मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैंने अपने जीवन में कभी अपने माँ-वाप या किसी अन्य परिवारीय सदस्य या अन्य व्यक्ति के सामने अपनी किसी बात को मनवाने की जिद की हो किन्तु मैंने दो अवसरों पर ईश्वर से अपनी जिद मनवाने का प्रयास अवश्य किया है और इन दोनों अवसरों पर ईश्वर से मैं अपनी बात मनवाने में सफल हुआ हूँ। इनमें से एक अवसर उस समय आया जब मैं एम. एससी. (प्रथम वर्ष) का विद्यार्थी था, दूसरा अवसर मेरे सेवाकाल में आया जब मैं उत्तर प्रदेश बिक्री कर विभाग (सम्प्रति उत्तर प्रदेश कोमर्सिअल टैक्स डिपार्टमेंट) में एक जिले में बिक्रीकर अधिकारी (सम्प्रति असिस्टेंट कमिशनर, कोमर्सिअल टैक्स) के पद पर तैनात था। यहां पर मैं पहले अवसर पर अपने द्वारा की गयी जिद का उल्लेख करूँगा। अवसर मिलने पर दूसरे अवसर का उल्लेख बाद में अलग से करूँगा।
मैं जुलाई १९६९ में आगरा विश्व विद्यालय के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में एम. एससी प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने गया। मैं कॉलेज ऑफिस के फॉर्म वितरण काउंटर से एडमीशन फॉर्म प्राप्त कर रहा था उसी समय वहां पर एक लड़का आ गया जिसका नाम कैलाश सिंह था। उसका बचपन का नाम भोला था। यह लड़का मुझसे पूर्व से ही परिचित था। इस लडके से मेरी मुलाकात दो वर्ष पूर्व हुयी थी जब वह इंटरमीडिएट प्रथम वर्ष का छात्र था। मैं उसके परिवार के सदस्यों और परिवार की आर्थिक स्थिति से पूर्व से ही परिचित था। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बच्चों को उच्च शिक्षा दिला सकें। जब मैं इस लडके से प्रथम वार मिला था तब मैंने उसके परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उससे कह दिया था कि वह इंटरमीडिएट पास कर ले, आगे बी. ए. और फिर बी. एड. करने में मैं उसकी मदद करूँगा। बी. एड. कर लेने पर कहीं उसे शिक्षक की नौकरी मिल जाएगी। एडमीशन फॉर्म वितरण काउंटर पर उस लडके को देखकर मेरे द्वारा उससे दो वर्ष पूर्व कही गयी बातें याद आ गयीं। मुझे कुछ शर्मिंदगी भी महसूस हुयी क्योंकि मैं अपने द्वारा कही गयी गयी बातों को भूल गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसने बी. ए. प्रथम वर्ष में उसी कॉलेज में एडमीशन ले लिया है। उसने बताया कि उस समय वह अस्थायी रूप से तीन किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में अपने एक दूर के रिस्तेदार के यहां रुका हुआ था। लेकिन वहां स्थायी रूप से नहीं रह सकता था। मैंने स्वयं एडमीशन लेने तक उससे रुकने को कहा। मैंने अपना एडमीशन फॉर्म भरकर कॉलेज प्रिंसिपल से आदेश करवा कर शुल्क के साथ फॉर्म एडमीशन काउंटर पर जमा कर दिया।
मेरी योजना उसी शहर में किराये पर एक कमरे के सेट जिसके साथ एक किचिन भी हो लेकर अपनी शिक्षा पूरी करने की थी। सेल्फ कुकिंग करनी थी। यद्यपि हॉस्टल और स्टूडेंट कैंटीन उपलब्ध थे किन्तु उतना व्यय मैं स्वयं वहां नहीं कर सकता था। मैंने उस लडके को योजना बतायी और उसे साथ लेकर अकोमोडेसन की तलाश में निकल पड़ा। संयोग से दो घंटे की तलाश के बाद एक रिहायसी मकान के बाहरी हिस्से में एक बड़ा कमर और उससे लगा हुआ बात रूम और किचिन मिल गया। बाजार से कुछ जरूरी सामान खरीद कर कमरे पर रख दिया और उस कमरे के ताले की चाबी उस लडके को देकर मैं अपना जरूरी सामान लेने अपने घर चला गया। दो-तीन दिन में मैं अपना सामान लाकर उस लडके के साथ उसी कमरे में रहने लगा। मैंने उस लडके को आस्वस्त कर दिया कि खर्चे के बारे में उसे चिंता करने की जरूरत नहीं है। किन्तु वह भी मेरी आर्थिक स्थिति को जानता था। इसी बीच एक घटना और घटी। एक छात्र ने इलाहबाद यूनिवर्सिटी में उसी वर्ष एडमीशन लिया था किन्तु एक माह बाद उसने यूनिवर्सिटी किन्ही कारणों से छोड़ दी। कारण शायद हॉस्टल में रैगिंग का रहा था। उस लडके के पिता जी मुझे जानते थे। वह उस लडके को लेकर मेरे पास आ गए और उसी कॉलेज जिस में मैं पढ़ता था एडमीशन कराने और अपने साथ रखने को कहा। मैं मन नहीं कर सका। यह लड़का मध्यम वर्गीय परिवार से था और अपना खर्च खुद वहन कर सकता था किन्तु बड़ा होने के नाते मैंने रहने और खाने का खर्च करने से मना कर दिया। इस पर वह अपने घर से फूडग्रेन्स और दालें आदि ले आया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया।
पहला लड़का, कैलाश सिंह, जिसका बचपन का नाम भोला था मेरी अार्थिक स्थिति को लेकर चिंतित रहता था। एक दिन उसने कहा की मैं इंटरमीडिएट के छात्रों को फिजिक्स और गणित अच्छी तरह से पढ़ा सकता हूँ। मेरे हाँ कहने पर उसने कहा कि उसकी पहचान का एक लड़का है वह पढ़ना चाहता है किन्तु प्रचलित दरों पर फीस नहीं दे सकेगा। मैंने भोला से कहा कि वह उस लडके को पढ़ने के लिए आने को कह दे। लड़का पढ़ने आने लगा। एक माह बाद उसने मुझे शुल्क के रूप में बीस रूपया देकर पाँव छुए और बोला गुरु जी पिता जी अधिक देने में कठिनाई होगी। मैंने उससे कहा अगर आर्थिक कठिनाई है तब वह उसे भी वापस ले जाए किन्तु पढ़ना न छोड़े। उसने कहा इतना देने में कोई कठिनाई नहीं है। उन दिनों कोचिंग देने वाले शिक्षक प्रतिदिन एक विषय को एक घंटे पढ़ाने का शुल्क साठ रूपया लेते थे किन्तु मैं तो शिक्षक न होकर एक स्टूडेंट ही था। लगभग 8-10 दिन बाद उस लडके ने मुझे बताया की उसकी क्लास के कुछ और लडके भी पढ़ना चाहते हैं किन्तु वे कुछ दिन मेरे साथ बैठकर देखेंगे तब निर्णय लेंगे। मैंने अनुमति दे दी। तीन अन्य लडके आकर उस लडके के साथ बैठकर पढ़े और उसके बाद उन्होंने नियमित रूप से पढ़ने की इच्छा जताई। फीस की बात पूछने पर मैंने उनसे कह दिया कि मैं शिक्षा का व्यापार नहीं करता। उनकी जो भी श्रद्धा हो वह कर लें।
वह सभी लडके पढ़ने के लिए आने लगे। मैं उन्हें इंटरमीडिएट का गणित और फिजिक्स पढ़ता था। एक अन्य लड़का भी आने लगा। एक माह पूरा होने पर चार लड़कों में से प्रत्येक ने 60 रूपया तथा सबसे पहले आने वाले लडके ने बीस रूपया का भुगतान किया। मेरे लिए यह पर्याप्त से अधिक था क्योंकि उन दिनों इतनी मंहगाई नहीं थी। कॉलेज फीस भी चौदह से बीस रूपया प्रति माह थी। दो महीने और गुजर चुके थे। लडके फीस का भुगतान अपनी सुविधानुसार करते थे। कुछ लड़कों ने गत दो महीनों का भुगतान नहीं किया था। इस दौरान स्थान की कमी महसूस हुयी। यह भी था कि पास-पड़ोस के बच्चे शोर-गुल के साथ शाम को जिस समय लडके पढ़ रहे होते थे खेलते थे। इससे पढ़ने में व्यवधान होता था। दूसरे अकोमोडेसन की तलाश की गयी। संयोगवश एक बड़े मकान में दो बड़े कमरे, बाथरूम और किचिन मिल गए। इस मकान के तीन अन्य कमरों में भी पढ़ने वाले लडके रहते थे। मकान के प्रथम तल पर भवन स्वामी का परिवार रहता था। यहां पर शोर-गुल की समस्या नहीं थी। यहां पर मुझे एक स्वतंत्र रूप से बड़ा रूम मिल गया था।
नवम्बर का आधा महीना पूरा हो चुका था, सर्दी पड़ने लगी थी। हम सभी के पास रजाई या कम्बल उपलब्ध थे। किन्तु मेरे सामने एक नयी समस्या आ गयी। मुझे ज्ञात हुआ जो लडके उस मकान में पहले से रह रहे थे उनमें से एक बी. एससी. (प्रथम वर्ष) का छात्र ग्रामीण क्षेत्र के अत्यंत गरीब परिवार का था। वस्तु स्थिति यह थी कि दो अंडर वियर के अलावा अन्य पहनने वाले वस्त्र एक-एक ही थे। तौलिये के नाम पर एक अंगौछा था। विस्तर के नाम पर एक पुरानी दरी और एक चादर थी। फीस भी समय से नहीं चुका पाता था। खाने के लिए आंटा-दाल गाँव से ले आता था। अन्य सामिग्री खाना बनाने के लिए अन्य छात्र दे देते थे। मैं यह सोचकर चिंता में पड़ गया कि सहायता kaise की जाय। एक परेशानी यह थी कि कुछ स्टूडेंट्स ने पिछले दो-दो महीने का भुगतान नहीं किया था। दूसरी बड़ी चिंता यह भी थी कि गरीबों का भी अपना स्वाभिमान होता है। ऐसे में न जाने मेरे द्वारा की जाने वाली आर्थिक मदद वह छात्र स्वीकार करेगा भी या नहीं। मैंने अपना कर्तव्य याद किया और प्रयास करने में कुछ गलत नहीं समझा। लेकिन धनराशि जुटाने की समस्या अब भी थी। स्वभाव वश मैं छात्रों से ट्यूशन फीस मांग नहीं सकता था। मैंने इस स्तर पर अपने को परेशानी में पाया। मैंने ईश्वर को याद किया उससे मदद माँगी और एक प्रण ले लिया कि जब तक मैं उस छात्र को पूरा विस्तर और पहनने के दो-दो सेट कपडे नहीं दिलवा देता तब तक मैं स्वयं कम्बल या रजाई का प्रयोग नहीं करूंगा। मेरे साथ के दोनों लड़कों ने नोटिस किया कि मैं सर्दी से बचने के लिए कम्बल का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। उन्होंने मुझसे पूंछा भी पर मैंने कह दिया कि मुझे सर्दी ही नहीं लगती।
यह मेरी हठधर्मिता थी। मेरी शिकायत ईश्वर से थी। ईश्वर को भला कोई प्राणी क्या कह सकता है फिर भी मैंने कहने की हिम्मत की थी कि कि मैं तब तक सर्दी में अपने को कष्ट देता रहूंगा जब तक कि मेरी उस लडके को वस्त्र देने की इच्छा पूरी नहीं हो जाती।
तीन दिन यों ही गुजर गए। तीन दिन बाद एक आश्चर्यजनक बात यह हुयी कि एक छात्र को छोड़कर बाकी सभी छात्रों ने अगले दो दिन में अवशेष ट्यूशन फीस का भुगतान कर दिया। यही नहीं दो छात्रों ने तो चालू महीने की ट्यूशन का भी अग्रिम के रूप में भुगतान कर दिया। मैंने अगले दिन उस गरीब छात्र को वस्त्र दिलाने की बात सोची। मैंने तय किया कि उससे पहले इजाजत नहीं लेंगे, सीधे घूमने के नाम पर उसको अपने साथ ले जाएंगे और कपडे की दूकान पर कपडे दिलवाएंगे। मैं अपने साथ रहने वाले दोनों लड़कों और उस छात्र को लेकर एक माध्यम दर्जे की कपडे की दूकान पर गया। यह दूकान पूर्व से इस कारण से परिचित थी कि मैंने रक्षाबंधन के अवसर पर घर जा रहे अपने एक मित्र को उसकी अपनी वहिन को देने के लिए एक साड़ी दिलवाई थी। मैंने दो- दो शर्ट, पेंट, पायजामा के लिए कपड़ा, एक गद्दे के लिए कपड़ा, एक बेड शीट, एक ओढ़ने की गरम चादर, दो पिलो कवर, रजाई लिहाफ उस लडके से पसंद करवाये और उस लडके को घूमने के लिए अन्य दो लड़कों के साथ भेज दिया। मैंने दुकानदार से कॅश मेमो बनाने के लिए कहा। दूकानदार कुछ देर तक मेरी ओर देखता रहा फिर बोला कि अगर मेरी इजाज़त हो तो वह भी कुछ सहयोग करना चाहता है। मैंने मना नहीं किया। उसने कपड़ों का कॅश मेमो बना दिया और अपने नौकर को एक रजाई, गद्दे में रुई भरने वाले और एक टेलर को बुला लाने को कहा। इतने में लडके बापस आ गए। जब मैंने टेलर से उस लडके की शर्ट, पेंट, पायजामा का नाप लेने को कहा तब उस लडके ने हल्का विरोध किया किन्तु अन्य लड़कों के समझाने पर मान गया। मैंने जब रजाई और तकिया भरने तथा कपड़ों की सिलाई के चार्जेज के बारे में पूछा तो कपडे का दूकानदार मेरे सामने बड़ी विनम्रता के साथ बोला कि इतना मैं उसे भी करने दूँ। उसने कहा कि दो दिन के अंदर वह कपडे भिजवा देगा।
दूसरे दिन कपडे आ गए। मेरे साथ के लडके सभी कपडे उस लडके को उसके कमरे में दे आये। वह लड़का कपडे पहन कर मेरे पास आया और पैर छूने लगा। मैंने उसे ऐसा करने से मना किया और उसे उठाकर गले से लगा लिया। लड़कों के चले जाने के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपनी धृष्टता के लिए उससे माफी मांगी। मैंने उस लड़के को अगले महीने उसके पास जो पुस्तकें नहीं थीं दिलवाईं और प्रत्येक महीने उसकी कॉलेज फीस देने लगा।
सामान्य तौर पर यह एक साधारण घटना लगती है। यह एक संयोग भी कहा जा सकता है। इस बात के कोई प्रमाण नहीं थे कि ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी थी और यह सब उसके आशीर्वाद के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था और मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह सब भगवान से मेरी प्रार्थना का यह फल नहीं है। वह कब और कैसे अपनी लीला दिखाता है जान पाना हमारे वश में नहीं है। उसके असंख्य अदृश्य हाथों का देख पाना भी हमारे वश में नहीं है।
कुछ लोगों का प्रश्न हो सकता है यह सब करके मुझे क्या मिला। मेरे लिए मेरे जीवन की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मैंने अपने लिए ख़ुशी खरीदी। जब भी यह प्रकरण याद आता है मेरा ख़ुशी से दिल भर आता है। फिर यह सब स्वप्न सा लगता है। वह कपडे वाला मेरा एक करीबी मित्र बन गया, आज भी वह मेरा मित्र है। जब मेरा बिक्रीकर अधिकारी के पद पर चयन हो गया तब वह पहला व्यक्ति था जिसने मुझे यह शुभ समाचार सुनाया था। जो लड़का मेरे साथ रहकर बी. एससी. कर रहा था पढ़ने में अच्छा था उसे मैंने फिजिक्स और केमिस्ट्री में कोचिंग दी और उस वर्ष गर्मियों में पी. एम. टी. (Pre Medical Test) प्रवेश परीक्षा में विठाया। प्रथम प्रयास में उसका चयन नहीं हो सका। अगले वर्ष पुनः प्रयास किया और उसका इस बार चयन हो गया। उसे गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज कानपुर में एडमीशन मिल गया। आज कल वह उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में अपना नर्सिंग होम चला रहा है। वह आज भी गरीबों का ख्याल रखता है। मैं आज भी उसके लिए गुरु जी हूँ। मुझसे जो छात्र पढ़ने आते थे सभी ने द्वितीय श्रेणी में अच्छे नम्बरों से इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। एम. एससी. द्वितीय वर्ष में भी मैंने यही सब कुछ जारी रखा। इस वर्ष एक छात्र के अभिभावक ने अपने लडके को अकेला पढ़ाने की जिद की। मैंने उसकी बात मान ली। मैंने कोई ट्यूसन फी तय नहीं की। मुझे आश्चर्य हुआ जब एक माह पूरा होने पर उसने मुझे दो सौ पचास रूपया का भुगतान किया। इस वर्ष मेरी मासिक आय पांच सौ रूपया प्रति माह से अधिक थी। self cooking बंद कर दी गयी। मैं स्वयं और मेरे साथ के दो छात्र स्टूडेंट कैंटीन में खाना खाने लगे। इससे हम लोगों के समय की बचत होने लगी। इसी वर्ष मैं Combined State Services Examination में प्रथम बार सम्लित हुआ और इसी के फलस्वरूप मेरा 1969 बैच से बिक्रीकर अधिकारी (वर्तमान में Assistant Commissioner, Commercial Tax) के पद पर चयन हुआ। कैलाश और दूसरे छात्र ने भी ग्रेजुएशन पूरा कर लिया। मैंने भी अपना एम. एससी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया।
एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि जिस शहर में मैं अनजान बनकर आया था उसमें जिस मोहल्ले में मैं रहता था उस मोहल्ले के लोगों ने मुझे बहुत सम्मान और प्यार दिया। इसका कारण यह रहा था कि मेरे कृत्यों की जानकारी मेरे भवन स्वामी को हुयी और उन्होंने मेरे क्रिया-कलापों और स्वभाव के बारे में मोहल्ले के अन्य लोगों को बता दिया था। भवन स्वामिनी जिनकी उम्र उस समय लगभग 65 वर्ष थी को मैं माता जी कहकर सम्बोधित करता था ने मुझे अपना बेटा मानकर मेरा ख्याल रखना शुरू कर दिया। यही नहीं वे त्योहारों के दिन मेरे और मेरे साथ रह रहे दोनों छात्रों के लिए पकवान (special dishes) बनाकर भेजतीं थीं। इसी मोहल्ले में एक डॉक्टर साहब का निवास तथा क्लीनिक था। डॉक्टर साहब एक बड़े इंटरमीडिएट कॉलेज के वाईस प्रेजिडेंट भी थे। एक अवसर पर मुझे कुछ बुखार हुआ। दो-तीन दिन तक बुखार ठीक नहीं हुआ तब मैंने डॉक्टर साहब को दिखाना उचित समझा। डॉक्टर साहब ने देखा और मुझे अपने पास से दवा दे दी। मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी उन्होंने न तो अपनी फीस ली और न ही दवाई के पैसे। उन्होंने मेरे स्वाभाव की प्रसंशा करते हुए पूछा कि क्या मैं इंटरमीडिएट कॉलेज में नियमित रूप से टीचिंग का कार्य करूंगा ? मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक यह कह कर मना कर दिया कि इससे मुझे और उन लड़कों को जिनको मैं पढ़ा रहा हूँ कठिनाई होगी। इस पर उन्होंने कहा कोई बात नहीं, मेरी जब भी इच्छा हो मैं उन्हें बता दूँ।
इस समय को मैं अपने जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण और खुशियों भरा मानता हूँ। शिक्षक मैं आज भी हूँ। मेरे लिए अपने को शिक्षक मानना एक गौरव की बात है। मेरी जिंदगी के कुछ ऐसे ही गिने-चुने प्रकरणों में से यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। मैंने अपने जीवन के इस अंतराल में खुशियों भरा जीवन जिया है और ख़ुशी की स्थायी पूँजी कमाई है। यह प्रकरण आज भी मुझे ख़ुशी देते हैं। यह मेरी ऐसी पूँजी है जो मेरी मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होगी क्योकि न तो कोई अन्य इसका उपभोग कर सकेगा और न ही कोई इसे नष्ट कर सकेगा। ऐसे प्रकरणों से सम्बंधित अंतरालों को छोड़कर वाकी जीवन में मैं ऐसा कुछ नहीं कर सका जिसे मैं स्थायी रूप से अपना कह सकूँ।