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साधु प्रकृति और दुष्ट प्रकृति रखने वाले व्यक्तियों के अन्तः और वाह्य आचरण में कोई अंतर नहीं होता। साधु प्रकृति वाले व्यक्ति के अन्तः मन में नैतिक प्रकृति के विचार होते हैं और उसका वाह्य आचरण भी साधु प्रकृति का होता है। दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति के अन्तः मन में अनैतिक प्रकृति के विचार होते हैं और वह अनैतिक प्रकार का वाह्य आचरण भी करता है। इन दोनों प्रकार की प्रवृतियों से भिन्न प्रकार की प्रकृति रखने वाला तीसरे प्रकार का व्यक्ति पाखंडी प्रकृति का होता है। उसका वाह्य आचरण साधु प्रकृति रखने वाले व्यक्तियों के सामान दिखावे के लिए होता है। उसके अन्तः मन में विचार दुष्ट प्रकृति वाले व्यक्तियों के समान होते है और वह ऐसे विचारों का क्रियान्वन सार्वजनिक रूप से न करके योजनाबद्ध तरीके से गुप्त रूप से करता है।
साधु प्रकृति के व्यक्ति से समाज को कोई खतरा नहीं होता अतः उसे दण्डित करने की आवश्यकता नहीं होती, दुष्ट व्यक्ति का जीवन एक खुली किताब की तरह होता है। अतः उसे पकड़कर आसानी से दण्डित किया जा सकता है किन्तु कोई भी समाज या सरकार किसी पाखंडी को तब तक दण्डित नहीं कर सकती जब तक पाखंडी अनैतिकता का प्रदर्शन करते पकड़ा न जाए। पाखंडी अनैतिक आचरण वाले व्यक्ति के समान खुले तौर पर अपराध नहीं करता। वह योजनाबद्ध तरीके से इस प्रकार अपराध करता है कि उसका ऐसा आचरण आसानी से न पकड़ा जा सके। ऐसा व्यक्ति प्रायः ऐसे व्यक्तियों को अपना शिकार बनाता है जो उसके वाह्य आचरण के मोह जाल में फंसे होते हैं। ऐसे लोगों को पकड़ने के लिए जाल बिछाने की आवश्यकता होती है।
आज हमारे देश में अनगिनत लोग पाखण्डियों के शिकार हो रहे हैं। इनके शिकार अधिकांश आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग शिकार होते हैं। मेरा विचार है कि बड़े-बड़े पाखंडियों को पकड़ने के लिए समाज और सरकार को ख़ुफ़िया जाल बिछाकर इनको पकड़कर दण्डित करना चाहिए। इस प्रक्रिया में अगर किसी सत्य आस्थावान का भी परीक्षण होता है तब इसमें बुरा कुछ भी नहीं है। सत्य के परीक्षणों के अनेक उदहारण हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी मिल जाएंगे। "साँच को आंच क्या।" इस पर हमारे साधु-संत भी विश्वास करते हैं। सत्यनारायण जी की कथा भी तो सत्य के परीक्षण और असत्य के दुष्परिणामों से सम्बंधित कथा संग्रह है। अतः नैतिक आचरण करने वाले किसी व्यक्ति और किन्हीं वास्तविक साधु-संतों को भी इससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
साधु प्रकृति और दुष्ट प्रकृति रखने वाले व्यक्तियों के अन्तः और वाह्य आचरण में कोई अंतर नहीं होता। साधु प्रकृति वाले व्यक्ति के अन्तः मन में नैतिक प्रकृति के विचार होते हैं और उसका वाह्य आचरण भी साधु प्रकृति का होता है। दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति के अन्तः मन में अनैतिक प्रकृति के विचार होते हैं और वह अनैतिक प्रकार का वाह्य आचरण भी करता है। इन दोनों प्रकार की प्रवृतियों से भिन्न प्रकार की प्रकृति रखने वाला तीसरे प्रकार का व्यक्ति पाखंडी प्रकृति का होता है। उसका वाह्य आचरण साधु प्रकृति रखने वाले व्यक्तियों के सामान दिखावे के लिए होता है। उसके अन्तः मन में विचार दुष्ट प्रकृति वाले व्यक्तियों के समान होते है और वह ऐसे विचारों का क्रियान्वन सार्वजनिक रूप से न करके योजनाबद्ध तरीके से गुप्त रूप से करता है।
साधु प्रकृति के व्यक्ति से समाज को कोई खतरा नहीं होता अतः उसे दण्डित करने की आवश्यकता नहीं होती, दुष्ट व्यक्ति का जीवन एक खुली किताब की तरह होता है। अतः उसे पकड़कर आसानी से दण्डित किया जा सकता है किन्तु कोई भी समाज या सरकार किसी पाखंडी को तब तक दण्डित नहीं कर सकती जब तक पाखंडी अनैतिकता का प्रदर्शन करते पकड़ा न जाए। पाखंडी अनैतिक आचरण वाले व्यक्ति के समान खुले तौर पर अपराध नहीं करता। वह योजनाबद्ध तरीके से इस प्रकार अपराध करता है कि उसका ऐसा आचरण आसानी से न पकड़ा जा सके। ऐसा व्यक्ति प्रायः ऐसे व्यक्तियों को अपना शिकार बनाता है जो उसके वाह्य आचरण के मोह जाल में फंसे होते हैं। ऐसे लोगों को पकड़ने के लिए जाल बिछाने की आवश्यकता होती है।
आज हमारे देश में अनगिनत लोग पाखण्डियों के शिकार हो रहे हैं। इनके शिकार अधिकांश आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग शिकार होते हैं। मेरा विचार है कि बड़े-बड़े पाखंडियों को पकड़ने के लिए समाज और सरकार को ख़ुफ़िया जाल बिछाकर इनको पकड़कर दण्डित करना चाहिए। इस प्रक्रिया में अगर किसी सत्य आस्थावान का भी परीक्षण होता है तब इसमें बुरा कुछ भी नहीं है। सत्य के परीक्षणों के अनेक उदहारण हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी मिल जाएंगे। "साँच को आंच क्या।" इस पर हमारे साधु-संत भी विश्वास करते हैं। सत्यनारायण जी की कथा भी तो सत्य के परीक्षण और असत्य के दुष्परिणामों से सम्बंधित कथा संग्रह है। अतः नैतिक आचरण करने वाले किसी व्यक्ति और किन्हीं वास्तविक साधु-संतों को भी इससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
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