मित्रो !
मेरे विचार से भारत वर्ष में प्रचलित विभिन्न सभ्यताओं में मृदु वाणी को विशेष महत्व दिया गया है। वैदिक सभ्यता में तो यहां तक कहा गया है :
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम।
प्रियं च नान्रितं ब्रूयात ह्येषां धर्मः सनातनः।।
सत्य व प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य और झूठा प्रिय वचन नही बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।
आज वस्तुस्थिति बदली हुयी है। वर्तमान में हमारे बीच से अनेक लोग बिना विचार किये कटु बचन बोलते हैं। यही नहीं कुछ लोग तो दूसरे को नीचे दिखाने के लिए सोच विचार कर कटु वचन बोलते हैं।
बचपन में हमें पढ़ाया गया था कि कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द बापस नहीं आते अतः जो भी हम बोलें, सोच समझ कर बोलें । किन्तु आज जब कोई हमारे द्वारा बोले गए शब्दों के कटु बचन होने का हमें बोध कराता हैं तब हम बड़ी ही आसानी से यह कहकर बच निकलते हैं कि हमारा किसी का दिल दुखाने का उद्देश्य नहीं रहा था, यदि किसी को बुरा लगा हो तो मैं अपने शब्द बापस लेता हूँ।
अब कटु वचन, मृदु वचन, आदि के झमेले में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। कटु वचन पर श्रोता स्वयं आपत्ति करता है। उसके बाद हम रटे -रटाये शब्द "यदि किसी को ठेस पहुंची हो तो हम अपने शब्द बापस लेते हैं" कहकर कटु शब्द बापस ले लिया गया मान लेते हैं। यह हम कहाँ आ गए हैं, जहाँ हम दावा तो पढ़े-लिखे होने का करते हैं किन्तु आचरण वे-पढ़े-लिखों (अनपढ़ों) जैसा करते है?
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