मित्रो !
योग चाहे संसार से विरक्ति के लिए
किया जाय अथवा स्वास्थ्य लाभ या भौतिक उद्देश्यों की पूर्ती के लिए किया जाय योगी को
खान - पान और आहार - विहार की आदतों में संतुलन बनाना आवश्यक होता है।
संतुलन के विषय में श्रीमद भागवद
गीता के अध्याय ६ के श्लोक १६ व १७ में बताया गया है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: |
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन || 16||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो
अधिक भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न ही
अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये।
O Arjun, those who eat too much or
eat too little, sleep too much or too little, cannot attain success in Yoga.
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (17)
भावार्थ : नियमित भोजन करने वाला, नियमित चलने वाला, नियमित जीवन निर्वाह के
लिये कार्य करने वाला और नियमित सोने वाला योग में स्थित मनुष्य सभी सांसारिक
कष्टों से मुक्त हो जाता है।
But those who are temperate in eating and
recreation, balanced in work, and regulated in sleep, can mitigate all sorrows
by practicing Yoga.
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