प्रिय मित्रो !
क्या मनुष्य ईश्वर के द्वारा चाहा गया कर्म करता है? क्या हम सभी से सभी गलत या सही कर्म ईश्वर करवाता है? ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। श्रीमद भागवद गीता के अध्याय २ के श्लोक ४७ के अनुसार कर्म करने का अधिकार मनुष्य का है। अगर कर्म के चयन करने और कर्म करने का अधिकार ईश्वर द्वारा मनुष्य को न दिया गया होता और प्रत्येक कार्य का चयनकर्त्ता और कर्त्ता स्वयं ईश्वर रहा होता तब मनुष्य को मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की कोई आवश्यकता नहीं रही होती।
मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम, जो उसके जन्म के समय से ही उसके शरीर में रहते हैं, से प्रेरित होकर स्वयं उचित-अनुचित कार्य करता है। यहां प्रकृति से तात्पर्य प्राणी के जीवित शरीर में जीवात्मा को छोड़ कर जो कुछ भी है से है। मनुष्य अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों का चयन स्वयं करता है और चयनित कर्म का कर्त्ता भी वह स्वयं है। ज्ञान प्राप्त करना भी मनुष्य का कर्म है। क्या सही है और क्या गलत है का निर्धारण ज्ञान के आधार पर किया जा सकता है।
श्रीमद् भागवद गीता के उक्त श्लोक में शब्दों "मा फलेषु कदाचन" का प्रयोग हुआ है। वैसे तो यह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त होने के लिए निष्काम कर्म करने के सम्बन्ध में है किन्तु आधुनिक जीवन में हमें यह नहीं मानना चाहिए कि हम कर्म करते समय लक्ष्य या उद्देश्य को ध्यान में न रखें। निष्काम कर्म करने के पीछे भी एक उद्देश्य होता है। जीवन निर्वाह के लिए किये जाने वाले कर्मों के पीछे भी उद्देश्य होता है। निष्काम कर्म करने वाले को भी जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने होते हैं। इन शब्दों से यह समझना उचित होगा कि कर्म के बदले फल का चयन करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। यदि फल के चयन करने का अधिकार मनुष्य के पास होता तब कोई व्यक्ति, जो किसी कार्य को आधा -अधूरा करता है, भी अज्ञानतावश या लालचवश उस परिणाम का अपने लिए चयन कर लेता जो सफलतापूर्ण पूर्ण कार्य करने वाले को प्राप्त होता है।
जीव के रूप में मनुष्य कर्मों का कर्त्ता भी है और कर्म के अनुरूप किये गए कर्म के फलों का भोक्ता भी है।
क्या मनुष्य ईश्वर के द्वारा चाहा गया कर्म करता है? क्या हम सभी से सभी गलत या सही कर्म ईश्वर करवाता है? ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। श्रीमद भागवद गीता के अध्याय २ के श्लोक ४७ के अनुसार कर्म करने का अधिकार मनुष्य का है। अगर कर्म के चयन करने और कर्म करने का अधिकार ईश्वर द्वारा मनुष्य को न दिया गया होता और प्रत्येक कार्य का चयनकर्त्ता और कर्त्ता स्वयं ईश्वर रहा होता तब मनुष्य को मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की कोई आवश्यकता नहीं रही होती।
मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम, जो उसके जन्म के समय से ही उसके शरीर में रहते हैं, से प्रेरित होकर स्वयं उचित-अनुचित कार्य करता है। यहां प्रकृति से तात्पर्य प्राणी के जीवित शरीर में जीवात्मा को छोड़ कर जो कुछ भी है से है। मनुष्य अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों का चयन स्वयं करता है और चयनित कर्म का कर्त्ता भी वह स्वयं है। ज्ञान प्राप्त करना भी मनुष्य का कर्म है। क्या सही है और क्या गलत है का निर्धारण ज्ञान के आधार पर किया जा सकता है।
श्रीमद् भागवद गीता के उक्त श्लोक में शब्दों "मा फलेषु कदाचन" का प्रयोग हुआ है। वैसे तो यह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त होने के लिए निष्काम कर्म करने के सम्बन्ध में है किन्तु आधुनिक जीवन में हमें यह नहीं मानना चाहिए कि हम कर्म करते समय लक्ष्य या उद्देश्य को ध्यान में न रखें। निष्काम कर्म करने के पीछे भी एक उद्देश्य होता है। जीवन निर्वाह के लिए किये जाने वाले कर्मों के पीछे भी उद्देश्य होता है। निष्काम कर्म करने वाले को भी जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने होते हैं। इन शब्दों से यह समझना उचित होगा कि कर्म के बदले फल का चयन करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। यदि फल के चयन करने का अधिकार मनुष्य के पास होता तब कोई व्यक्ति, जो किसी कार्य को आधा -अधूरा करता है, भी अज्ञानतावश या लालचवश उस परिणाम का अपने लिए चयन कर लेता जो सफलतापूर्ण पूर्ण कार्य करने वाले को प्राप्त होता है।
जीव के रूप में मनुष्य कर्मों का कर्त्ता भी है और कर्म के अनुरूप किये गए कर्म के फलों का भोक्ता भी है।
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