मित्रो !
हमारा शरीर आत्मा के बिना निर्जीव है। आत्मा के बिना शरीर में कोई क्रिया नहीं हो सकती। इसे जीवात्मा कहते हैं। आत्मा शरीर के विषय में सब कुछ जानता है, शरीर के बाहर जगत की जानकारी उसको नहीं होती। जीव अपनी प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम से प्रेरित होकर मन, बुद्धि से कर्म करता है। किन्तु मिथ्या अहंकार के प्रभाव में जीवात्मा यह मानता है कि वह शरीर का स्वामी है, शरीर द्वारा किये जा रहे कार्यों का वह स्वयं कर्ता है और कर्म फलों का स्वयं भोक्ता है। इसी कारण जीवात्मा सुख-दुःख और अन्य अनुकूल और प्रतिकूल परिणामों का अनुभव करता है। यही आत्मा मृत्यु के समय शरीर का त्याग कर देता है तथा जन्म के समय नए शरीर को धारण करता है।
परम आत्मा अर्थात परमात्मा सर्व-विद्यमान, सर्व-ज्ञाता और सर्व-शक्तिमान है। इस कारण से हमारे शरीर में यह परमात्मा भी निवास करती है। यह शरीर को जानने के साथ-साथ समस्त जगत के बारे में जानती है, यह प्रत्येक जीव के अंदर भी है और प्रत्येक जीव के शरीर के बाहर अन्य समस्त स्थानों पर भी है। यह शरीर, प्रकृति के गुणों, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रभाव में न आकर स्वतंत्र रहती है। वह जीव से किसी भी प्रकार बद्ध नहीं है, शरीर द्वारा किये जा रहे कार्यों और भोगे जा रहे कर्म-फलों का दृष्टा मात्र होती है। यह जन्म और मृत्यु से पर है। परमात्मा अकर्ता, अभोक्ता , अपरिवर्तनशील,शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी, और समस्त विश्वो का सार है।
श्रीमदभगवद गीता के अध्याय 13 के श्लोक 1 में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में जिज्ञासा प्रकट की है। भगवान श्री कृष्ण ने इसका उत्तर इसी अध्याय के श्लोक 2 में निंम्प्रकार दिया है -
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिदीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
हे कुन्ती पुत्र ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
श्लोक ३ में भगवन श्री कृष्ण ने अपने को भी सभी शरीरों का ज्ञाता बताया है। यह श्लोक निम्नप्रकार है -
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मातम मम।।
अर्थ : हे भारतवंशी ! समस्त शरीर रूपी क्षेत्रों में मुझको निश्चय ही मुझको भी क्षेत्र का ज्ञाता जानों। इस शरीर और इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है। ऐसा मेरा मत है।
यहां पर यदि हम ध्यान दें तब हम देखते हैं की भगवान के मुख से शब्द "चापि मां" (निश्चय ही मुझको भी ) बोले गए हैं। "भी" शब्द से स्पष्ट है कि भगवान श्री कृष्ण द्वारा किसी और को भी शरीर का ज्ञाता माना गया है। भगवान जो कि परमात्मा हैं के अतिरिक्त शरीर को जानने वाला अन्य ज्ञाता जीव की अपनी आत्मा होती हैं। इस प्रकार जीवित शरीर में परमात्मा और जीवात्मा दो आत्मायें होतीं हैं।
हमारा शरीर आत्मा के बिना निर्जीव है। आत्मा के बिना शरीर में कोई क्रिया नहीं हो सकती। इसे जीवात्मा कहते हैं। आत्मा शरीर के विषय में सब कुछ जानता है, शरीर के बाहर जगत की जानकारी उसको नहीं होती। जीव अपनी प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम से प्रेरित होकर मन, बुद्धि से कर्म करता है। किन्तु मिथ्या अहंकार के प्रभाव में जीवात्मा यह मानता है कि वह शरीर का स्वामी है, शरीर द्वारा किये जा रहे कार्यों का वह स्वयं कर्ता है और कर्म फलों का स्वयं भोक्ता है। इसी कारण जीवात्मा सुख-दुःख और अन्य अनुकूल और प्रतिकूल परिणामों का अनुभव करता है। यही आत्मा मृत्यु के समय शरीर का त्याग कर देता है तथा जन्म के समय नए शरीर को धारण करता है।
परम आत्मा अर्थात परमात्मा सर्व-विद्यमान, सर्व-ज्ञाता और सर्व-शक्तिमान है। इस कारण से हमारे शरीर में यह परमात्मा भी निवास करती है। यह शरीर को जानने के साथ-साथ समस्त जगत के बारे में जानती है, यह प्रत्येक जीव के अंदर भी है और प्रत्येक जीव के शरीर के बाहर अन्य समस्त स्थानों पर भी है। यह शरीर, प्रकृति के गुणों, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रभाव में न आकर स्वतंत्र रहती है। वह जीव से किसी भी प्रकार बद्ध नहीं है, शरीर द्वारा किये जा रहे कार्यों और भोगे जा रहे कर्म-फलों का दृष्टा मात्र होती है। यह जन्म और मृत्यु से पर है। परमात्मा अकर्ता, अभोक्ता , अपरिवर्तनशील,शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी, और समस्त विश्वो का सार है।
श्रीमदभगवद गीता के अध्याय 13 के श्लोक 1 में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में जिज्ञासा प्रकट की है। भगवान श्री कृष्ण ने इसका उत्तर इसी अध्याय के श्लोक 2 में निंम्प्रकार दिया है -
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिदीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
हे कुन्ती पुत्र ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
श्लोक ३ में भगवन श्री कृष्ण ने अपने को भी सभी शरीरों का ज्ञाता बताया है। यह श्लोक निम्नप्रकार है -
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मातम मम।।
अर्थ : हे भारतवंशी ! समस्त शरीर रूपी क्षेत्रों में मुझको निश्चय ही मुझको भी क्षेत्र का ज्ञाता जानों। इस शरीर और इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है। ऐसा मेरा मत है।
यहां पर यदि हम ध्यान दें तब हम देखते हैं की भगवान के मुख से शब्द "चापि मां" (निश्चय ही मुझको भी ) बोले गए हैं। "भी" शब्द से स्पष्ट है कि भगवान श्री कृष्ण द्वारा किसी और को भी शरीर का ज्ञाता माना गया है। भगवान जो कि परमात्मा हैं के अतिरिक्त शरीर को जानने वाला अन्य ज्ञाता जीव की अपनी आत्मा होती हैं। इस प्रकार जीवित शरीर में परमात्मा और जीवात्मा दो आत्मायें होतीं हैं।
No comments:
Post a Comment