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!
भगवान श्री
कृष्ण द्वारा श्रीमदभगवद गीता के अध्याय १६ के प्रारम्भ में मनुष्य के स्वभाव में दैवीय
गुण निम्नप्रकार बताये गए हैं।
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ (1)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा
पर पूर्ण विश्वास करने का भाव (निर्भयता), अन्त:करण की शुद्धता का भाव (आत्मशुद्धि), परमात्मा की प्राप्ति के
ज्ञान में दृढ़ स्थित भाव (ज्ञान-योग), समर्पण का भाव (दान), इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव
(आत्म-संयम), नियत-कर्म करने का भाव (यज्ञ-परायणता), स्वयं को जानने का भाव (स्वाध्याय),
परमात्मा प्राप्ति
का भाव (तपस्या) और सत्य को न छिपाने का भाव (सरलता)।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ (2)
भावार्थ : किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव (अहिंसा),
मन और वाणी से एक होने
का भाव (सत्यता), गुस्सा रोकने का भाव (क्रोधविहीनता), कर्तापन का अभाव (त्याग), मन की चंचलता को रोकने का भाव (शान्ति),
किसी की भी निन्दा
न करने का भाव (छिद्रान्वेषण), समस्त प्राणीयों के प्रति करुणा का भाव (दया), लोभ से मुक्त रहने का भाव
(लोभविहीनता), इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्त न होने का भाव (अनासक्ति),
मद का अभाव (कोमलता),
गलत कार्य हो जाने
पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृड़-संकल्प)।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ (3)
भावार्थ : ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने
का भाव (क्षमा), किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव (धैर्य), मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव
(पवित्रता), किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव यह सभी तो दैवीय स्वभाव
(गुण) को लेकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लक्षण हैं।
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