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मनुष्य अपने जीवन में कभी ज्ञानी पुरुषों की भांति सात्विक व्यवहार करता है, अपने अन्दर संतुष्ट हुआ आनन्द का अनुभव करता है, कभी अत्यधिक मोह, अनियंत्रित इच्छा, लोभ, गहन उद्यम, सकाम कर्म से ग्रसित हुआ अनेक आकांक्षाओं और तृष्णाओं से भरा जीवन जीता है, प्रत्येक कर्म स्वार्थवश केवल फल के उद्देश्य से करता है. यदि कुछ दान, पुण्य करता भी है तब वह ऐसा कार्य स्वार्थ पूर्ति (कीर्ति, यश आदि की प्राप्ति) हेतु करता है, ऐसा व्यक्ति धन, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति का भूखा होता है, काम, क्रोध और कृपालता भी दर्शाता है. कभी-कभी जीव अज्ञान से घिरा हुआ लोभ, अत्यंत आलस्य और अत्यधिक निद्रा से ग्रसित रहते हुये पागलों की तरह व्यवहार करता है।
उपर्युक्त प्रकार के आचरण इस कारण होता है कि प्रत्येक जीव के अन्दर सत्व, रज और तम के रूप में तीन गुण जन्म से ही असंतुलित मात्रा में विद्यमान रहते हैं। इन्हीं गुणों के प्रभाव में जीव उपर्युक्त भिन्न-भिन्न प्रकार का जीवन जीता है। जिस समय जीव के अंदर सत्व गुण की प्रधानता होती है उस समय अन्य दो गुणों रज और तम के प्रभाव दब कर रह जाते हैं और जीव सत्व गुण से प्रभावित हुआ सात्विकी आचरण करता है, जब सत्व और तम की अपेक्षा रज गुण की प्रधानता होती है तब जीव रज गुण के प्रभाव में आचरण करता है। जब सत्व और रज की तुलना में तम गुण की प्रधानता होती है तब जीव तम गुण से प्रभावित हुआ आचरण करता है।
जिन लोगों ने रसायन शास्त्र (Chemistry) का अध्ययन किया है वे जानते हैं की पदार्थ के अपने गुण और गुणों का प्रभाव रखता है। हमारा स्थूल शरीर भी पंचमहाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से बना है। यह पंचमहाभूत और उनसे बना स्थूल शरीर भी पदार्थ हैं। अतः शरीर में गुण और गुणों के प्रभाव होना स्वाभाविक है। निर्जीव शरीर में गुण निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं। जीवित शरीर में यह गुण सक्रिय अवस्था में होने से अपने प्रभाव दिखाते हैं।
श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 14 में इन गुणों का विस्तार से वर्णन हुआ है। कोई भी व्यक्ति अपने अंदर किसी गुण विशेष की प्रधानता बढ़ा सकता है और तम के प्रभाव से निकल कर रज या सत्व के प्रभाव में अपना जीवन जी सकता है। ऐसा करने के लिए पहले तो इन गुणों के बारे में जान लेना (ज्ञान प्राप्त करना) आवश्यक है, इस सम्बन्ध में भी ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है कि इन गुणों पर किन - किन चीजों का प्रभाव पड़ता है। उसके बाद आवश्यक नियन्त्रण के बाद इन गुणों के प्रभाव में परिवर्तन लाया जा सकता है। आलस्य, निद्रा, क्रोध, लोभ, आदि तथा अन्य अवांछित प्रकार के आचरण से छुटकारा पाया जा सकता है। बच्चों के आचरण में भी परिवर्तन लाया जा सकता है। उसी प्रकार शरीर में उपस्थित सत्व, रज और तम में परिवर्तन से विकारों में परिवर्तन लाया जा सकता है। यह गुणों की प्रधानता में परिवर्तन के कारण ही सम्भव हुआ कि लुटेरे वाल्मीकि महर्षि वाल्मीकि बन गए और उन्होंने प्रसिद्द ग्रन्थ रामायण की रचना की, कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्दार्थ गौतम बुद्धा बन गए, वासना में लिप्त तुलसी दास गोस्वामी तुलसी दास बन गए और उन्होंने रामचरित मानस की रचना की। ऐसे अनेक उदहारण इतिहास में मिलेंगे जहाँ गुणों के प्रभावों में परिवर्तन से व्यक्तिव में आमूल - चूल परिवतन हुये हैं।
आयुर्वेद चिकित्सा पद्ध्यति शरीर में वायु, कफ और पित्त की उपस्थिति पर आधारित होती है। स्वस्थ शरीर में वायु, कफ और पित्त का साम्यावस्था में होना आवश्यक होता है। जब इनमें साम्यवस्था बिगड़ती है और किसी की प्रधानता बढ़ जाती है तब हम किसी बीमारी से ग्रसित होकर अस्वस्थ हो जाते हैं। जिस प्रकार आयुर्वेदा चिकित्सा पद्ध्यति में किसी रोग का कारण मानव शरीर में वायु, कफ या पित्त में से किसी एक की अधिकता होना होता है, उसी प्रकार मनुष्य का किसी समय सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी आचरण उसके शरीर में पाये जाने वाले प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम में से सम्बंधित गुण की प्रधानता हो जाने के कारण होता है।
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