मित्रो !
अगर आप देश में रह रहे विभिन्न लोगों के आर्थिक स्तर के विषय में सोचें तब आप पायेंगे कि देश की जनसँख्या का एक बड़ा भाग ऐसा है जिस पर मंहगाई की दर घटने - बढ़ने का कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। यह वर्ग छोटे किसानों, खेतिहर मजदूरों, अकुशल श्रमिकों, शहरों में घरों में झाड़ू -पोछा या वर्तन साफ़ कर गुजारा करने वालों, निर्माणाधीन भवनों, सडकों, पुलों आदि पर कार्य करने वाले मजदूरों, आदि का ऐसा वर्ग है जो दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। इसी वर्ग में गाँव से रोजी-रोटी की तलाश में शहर में आये आपकी रक्षा में तैनात चौकीदार हैं, अपनी जान जोखिम में डाल कर खतरों से भरे काम करने वाले मजदूर हैं। उन्हें न आपके डीजल या पेट्रोल की कीमतों में उतार-चढ़ाव से मतलब है और न ही उन्हें फल, सब्जी, दालें और मसालों से मतलब है। दाल और सब्जी की बात उनके लिए दूर की बात है, उन्हें सूखी रोटी और नमक नसीब हो जाय यही बहुत है। हम ऊंचे लोग शौक में आधे वदन पर कपडे पहनते हैं और वे आर्थिक तंगी के चलते आधे वदन पर कपडे पहनते हैं। हम एक साल में कई बार कपडे बदलते हैं और वे कई साल में एक बार कपडे बदलते हैं।
यह गाँव के छोटे किसान, खेतिहर व अन्य मजदूर तथा अन्य तबकों के गरीब लोग ही हैं जो अपने सपूतों को देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अगली पंक्ति में लड़ने के लिए देते हैं, अर्धसैनिक बल देते हैं, चोरो, लुटेरों और बदमाशों से लड़ने और हमारी रक्षा और सुरक्षा के लिए पुलिस बल देते हैं। इनमें से अनेक लोगों की बापसी कभी नहीं होती, कुछ बापस आता है तो वह होता है उनके कपडे और देश की खातिर मर जाने की खबर। अपने बेटों को भेजने के समय वे जानते हैं कि उनके बेटों के साथ क्या हो सकता है? पर उनकी लाचारी उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर देती है। बेटे भी बेमिसाल हैं, उनके सैनिक, अर्धसैनिक, पुलिस में आने के पीछे कारण कुछ भी रहे हों, वे कभी दुश्मन को पीठ नहीं दिखाते, आखिरी सांस तक लड़ते हैं और जब मरते हैं तब सीने पर गोली खाकर मरते हैं। मैं यह नहीं कहता कि उच्च वर्ग के लोग सैनिक बलों, अर्धसैनिक बलों या पुलिस में नहीं हैं। उच्च वर्ग के लोग भी हैं किन्तु उनमें से अगली पंक्ति में लड़ने वालों की संख्या नगण्य है।
यह ध्यान देने योग्य है कि यह वर्ग सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भागीदारी रखता है किन्तु उसके द्वारा चुने गए लोग ही उनकी समस्यायों से बेखबर रहते हैं। हमें अपना शक्ति प्रदर्शन में, चाहे शक्ति प्रदर्शन गाँव में करना हो या शहर में, हम उनका ही उपयोग करते हैं। हम अपने धमाकेदार भाषणों और झूठे -सच्चे आस्वासनों से उनका वोट छल लेते हैं। किन्तु चुनाव समाप्त होते ही हम उनको और उनकी समस्यायों को भूल जाते हैं।
हम मंहगाई को कम करने की जब बात करते हैं तब फल, सब्जी, दालों की कीमतें कम करने की बात करते हैं। हम उनके उत्पाद को सस्ता करने की बात करते हैं किन्तु उनके द्वारा फल, सब्जी, दालें, आदि बेचकर अपने उपभोग की अन्य खरीदी जाने वाली चीजों यथा कृषि औजार, तन ढकने के लिए कपड़ा, आदि सस्ता करने पर विचार नहीं करते।
वस्तु स्थिति यह है कि आर्थिक विषमता को लेकर हमारा देश दो भागों में विभाजन की ओर बढ़ रहा है। यह हमारे देश की अखंडता के लिए खतरा है। इसको रोके जाने के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस वर्ग की समस्याओं का अध्ययन कर उनके हित की व्यवहारिक योजनाएं बनाएं। उनका यदि किसी स्तर पर आर्थिक दृष्टी से शोषण हो रहा है तब उसे रोकें। उनकी सेवाओं का उचित मुआबजा उन्हें मिले। उनके संसाधनों और हितों की रक्षा करें। उन्हें बढ़ती जनसँख्या के खतरों के प्रति जागरूक करें।
मेरे इन्हीं विचारों ने निम्नप्रकार सोचने के लिए प्रेरित किया है :
देश में एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जिन्हें मंहगाई के घटने - बढ़ने से कोई सरोकार नहीं है। कारण यह कि इन लोगों को न तो डीजल व पेट्रोल चाहिए और न ही फल, सब्जी, मसाले और दालें। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है और यह मान लिया है कि यह सब चीजें बड़े लोगों के लिए हैं।
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