मित्रो !
हरे भरे बाग़-बगीचे, लहलहाते हरी घास के मैदान, वन्य पशुओं की शरण स्थली घने जंगल किसे नहीं भाते। किन्तु विडम्बना यह है कि हम इनको उगाने और संरक्षित करने के स्थान पर बड़ी-बड़ी कोठियां (Big Houses) बनाकर ईंटों और पत्थरों का रोपण कर रहे हैं। कोठियों के लिए आवश्यकता से अधिक भूमि पर कब्ज़ा तो कर ही रहे हैं, इसके साथ ही इनके निर्माण में लगने वाली सामिग्री भी पृथ्वी से प्राप्त कर रहे हैं। इससे धरती माँ का स्वरुप बदल रहा है और बाढ़ - सूखा और सुनामी जैसी आपदाओं को आमंत्रण दे रहे हैं।
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