मित्रो !
भाग्य में पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों के फल होते हैं। भाग्य वर्तमान या भविष्य में किये जाने वाले कर्मों का निर्धारण नहीं करता।
कर्म और कर्म - फल का सिद्धान्त यह कहता है कि प्रत्येक कर्म का
एक फल होता है, अच्छे
कर्म का फल अच्छा
और बुरे कर्म का फल बुरा होता है। प्रत्येक जन्म के अन्त में संचित रहे कर्मों का, कर्म के अनुसार, अच्छा या बुरा फल जीव को अगले जन्म में भोगना
पड़ता है। जन्म के अन्त में अवशेष रहे कर्मों के फल अगले जन्मों के लिए प्रारब्ध या
भाग्य कहलाते हैं।
विचारणीय यह है कि सभी जीवों के पहले
जन्म के प्रारम्भ में प्रारब्ध नहीं रहा था और कम से कम ईश्वर किसी जीव से किसी
दूसरे जीव के प्रति बुरा कर्म नहीं करवाता (कोई बुरा कर्म करने के लिए किसी
व्यक्ति को प्रेरित करने वाला व्यक्ति भी बुरे कर्म में सहभागी और दंड पाने का
भागी होता है। ऐसे में ईश्वर किसी व्यक्ति से कोई बुरा कर्म करबा कर बुरे कर्म में
सहभागी और दंड का भागी क्यों बनना चाहेगा) । ईश्वर प्यार और करुणा का सागर है, वह स्वयं निष्पक्ष न्यायाधीश है, वह दयालु है। सभी प्राणी उसकी संतानें हैं।
ऐसे में स्पष्ट है कि पहला पाप कर्म (या
सत्कर्म) और आगे के सभी कर्म करने के लिए जीव को स्वयं अपने अन्दर से प्रेरणा मिली
और उसने ऐसा कर्म स्वयं किया। एक जन्म में किये गए ऐसे कर्मों जिनका फल उसी जन्म
में नहीं मिलता के फलों से अगले जन्मों के भाग्य का निर्माण हुआ। इस प्रकार भाग्य
में केवल पिछले जन्मों के फल (अच्छे या बुरे) होते हैं। किन्तु मनुष्य प्रत्येक
जन्म में नए कर्म भी करता है। जीवन निर्वाह के लिए किये गए कर्मों का फल उसी जन्म
में मिल जाता है अन्यथा जीवन निर्वाह संभव नहीं है। इससे यह प्रमाणित है कि -
1. यदि भाग्य है भी तब भी भाग्य सब कुछ नहीं है।
1. यदि भाग्य है भी तब भी भाग्य सब कुछ नहीं है।
2. मनुष्य स्वयं भाग्य का निर्माता है।
3. मनुष्य सत्कर्म या दुष्कर्म स्वतः करता है, ऐसा करने में उसके भाग्य की कोई भूमिका नहीं
होती।
4. मनुष्य कर्म का चयन स्वयं करता है।
4. मनुष्य कर्म का चयन स्वयं करता है।
भगवान् श्री कृष्ण द्वारा श्रीमद्भागवद गीता में
स्वयं कहा गया है :
कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन।
कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है
किन्तु फल का नहीं। यदि कर्म के चयन के साथ ही फल के चयन का अधिकार भी मनुष्य के
पास होता तब पाप कर्म करने वाला भी पाप कर्म करके भी अच्छे फल का ही चयन करने में
सफल हो जाता। तब सारी न्यायिक व्यवस्था ही बदल जाती और शायद इसकी आवश्यकता ही नहीं
रह जाती।
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