चाहूँगा। यह श्लोक निम्प्रकर है 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन | 
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 
    निश्चय ही तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानों, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ। 
    You have a right to perform your duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself to be the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction. 
     इस श्लोक में कर्म करने का अधिकार मनुष्य के पास होने की बात कही गयी है। कर्म करने के अधिकार के अन्दर, कर्म करने, कर्म न करने, विशिष्ट प्रकार का कर्म करने अथवा विशिष्ट प्रकार का कर्म न करने का अधिकार समाहित होता है। अतः यह समझना चाहिए कि कर्म के चयन का अधिकार भी मनुष्य को प्राप्त है।
     अध्याय 3 के श्लोक 36 में अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्णा से बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न (जो हम सब के मन में उठता है) निम्नप्रकार पूछा गया है। 

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: | 
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:|| 
     हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते भी पाप कर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उसमें लगाया जा रहा है? 
    Why is a person impelled to commit sinful acts, even unwillingly, as if by force, O descendant of Vrishni (Lord Krishna)?

   इस प्रश्न का उत्तर भगवान् श्री कृष्ण द्वारा अगले श्लोक 37 में निम्नप्रकार दिया गया है: 

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: || 
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || 37|| 
      हे अर्जुन ! इसका कारण रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। 
   It is lust alone, which is born of contact with Rajogun, and later transformed into anger. Know this as the sinful, all-devouring enemy in the world. 
   यहाँ पर पाप कर्म करवाने के लिए रजोगुण का संपर्क उत्तरदायी बताया गया है, जो मनुष्य की प्रकृति के कारण उत्पन्न होता है। 
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ईश्वर किसी व्यक्ति से कोई कर्म नहीं करवाता, मनुष्य स्वयं निर्णय लेकर अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ अच्छा या बुरा कर्म करता है।

     सुलभ सन्दर्भ हेतु ऊपर संदर्भित श्लोकों का मूल पथ नीचे दिया जा रहा है। 

अध्याय 3 श्लोक 5 
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् | 
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || 5|| 
   There is no one who can remain without action even for a moment. Indeed, all beings are compelled to act by their qualities born of the nature. (the nature consists of three guas). 
अध्याय 3 श्लोक 8 
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: | 
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: || 8|| 
   You should thus perform your prescribed duties, since action is superior to inaction. By ceasing activity, even your bodily maintenance will not be possible.
ओइम नमो भगवते वासुदेवाय।




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