मित्रो!
हम अपने
व्यवहार में परिवर्तन
लाकर अपनी मातृ
भूमि की सेवा
भले न कर
पाएं किन्तु उसके
कष्टों को कम अवश्य कर
सकते हैं। यह
भी राष्ट्र प्रेम
है।
हमें
जन्म देने वाली
माँ जन्म देते
ही पृथ्वी माँ
की गोद में
दाल देती है।
पृथ्वी माँ हमारे
जीवन भर हमारा
लालन-पालन करती
है, हमारी आवश्यकताओं
को पूरा करती
है। किन्तु हमारे बीच अनेक
लोग ऐसे हैं
जो पृथ्वी माँ
द्वारा हमारे उपभोग के
लिए दी गयी
वस्तुओं को आवश्यकता
से अधिक प्राप्त
कर उनका कुछ
भाग बर्बाद कर देते
हैं। पृथ्वी माँ
उसकी सतह पर
विद्यमान हर चेतन
का भार उठाती
है और उसके
जीवित रहने के
लिए उनके उपभोग
की वस्तुएं उपलब्ध
कराती है। इस
कार्य में उसके
संसाधनों का क्षय
होता है जिसमें
से कुछ की भरपाई
वह स्वयं कर
लेती है किन्तु
कुछ की उसके
द्वारा भरपाई किया जाना
संभव नहीं होता
है। जिनकी भरपाई
की जा सकती
है उनके उगने
में भी समय
लगता है।
दूसरी ओर
बढ़ती जनसंख्या का
अतिरिक्त बोझ भी
पृथ्वी पर लगातार
बढ़ता जा रहा है।
इस कारण हमारी
आवश्यकताएं बढ़तीं जा रहीं
हैं।
हम सुख-सुविधाओं की चाहत
में नयी वस्तुओं
का अविष्कार करने
में लगे हैं। इसके
साथ ही हम
कुछ ऐसी वस्तुओं
का निर्माण भी
कर रहे हैं
जो हमारे लिए
ही विनाशकारी हैं।
प्रक्रिया में पर्यावरण
का संतुलन बिगड़
रहा है, पृथ्वी
की उर्वरता समाप्त
हो रही है।
जरूरत
इस बात की
है कि हम
पृथ्वी पर बढ़ते
बोझ को घटाएं।
इसके लिए जरूरी
है कि हम
▬
1.
हम अपनी आवश्यकताओं
को सीमित रखें।
2.
वस्तुओं का आवश्यक्तानुसार ही
उपभोग करें। .
3.
दुरुपयोग और बर्बादी
रोकें।
4.
प्रकृति से ताल-मेल बना
कर जीना सीखें।
5.
जनसंख्या की बृद्धि
को सीमित करें।
6.
आवास अपनी आवश्यकता
को देखते हुए
बनाएं। पृथ्वी को कंक्रीट
के जंगल बनाने
से यथासंभव बचें।
7.
प्राकृतिक संशाधनों को संरक्षित
करें।
8.
माँ वसुंधरा को
उसकी खोई हुयी
हरियाली को लौटाएं।
9.
सहनशीलता और सौहार्द बढ़ाएं।
10.
गुमराह होने से बचें।
किसी
भी धर्म के लोग क्यों न हों, सन्तानें अधिक पैदा करने के नारे बंद होने चाहिए। धर्म
की आड़ में अधिक बच्चे पैदा करने की बात मिथ्या है। मैंने ऐसे किसी परिवार को नहीं देखा जिसके द्वारा
अपना परिवार दो बच्चों तक सीमित रखने पर उसका धर्म और समाज से बहिष्कार कर दिया गया
हो। मेरा मानना है कि धर्म गुरुओं के साथ सरकार को बैठक करके हल निकाला जाना चाहिए।
अधिक जनसँख्या होने पर उनकी आवश्यकताएं पूरी नहीं की जा सकतीं। जनसंख्या बढ़ने से बेरोजगारी और अपराध बढ़ते हैं।
हमें अपने
में सुधार करने
के लिए इसकी
प्रतीक्षा नहीं करनी
चाहिए कि दूसरे
लोग करें तब
हम भी करेंगे।
सभी क्षेत्रों में
किन्हीं कारणों से हम
सुधार करने के
लिए भले ही
सक्षम न हों
किन्तु यदि हम
सुधार करने का
संकल्प लेते हैं
तब हमें सुधार
के अनेक अवसर
हमारे घर में
ही मिल जाएंगे।
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