Friday, November 21, 2014

समयनिष्ठा : Punctuality

         जीवन में अनेक कार्य हमें निश्चित समय पर पूरे करने होते हैं। हमें दैनिक जीवन में अनेक प्रयजनों से प्रायः किसी स्थान पर पूर्व निर्धारित समय पर पहुंचना होता है। निर्धारित समय पर कार्य पूरा न करने अथवा निर्धारित समय पर गंतव्य पर न पहुंचने से हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। विलम्ब के अनेक संभावित अज्ञात कारणों के अतिरिक्त एक मूल कारण यह भी हो सकता है कि हम भूल जाएँ कि : -
        किसी भी गंतव्य पर पूर्व निर्धारित समय पर पहुँचने के लिए यात्रा प्रारम्भ किये जाने के समय का पूर्व निर्धारण किया जाना और ऐसे निर्धारित समय पर यात्रा प्रारम्भ किया जाना आवश्यक होता है। यात्रा प्रारम्भ करने के समय का निर्धारण करते समय हमें उन कारणों का भी ध्यान रखना होता है जो यात्रा समय पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। जहां यात्रा प्रारम्भ करने का समय किसी पूर्व-वर्ती कार्य के समाप्त होने पर निर्भर करता है वहां पूर्व-वर्ती कार्य के समाप्त होने का समय भी निर्धारित किया जाना आवश्यक होता है। किसी कार्य के पूर्व निर्धारित समय पर पूरा किये जाने के मामले में भी यही सब लागू होता है।
        यहां पर मैं अपने को स्पष्ट करने के लिए आपका परिचय एक काल्पनिक करेक्टर "मिस्टर एक्स" से करा रहा हूँ। 
1. मिस्टर एक्स जिस दिन वह अपने विद्यार्थी जीवन की आखिरी परीक्षा दे रहे थे उस दिन परीक्षा सुरू होने के 25 मिनट बाद परीक्षा केंद्र पर पहुंचे। तीन घंटे की जगह ढाई घंटे ही मिले। परिणाम यह हुआ कि 6 प्रश्नों की जगह 5 प्रश्नों का ही उत्तर लिख सके। परिणाम यह हुआ कि 5 अंकों के कम रह जाने से प्रथम श्रेणी की जगह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।
2. मिस्टर एक्स को एक प्राइवेट जॉब के लिए साक्षात्कार का बुलावा मिला। उस दिन दुर्भाग्य से मिस्टर एक्स को समय पर टैक्सी नहीं मिली और समय से न पहुँचने पर इंटरव्यू नहीं दे सके। 
3. मिस्टर एक्स ने नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा का आवेदन पात्र भरा किन्तु परीक्षा वाले दिन रास्ते पर लम्बा जाम लगे होने के कारन परीक्षा केंद्र पर डेढ़ घंटे देर से पहुंचे। परीक्षा शर्तों के अनुसार वे परीक्षा नहीं दे सके। अगले वर्ष पुनः परीक्षा देने का निर्णय लिया।
4. मिस्टर एक्स अगले वर्ष प्रतियोगिता परीक्षा में बैठे और नौकरी भी पा गए। किन्तु शायद ही कोई दिन हो जिस दिन वे समय पर कार्यालय पहुंचते हों। एक दिन उच्चाधिकारी ने आकश्मिक निरीक्षण प्रातः 10:30 बजे किया। मिस्टर एक्स अनुपस्थित मिले। इस पर उच्चाधिकारी ने चेतावनी दे दी कि अगर ऐसा ही रहा तब उन्हें समयनिष्ठा के विन्दु पर प्रतिकूल प्रवृष्टि दे दी जायेगी। 
5. मिस्टर एक्स कार्यालय देर से पहुँचाने का दोष पत्नी पर मढ़ देते हैं कि उनके ब्रेकफास्ट या लंच बॉक्स देर से देने से वे कार्यालय के लिए लेट हो जाते हैं। इससे घर का माहौल ख़राब रहने लगा है। 
6. मिस्टर एक्स ने बच्चों की गर्मियों की छुट्टी में उनको हिल स्टेशन ले जाने का प्रोग्राम बनाया। रेलवे से आरक्षण भी करवाया किन्तु जिस दिन जाना था, रेलवे स्टेशन पर जब पहुंचे ट्रेन जा चुकी थी। प्रोग्राम रद्द करना पड़ा। बच्चे भी उनसे खिन्न रहने लगे हैं।

        अन्य लोगों के साथ भी ऐसा हो सकता है। उनके न चाहते हुए भी विलम्ब होता हो। इसका कारण क्या हो सकता है। हो सकता है कि इस बीमारी से छुटकारा पाने का आपका कोई अन्य सुझाव हो किन्तु मैं जो कुछ सोच पाया हूँ वह यह है :
किसी कार्य को समय पर पूरा किये जाने के लिए उस कार्य का समय पर शुरू किया जाना भी आवश्यक होता है।

While Presenting God Idols

मित्रो !
        जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास रखता है और जिसने यह जान लिया है कि ईश्वर एक है और वह सर्वत्र है उसके लिए ईश्वर को स्मरण करने के लिए ईश्वर के चित्रों, मूर्तियों और देवालयों की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे व्यक्ति के लिए उसका ईश्वर देखी और न देखी जा सकने वाली प्रत्येक मूर्त और अमूर्त वस्तु में होता है। हमें ऐसे व्यक्ति को ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति उपहार में देकर उस व्यक्ति की ईश्वर के प्रति आस्था और ज्ञान को सीमित नहीं करना चाहिए।

उपहार : GIFT

मित्रो !
        यदि कोई ऐसी वस्तु, जो रख-रखाव चाहती है और उसके रख-रखाव में अथवा उपयोग करने में खर्च आता है, आप अपने किसी मित्र या किसी स्नेही जन को उपहार में देना चाहते हैं और आप चाहते हैं कि आपका ऐसा मित्र या स्नेही जन ऐसी वस्तु का स्वयं उपयोग करे तब इस बात पर विचार कर लें कि क्या आपका ऐसा मित्र या स्नेही जन उपहार में प्राप्त होने वाली वस्तु के रख-रखाव में अथवा उपयोग किये जाने की स्थिति में उपयोग करने पर आने वाले व्यय को अतिरिक्त व्यय के रूप में वहन करने में सक्षम है या नहीं। यदि ऐसा व्यक्ति अतिरिक्त व्यय वहन करने में सक्षम नहीं है तब मेरे विचार से हमें अपने मित्र या किसी स्नेही जन को ऐसी वस्तु उपहार में नहीं देनी चाहिए।

कृतज्ञता : Gratitude

मित्रो !
        जब कोई व्यक्ति हमारी सहायता करता है अथवा कोई वस्तु हमें उपहार में देता है तब हमारे अंदर उसके प्रति आदर की भावना उत्पन्न हो जाती है। इस भावना को प्रकट करने के लिए हम धन्यवाद (Thanks), हम आपके आभारी हैं, हम आपके कृतज्ञ हैं, I am obliged, I am thankful to you, I am grateful to you आदि शब्दों को कहते हुए उस व्यक्ति के प्रति आभार जताते हैं। आभार व्यक्त करते समय हमारे अंदर विनम्रता का भाव होता है।
       आभार व्यक्त करना सकारात्मक सोच और हमारी आशावादी दृष्टिकोण का परिचायक है। जो लोग आभार व्यक्त नहीं करते उन लोगों की अपेक्षा आभार व्यक्त करने वाले लोग अधिक खुश रहते हैं तथा उन्हें सामाजिक समर्थन और प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है। आभार प्रदर्शन से हम गुडविल भी कमाते है (We earn goodwill by expressing gratitude)। आभार प्रकट करने वाले लोगों में तनाव और अवसाद का स्तर निम्न होता है। इसके विपरीत आभार प्रकट न करने वाले व्यक्तियों में तनाव और अवसाद का स्तर उच्च होता है। मेरा मानना हैं कि आभार प्रकट करने का प्रभाव हमारे स्वास्थ्य, हमारी गुडविल, हमारी सोच और हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा पर भी होता है।
       स्पष्ट है कि आभार व्यक्त करने की अवधारणा हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हमें इसका अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए। हमें प्रत्येक ऐसे अवसर को पहचानना चाहिए जिस पर हम आभार का प्रदर्शन कर सकते हैं। यह देखा गया है कि कुछ लोग किसी वस्तु का क्रय करने के उपरांत विक्रेता के अच्छे व्यवहार के लिए उसे धन्यवाद या Thank you कहते हैं। यह एक स्वस्थ परंपरा है। परिवार के सदस्य विशेष रूप से बच्चे जब भी कोई वस्तु हमें लाकर दें तब हमें उन्हें धन्यवाद (Thank you) कहना नहीं भूलना चाहिए। इससे उनमें भी इस आभार व्यक्त करने की स्वस्थ परंपरा का विकास होता है साथ ही वे यह भी अनुभव करते हैं कि उनके बड़े उन्हें बहुत प्यार करते हैं।

      मैं अनुगृहीत हूँगा यदि मेरे ऐसे मित्र जो अब तक कृतज्ञता व्यक्त करने के विचार से अनभिज्ञ थे भी आभार व्यक्त करने की परम्परा को अपना कर इसका लाभ उठायेंगे।


आशावाद और सकारात्मक सोच : Optimism and Positive Thinking

मित्रो !
         मैंने अपने पूर्व आर्टिकल में सकारात्मक सोच (positive thinking) पर चर्चा प्रारम्भ की थी। उसी आर्टिकल के क्रम में मैं यह आर्टिकल प्रस्तुत कर रहा हूँ।
        आशावाद (optimism) और सकारात्मक सोच (positive thinking) दो अलग-अलग धारणाएं हैं। आशावाद "सब कुछ ठीक होगा, हर समस्या का एक समाधान होता है।" पर विश्वास करने की प्रवृति है। किसी कार्य के संपन्न करने की पद्यति और कार्य के संपादन के दौरान आने वाली समस्यायों के सम्बन्ध में आशावादी व्यक्ति के मष्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आशावादी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि कोई कार्य किस प्रकार पूरा होगा किन्तु फिर भी उसका विश्वास होता है कि कार्य पूरा हो जायेगा। आशावाद में अनुकूल परिणाम का विचार केवल धारणा पर आधारित होता है। यह धारणा गलत भी हो सकती है और सही भी हो सकती है। 
       आशावादी सोच के विपरीत निराशावादी सोच ऐसी सोच है जिसमें मनुष्य के अंदर यह धारणा घर कर जाती है कि वह किसी कार्य विशेष को करने में सफल नहीं होगा। जब किसी निराशावादी व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को दोषी मानता है, वह सोचता है कि उसके साथ हमेशा ऐसा ही होगा और यह उसके जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करेगा। विपरीत इसके यदि किसी आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को उत्तरदायी न मान कर इसके पीछे वाह्य कारणों को उत्तरदायी मानता है, प्रतिकूल प्रभाव को स्थायी नहीं मानता। यह मानता है कि ऐसा उसके साथ सदैव होने वाला नहीं है। वह जीवन पर इसका प्रभाव अल्प और सीमित मानता है। 
        आशावाद और निराशावाद को समझने के लिए मैं एक उदहारण अपने व्यक्तिगत जीवन से देना चाहूँगा। 1969-70 शिक्षा सत्र में मैंने एम. एससी. अंतिमवर्ष में अध्ययन किया और मार्च 1970 में परीक्षा दी । इसी वर्ष मैंने जुलाई से मार्च तक 5 इंटरमीडिएट के छात्रों को प्रत्येक दिन 3 घंटे पढ़ाया और इसी वर्ष दिसंबर 69-जनवरी 70 में UPPCS (उत्तर प्रदेश संयुक्त राज्य सेवा) की मुख्य परीक्षा दी। जाहिर है कि अन्य छात्रों की तुलना में मुझे एम. एससी. की पढ़ाई के लिए कम समय मिला। मेरे पड़ौस में मेरी कक्षा का ही एक अन्य छात्र रहता था। पढ़ने में अच्छा था। एम. एससी. परीक्षा शुरू होने से पहले हम दोनों सभी प्रश्न-पत्रों में मिलाकर कुल ६० प्रतिशत से अधिक अंक लाने का लक्ष्य बनाकर चल रहे थे। कुल चार प्रश्न-पत्र प्रत्येक 100 अंक के होने थे। परीक्षा शिड्यूल के अनुसार प्रथम और द्वितीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 2 दिन का अंतराल, द्वितीय और तृतीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 4 दिन का अन्तराल और तृतीय और चतुर्थ प्रश्न-पत्रों के मध्य 16 दिन का अंतराल था। दो प्रश्न-पत्र होने पर हम दोनों ने पाया कि हम दोनों के ही दोनों प्रश्न-पत्रों में से प्रत्येक में 50-55 के बीच ही अंक आ सकते थे। मैंने उस लडके से कहा चलो हुआ सो हो गया वाकी पेपर्स में हम कोशिश करेंगे कि इन दो पेपर्स में आयी कमी भी पूरी हो जाय और मुझे उम्मीद है कि हम कमी पूरी कर लेंगे। इस पर मेरे साथी ने कहा "हमें मालूम है कि वाकी पेपर्स में भी मेरे साथ यही होगा। हमारे मेरे साथ ऐसा ही होता है। कुछ नहीं बदलेगा। जिंदगी भर सेकेण्ड क्लास की डिग्री लिए बेरोज़गार फिरता रहेगा। कोई नौकरी नहीं देगा।" मैंने बहुत समझाने का प्रयास किया पर वह नहीं माना। मैंने उससे यह भी कहा कि पेपर्स के बीच में 20 दिनों की छुटियाँ हैं उनमें तैयारी की जा सकती थी। इस पर उसने अपनी प्रतिक्रिया दी कि जब साल भर पढ़ने से कुछ नहीं हुआ तब 20 दिन में क्या हो जायेगा। उसकी सोच का प्रभाव यह हुआ कि वह हर समय सुस्त रहने लगा। उसका मन पढ़ने में भी नहीं लगने लगा। मैंने छुटियों का उपयोग पढ़ने में किया। तृतीय प्रश्न-पत्र होने पर उसमें 70 अंक आने की संभावना ने मेरी आशा को और वल दिया। चतुर्थ प्रश्न-पत्र देकर जब मैं परीक्षा कक्ष से निकला तब मुझे पूरा विश्वास था कि मेरे सभी पेपर्स में मिलाकर 60 प्रतिशत से अधिक अंक आएंगे। इसका कारण यह रहा था कि मेरा चतुर्थ प्रश्न-पत्र बहुत अच्छा हुआ था और उसमें मुझे कम से कम ९० अंक प्राप्त होने की आशा थी। परीक्षा परिणाम आने पर मेरा साथी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। मैंने अपने बारे में जैसा सोचा था उसी प्रकार अंक मिले, चतुर्थ पेपर में 90 अंक मिले और मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। यहां पर हम देखें तब पाते हैं कि दो पेपर्स देने के बाद जो कुछ मेरे सहपाठी ने कहा वह सब निराशावादी दृष्टिकोण था। जो कुछ मैंने कहा वह आशावादी दृष्टिकोण था। 
       यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या आशावादी या निराशावादी व्यक्ति की सोच का प्रभाव ऐसे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। मेरा मानना है कि आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है वह असफलता मिलने पर उसका अस्थायी और सीमित प्रभाव अनुभव कर तनाव या अवसाद का शिकार नहीं होता जबकि निराशावादी सोच रखने वाला व्यक्ति किसी अप्रिय घटना के घटित होने या किसी प्रतिकूल परिणाम के आने पर तनाव और अवसाद का शिकार हो जाता है।
      जहां तक सकारात्मक सोच के सम्बन्ध में है सकारात्मक सोच के अंतर्गत हम यह मान कर चलते हैं कि कार्य के करने में समस्याएं आ सकतीं हैं और उनका निदान स्वतः नहीं होगा। सकारात्मक सोच समस्यायों पर विचार कर उसका समाधान खोजती है। सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति के मन में समस्यायों का विचार आने पर वह कार्य न करने का निर्णय न लेकर समस्याओं का समाधान खोजने पर विचार करता है। वह इस विचार को लेकर आगे बढ़ता है कि प्रत्येक समस्या का एक समाधान होता है। नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति असफलता के भय से या तो कार्य प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा कार्य प्रारम्भ करने के बाद कार्य करने के दौरान कोई समस्या या कठिनाई आने पर कार्य बीच में ही छोड़ देता है। इसका मुख्य कारण है कि सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को उसका शरीर तंत्र प्रारम्भ ही में आवश्यक ऊर्जा दे देता है। ऐसे लोग समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं। विपरीत इसके नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार न होने के कारण उनके अंदर आवश्यक ऊर्जा का अभाव होता है। इसी कारण नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति कार्य अनमने (half heartedly) ढंग से प्रारम्भ करते हैं और समस्या या कठिनाई आने पर बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उनसे यह कार्र्य नहीं होगा।
      सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ हम सुखद और अच्छी भावनाओं का अनुभव करते हैं। ऐसी सोच आंखों में चमक, शरीर में अधिक ऊर्जा और खुशी लाती है। हमारे स्वास्थ्य को अनुकूल रूप में लाभदायक तरीके से प्रभावित करती है। हमारे शरीर की भाषा बदल जाती है और हम गर्व के साथ अपना सीना तान कर विजयी मुद्रा में चलते हैं।
आशावादी दृष्टिकोण के आचरण से हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार आता है, यह पुरानी बीमारी को रोकने में सहायक की भूमिका निभाता है और हमें अशुभ को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।

सकारात्मक सोच : Positive Thinking

मित्रो।
          हम सदैव वकालत करते हैं कि हमें सकारात्मक सोच (Positive thinking) रखनी चाहिए। कुछ लोग स्वभाव से ही सकारात्मक सोच के धनी होते हैं किन्तु अन्य लोगों द्वारा इसे अभ्यास द्वारा विकसित किया जा सकता है। इसको विकसित तभी किया जा सकता है जब हमें ज्ञात हो कि सकारात्मक सोच क्या है। मेरे विचार से -
         सकारात्मक सोच सकारात्मक परिणाम (positive result) की आशा से ओत-प्रोत एक मानसिक और भावनात्मक रवैया (attitude) है जो जीवन के उज्ज्वल पक्ष पर केंद्रित होता है। 
        सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को विश्वास होता है कि वह अपने रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं और कठिनाइयों पर विजय पा लेगा। ऐसा व्यक्ति अपने मन में उठने वाली किसी भी आशंका को दृढ़तापूर्वक नकार देता है।

ईश्वर : एक सोच

         कितना विरोधाभाष है कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जैसा कुछ भी नहीं है किन्तु ऐसा मानने के बाद भी ईश्वर को कोसते हैं और उसे बुरा-भला कहते हैं। क्या ऐसे लोग दया के पात्र नहीं हैं?

Friday, November 7, 2014

ईश्वर के सामने मेरी हठधर्मिता : My Stubbornness Before God

      मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैंने अपने जीवन में कभी अपने माँ-वाप या किसी अन्य परिवारीय सदस्य या अन्य व्यक्ति के सामने अपनी किसी बात को मनवाने की जिद की हो किन्तु मैंने दो अवसरों पर ईश्वर से अपनी जिद मनवाने का प्रयास अवश्य किया है और इन दोनों अवसरों पर ईश्वर से मैं अपनी बात मनवाने में सफल हुआ हूँ। इनमें से एक अवसर उस समय आया जब मैं एम. एससी. (प्रथम वर्ष) का विद्यार्थी था, दूसरा अवसर मेरे सेवाकाल में आया जब मैं उत्तर प्रदेश बिक्री कर विभाग (सम्प्रति उत्तर प्रदेश कोमर्सिअल टैक्स डिपार्टमेंट) में एक जिले में बिक्रीकर अधिकारी (सम्प्रति असिस्टेंट कमिशनर, कोमर्सिअल टैक्स) के पद पर तैनात था। यहां पर मैं पहले अवसर पर अपने द्वारा की गयी जिद का उल्लेख करूँगा। अवसर मिलने पर दूसरे अवसर का उल्लेख बाद में अलग से करूँगा।
      मैं जुलाई १९६९ में आगरा विश्व विद्यालय के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में एम. एससी प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने गया। मैं कॉलेज ऑफिस के फॉर्म वितरण काउंटर से एडमीशन फॉर्म प्राप्त कर रहा था उसी समय वहां पर एक लड़का आ गया जिसका नाम कैलाश सिंह था। उसका बचपन का नाम भोला था। यह लड़का मुझसे पूर्व से ही परिचित था। इस लडके से मेरी मुलाकात दो वर्ष पूर्व हुयी थी जब वह इंटरमीडिएट प्रथम वर्ष का छात्र था। मैं उसके परिवार के सदस्यों और परिवार की आर्थिक स्थिति से पूर्व से ही परिचित था। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बच्चों को उच्च शिक्षा दिला सकें। जब मैं इस लडके से प्रथम वार मिला था तब मैंने उसके परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उससे कह दिया था कि वह इंटरमीडिएट पास कर ले, आगे बी. ए. और फिर बी. एड. करने में मैं उसकी मदद करूँगा। बी. एड. कर लेने पर कहीं उसे शिक्षक की नौकरी मिल जाएगी। एडमीशन फॉर्म वितरण काउंटर पर उस लडके को देखकर मेरे द्वारा उससे दो वर्ष पूर्व कही गयी बातें याद आ गयीं। मुझे कुछ शर्मिंदगी भी महसूस हुयी क्योंकि मैं अपने द्वारा कही गयी गयी बातों को भूल गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसने बी. ए. प्रथम वर्ष में उसी कॉलेज में एडमीशन ले लिया है। उसने बताया कि उस समय वह अस्थायी रूप से तीन किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में अपने एक दूर के रिस्तेदार के यहां रुका हुआ था। लेकिन वहां स्थायी रूप से नहीं रह सकता था। मैंने स्वयं एडमीशन लेने तक उससे रुकने को कहा। मैंने अपना एडमीशन फॉर्म भरकर कॉलेज प्रिंसिपल से आदेश करवा कर शुल्क के साथ फॉर्म एडमीशन काउंटर पर जमा कर दिया।
      मेरी योजना उसी शहर में किराये पर एक कमरे के सेट जिसके साथ एक किचिन भी हो लेकर अपनी शिक्षा पूरी करने की थी। सेल्फ कुकिंग करनी थी। यद्यपि हॉस्टल और स्टूडेंट कैंटीन उपलब्ध थे किन्तु उतना व्यय मैं स्वयं वहां नहीं कर सकता था। मैंने उस लडके को योजना बतायी और उसे साथ लेकर अकोमोडेसन की तलाश में निकल पड़ा। संयोग से दो घंटे की तलाश के बाद एक रिहायसी मकान के बाहरी हिस्से में एक बड़ा कमर और उससे लगा हुआ बात रूम और किचिन मिल गया। बाजार से कुछ जरूरी सामान खरीद कर कमरे पर रख दिया और उस कमरे के ताले की चाबी उस लडके को देकर मैं अपना जरूरी सामान लेने अपने घर चला गया। दो-तीन दिन में मैं अपना सामान लाकर उस लडके के साथ उसी कमरे में रहने लगा। मैंने उस लडके को आस्वस्त कर दिया कि खर्चे के बारे में उसे चिंता करने की जरूरत नहीं है। किन्तु वह भी मेरी आर्थिक स्थिति को जानता था। इसी बीच एक घटना और घटी। एक छात्र ने इलाहबाद यूनिवर्सिटी में उसी वर्ष एडमीशन लिया था किन्तु एक माह बाद उसने यूनिवर्सिटी किन्ही कारणों से छोड़ दी। कारण शायद हॉस्टल में रैगिंग का रहा था। उस लडके के पिता जी मुझे जानते थे। वह उस लडके को लेकर मेरे पास आ गए और उसी कॉलेज जिस में मैं पढ़ता था एडमीशन कराने और अपने साथ रखने को कहा। मैं मन नहीं कर सका। यह लड़का मध्यम वर्गीय परिवार से था और अपना खर्च खुद वहन कर सकता था किन्तु बड़ा होने के नाते मैंने रहने और खाने का खर्च करने से मना कर दिया। इस पर वह अपने घर से फूडग्रेन्स और दालें आदि ले आया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया।
      पहला लड़का, कैलाश सिंह, जिसका बचपन का नाम भोला था मेरी अार्थिक स्थिति को लेकर चिंतित रहता था। एक दिन उसने कहा की मैं इंटरमीडिएट के छात्रों को फिजिक्स और गणित अच्छी तरह से पढ़ा सकता हूँ। मेरे हाँ कहने पर उसने कहा कि उसकी पहचान का एक लड़का है वह पढ़ना चाहता है किन्तु प्रचलित दरों पर फीस नहीं दे सकेगा। मैंने भोला से कहा कि वह उस लडके को पढ़ने के लिए आने को कह दे। लड़का पढ़ने आने लगा। एक माह बाद उसने मुझे शुल्क के रूप में बीस रूपया देकर पाँव छुए और बोला गुरु जी पिता जी अधिक देने में कठिनाई होगी। मैंने उससे कहा अगर आर्थिक कठिनाई है तब वह उसे भी वापस ले जाए किन्तु पढ़ना न छोड़े। उसने कहा इतना देने में कोई कठिनाई नहीं है। उन दिनों कोचिंग देने वाले शिक्षक प्रतिदिन एक विषय को एक घंटे पढ़ाने का शुल्क साठ रूपया लेते थे किन्तु मैं तो शिक्षक न होकर एक स्टूडेंट ही था। लगभग 8-10 दिन बाद उस लडके ने मुझे बताया की उसकी क्लास के कुछ और लडके भी पढ़ना चाहते हैं किन्तु वे कुछ दिन मेरे साथ बैठकर देखेंगे तब निर्णय लेंगे। मैंने अनुमति दे दी। तीन अन्य लडके आकर उस लडके के साथ बैठकर पढ़े और उसके बाद उन्होंने नियमित रूप से पढ़ने की इच्छा जताई। फीस की बात पूछने पर मैंने उनसे कह दिया कि मैं शिक्षा का व्यापार नहीं करता। उनकी जो भी श्रद्धा हो वह कर लें।
      वह सभी लडके पढ़ने के लिए आने लगे। मैं उन्हें इंटरमीडिएट का गणित और फिजिक्स पढ़ता था। एक अन्य लड़का भी आने लगा। एक माह पूरा होने पर चार लड़कों में से प्रत्येक ने 60 रूपया तथा सबसे पहले आने वाले लडके ने बीस रूपया का भुगतान किया। मेरे लिए यह पर्याप्त से अधिक था क्योंकि उन दिनों इतनी मंहगाई नहीं थी। कॉलेज फीस भी चौदह से बीस रूपया प्रति माह थी। दो महीने और गुजर चुके थे। लडके फीस का भुगतान अपनी सुविधानुसार करते थे। कुछ लड़कों ने गत दो महीनों का भुगतान नहीं किया था। इस दौरान स्थान की कमी महसूस हुयी। यह भी था कि पास-पड़ोस के बच्चे शोर-गुल के साथ शाम को जिस समय लडके पढ़ रहे होते थे खेलते थे। इससे पढ़ने में व्यवधान होता था। दूसरे अकोमोडेसन की तलाश की गयी। संयोगवश एक बड़े मकान में दो बड़े कमरे, बाथरूम और किचिन मिल गए। इस मकान के तीन अन्य कमरों में भी पढ़ने वाले लडके रहते थे। मकान के प्रथम तल पर भवन स्वामी का परिवार रहता था। यहां पर शोर-गुल की समस्या नहीं थी। यहां पर मुझे एक स्वतंत्र रूप से बड़ा रूम मिल गया था।
      नवम्बर का आधा महीना पूरा हो चुका था, सर्दी पड़ने लगी थी। हम सभी के पास रजाई या कम्बल उपलब्ध थे। किन्तु मेरे सामने एक नयी समस्या आ गयी। मुझे ज्ञात हुआ जो लडके उस मकान में पहले से रह रहे थे उनमें से एक बी. एससी. (प्रथम वर्ष) का छात्र ग्रामीण क्षेत्र के अत्यंत गरीब परिवार का था। वस्तु स्थिति यह थी कि दो अंडर वियर के अलावा अन्य पहनने वाले वस्त्र एक-एक ही थे। तौलिये के नाम पर एक अंगौछा था। विस्तर के नाम पर एक पुरानी दरी और एक चादर थी। फीस भी समय से नहीं चुका पाता था। खाने के लिए आंटा-दाल गाँव से ले आता था। अन्य सामिग्री खाना बनाने के लिए अन्य छात्र दे देते थे। मैं यह सोचकर चिंता में पड़ गया कि सहायता kaise की जाय। एक परेशानी यह थी कि कुछ स्टूडेंट्स ने पिछले दो-दो महीने का भुगतान नहीं किया था। दूसरी बड़ी चिंता यह भी थी कि गरीबों का भी अपना स्वाभिमान होता है। ऐसे में न जाने मेरे द्वारा की जाने वाली आर्थिक मदद वह छात्र स्वीकार करेगा भी या नहीं। मैंने अपना कर्तव्य याद किया और प्रयास करने में कुछ गलत नहीं समझा। लेकिन धनराशि जुटाने की समस्या अब भी थी। स्वभाव वश मैं छात्रों से ट्यूशन फीस मांग नहीं सकता था। मैंने इस स्तर पर अपने को परेशानी में पाया। मैंने ईश्वर को याद किया उससे मदद माँगी और एक प्रण ले लिया कि जब तक मैं उस छात्र को पूरा विस्तर और पहनने के दो-दो सेट कपडे नहीं दिलवा देता तब तक मैं स्वयं कम्बल या रजाई का प्रयोग नहीं करूंगा। मेरे साथ के दोनों लड़कों ने नोटिस किया कि मैं सर्दी से बचने के लिए कम्बल का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। उन्होंने मुझसे पूंछा भी पर मैंने कह दिया कि मुझे सर्दी ही नहीं लगती।
      यह मेरी हठधर्मिता थी। मेरी शिकायत ईश्वर से थी। ईश्वर को भला कोई प्राणी क्या कह सकता है फिर भी मैंने कहने की हिम्मत की थी कि कि मैं तब तक सर्दी में अपने को कष्ट देता रहूंगा जब तक कि मेरी उस लडके को वस्त्र देने की इच्छा पूरी नहीं हो जाती।
      तीन दिन यों ही गुजर गए। तीन दिन बाद एक आश्चर्यजनक बात यह हुयी कि एक छात्र को छोड़कर बाकी सभी छात्रों ने अगले दो दिन में अवशेष ट्यूशन फीस का भुगतान कर दिया। यही नहीं दो छात्रों ने तो चालू महीने की ट्यूशन का भी अग्रिम के रूप में भुगतान कर दिया। मैंने अगले दिन उस गरीब छात्र को वस्त्र दिलाने की बात सोची। मैंने तय किया कि उससे पहले इजाजत नहीं लेंगे, सीधे घूमने के नाम पर उसको अपने साथ ले जाएंगे और कपडे की दूकान पर कपडे दिलवाएंगे। मैं अपने साथ रहने वाले दोनों लड़कों और उस छात्र को लेकर एक माध्यम दर्जे की कपडे की दूकान पर गया। यह दूकान पूर्व से इस कारण से परिचित थी कि मैंने रक्षाबंधन के अवसर पर घर जा रहे अपने एक मित्र को उसकी अपनी वहिन को देने के लिए एक साड़ी दिलवाई थी। मैंने दो- दो शर्ट, पेंट, पायजामा के लिए कपड़ा, एक गद्दे के लिए कपड़ा, एक बेड शीट, एक ओढ़ने की गरम चादर, दो पिलो कवर, रजाई लिहाफ उस लडके से पसंद करवाये और उस लडके को घूमने के लिए अन्य दो लड़कों के साथ भेज दिया। मैंने दुकानदार से कॅश मेमो बनाने के लिए कहा। दूकानदार कुछ देर तक मेरी ओर देखता रहा फिर बोला कि अगर मेरी इजाज़त हो तो वह भी कुछ सहयोग करना चाहता है। मैंने मना नहीं किया। उसने कपड़ों का कॅश मेमो बना दिया और अपने नौकर को एक रजाई, गद्दे में रुई भरने वाले और एक टेलर को बुला लाने को कहा। इतने में लडके बापस आ गए। जब मैंने टेलर से उस लडके की शर्ट, पेंट, पायजामा का नाप लेने को कहा तब उस लडके ने हल्का विरोध किया किन्तु अन्य लड़कों के समझाने पर मान गया। मैंने जब रजाई और तकिया भरने तथा कपड़ों की सिलाई के चार्जेज के बारे में पूछा तो कपडे का दूकानदार मेरे सामने बड़ी विनम्रता के साथ बोला कि इतना मैं उसे भी करने दूँ। उसने कहा कि दो दिन के अंदर वह कपडे भिजवा देगा।
      दूसरे दिन कपडे आ गए। मेरे साथ के लडके सभी कपडे उस लडके को उसके कमरे में दे आये। वह लड़का कपडे पहन कर मेरे पास आया और पैर छूने लगा। मैंने उसे ऐसा करने से मना किया और उसे उठाकर गले से लगा लिया। लड़कों के चले जाने के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपनी धृष्टता के लिए उससे माफी मांगी। मैंने उस लड़के को अगले महीने उसके पास जो पुस्तकें नहीं थीं दिलवाईं और प्रत्येक महीने उसकी कॉलेज फीस देने लगा।
      सामान्य तौर पर यह एक साधारण घटना लगती है। यह एक संयोग भी कहा जा सकता है। इस बात के कोई प्रमाण नहीं थे कि ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी थी और यह सब उसके आशीर्वाद के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था और मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह सब भगवान से मेरी प्रार्थना का यह फल नहीं है। वह कब और कैसे अपनी लीला दिखाता है जान पाना हमारे वश में नहीं है। उसके असंख्य अदृश्य हाथों का देख पाना भी हमारे वश में नहीं है।
      कुछ लोगों का प्रश्न हो सकता है यह सब करके मुझे क्या मिला। मेरे लिए मेरे जीवन की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मैंने अपने लिए ख़ुशी खरीदी। जब भी यह प्रकरण याद आता है मेरा ख़ुशी से दिल भर आता है। फिर यह सब स्वप्न सा लगता है। वह कपडे वाला मेरा एक करीबी मित्र बन गया, आज भी वह मेरा मित्र है। जब मेरा बिक्रीकर अधिकारी के पद पर चयन हो गया तब वह पहला व्यक्ति था जिसने मुझे यह शुभ समाचार सुनाया था। जो लड़का मेरे साथ रहकर बी. एससी. कर रहा था पढ़ने में अच्छा था उसे मैंने फिजिक्स और केमिस्ट्री में कोचिंग दी और उस वर्ष गर्मियों में पी. एम. टी. (Pre Medical Test) प्रवेश परीक्षा में विठाया। प्रथम प्रयास में उसका चयन नहीं हो सका। अगले वर्ष पुनः प्रयास किया और उसका इस बार चयन हो गया। उसे गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज कानपुर में एडमीशन मिल गया। आज कल वह उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में अपना नर्सिंग होम चला रहा है। वह आज भी गरीबों का ख्याल रखता है। मैं आज भी उसके लिए गुरु जी हूँ। मुझसे जो छात्र पढ़ने आते थे सभी ने द्वितीय श्रेणी में अच्छे नम्बरों से इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। एम. एससी. द्वितीय वर्ष में भी मैंने यही सब कुछ जारी रखा। इस वर्ष एक छात्र के अभिभावक ने अपने लडके को अकेला पढ़ाने की जिद की। मैंने उसकी बात मान ली। मैंने कोई ट्यूसन फी तय नहीं की। मुझे आश्चर्य हुआ जब एक माह पूरा होने पर उसने मुझे दो सौ पचास रूपया का भुगतान किया। इस वर्ष मेरी मासिक आय पांच सौ रूपया प्रति माह से अधिक थी। self cooking बंद कर दी गयी। मैं स्वयं और मेरे साथ के दो छात्र स्टूडेंट कैंटीन में खाना खाने लगे। इससे हम लोगों के समय की बचत होने लगी। इसी वर्ष मैं Combined State Services Examination में प्रथम बार सम्लित हुआ और इसी के फलस्वरूप मेरा 1969 बैच से बिक्रीकर अधिकारी (वर्तमान में Assistant Commissioner, Commercial Tax) के पद पर चयन हुआ। कैलाश और दूसरे छात्र ने भी ग्रेजुएशन पूरा कर लिया। मैंने भी अपना एम. एससी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया।
      एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि जिस शहर में मैं अनजान बनकर आया था उसमें जिस मोहल्ले में मैं रहता था उस मोहल्ले के लोगों ने मुझे बहुत सम्मान और प्यार दिया। इसका कारण यह रहा था कि मेरे कृत्यों की जानकारी मेरे भवन स्वामी को हुयी और उन्होंने मेरे क्रिया-कलापों और स्वभाव के बारे में मोहल्ले के अन्य लोगों को बता दिया था। भवन स्वामिनी जिनकी उम्र उस समय लगभग 65 वर्ष थी को मैं माता जी कहकर सम्बोधित करता था ने मुझे अपना बेटा मानकर मेरा ख्याल रखना शुरू कर दिया। यही नहीं वे त्योहारों के दिन मेरे और मेरे साथ रह रहे दोनों छात्रों के लिए पकवान (special dishes) बनाकर भेजतीं थीं। इसी मोहल्ले में एक डॉक्टर साहब का निवास तथा क्लीनिक था। डॉक्टर साहब एक बड़े इंटरमीडिएट कॉलेज के वाईस प्रेजिडेंट भी थे। एक अवसर पर मुझे कुछ बुखार हुआ। दो-तीन दिन तक बुखार ठीक नहीं हुआ तब मैंने डॉक्टर साहब को दिखाना उचित समझा। डॉक्टर साहब ने देखा और मुझे अपने पास से दवा दे दी। मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी उन्होंने न तो अपनी फीस ली और न ही दवाई के पैसे। उन्होंने मेरे स्वाभाव की प्रसंशा करते हुए पूछा कि क्या मैं इंटरमीडिएट कॉलेज में नियमित रूप से टीचिंग का कार्य करूंगा ? मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक यह कह कर मना कर दिया कि इससे मुझे और उन लड़कों को जिनको मैं पढ़ा रहा हूँ कठिनाई होगी। इस पर उन्होंने कहा कोई बात नहीं, मेरी जब भी इच्छा हो मैं उन्हें बता दूँ।
      इस समय को मैं अपने जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण और खुशियों भरा मानता हूँ। शिक्षक मैं आज भी हूँ। मेरे लिए अपने को शिक्षक मानना एक गौरव की बात है। मेरी जिंदगी के कुछ ऐसे ही गिने-चुने प्रकरणों में से यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। मैंने अपने जीवन के इस अंतराल में खुशियों भरा जीवन जिया है और ख़ुशी की स्थायी पूँजी कमाई है। यह प्रकरण आज भी मुझे ख़ुशी देते हैं। यह मेरी ऐसी पूँजी है जो मेरी मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होगी क्योकि न तो कोई अन्य इसका उपभोग कर सकेगा और न ही कोई इसे नष्ट कर सकेगा। ऐसे प्रकरणों से सम्बंधित अंतरालों को छोड़कर वाकी जीवन में मैं ऐसा कुछ नहीं कर सका जिसे मैं स्थायी रूप से अपना कह सकूँ।

आज़ादी : Freedom

      आज़ादी अच्छी चीज है और सभी को अच्छी लगती है। किन्तु आज़ादी का विस्तार खुले आसमान की तरह है जिसकी कोई सीमायें नहीं होतीं। ऐसे में यदि हम अपना चरित्र विशेष बनाये रखना चाहते हैं तब हमें अपनी आज़ादी की सीमायें स्वयं निर्धारित करनी होंगी और उन सीमाओं पर होने वाले अतिक्रमण को रोकना होगा।




भ्रष्टाचार और व्यभिचार मुक्त भारत की कल्पना

      कोई भी बच्चा भ्रष्टाचार या व्यभिचार युक्त चरित्र लेकर पैदा नहीं होता। अगर कोई बच्चा बड़ा होकर भ्रष्टाचारी या व्यभिचारी बनता है तो इसके लिए मुख्य रूप से उसको मिले संस्कार, अशिक्षा, उसको मिलने वाली संगति और परिस्थितियां जिम्मेदार होतीं हैं। मेरे विचार से इन पहलुओं पर विचार किये बिना भ्रष्टाचार और व्यभिचार मुक्त भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार और व्यभिचार दोनों ही देश के विकास में वाधक हैं।

व्यवहारिक दृष्टिकोण : Practical Approach

        जिस प्रकार मुंह से बड़े आकार के फल को छोटे आकार के टुकड़ों में काट कर आसानी से खाया जा सकता है उसी प्रकार अनेक बड़े कार्यों जिनकी विशालता को देखकर उनका पूरा किया जा सकना असंभव लगता है और जिनकी विशालता को देखकर हम घबरा जाते हैं को विभिन्न चरणों में विभाजित कर लेने पर आसानी से किया जा सकता है। किसी बड़े कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए।

Sunday, November 2, 2014

क्रोध विनाशक संकल्पित मुद्रिका : Anger Destroyer Conceptual Ring

      मैंने पूर्व में एक आर्टिकल "विनाशकारी क्रोध" शीर्षक से पोस्ट किया था और सुझाव दिया था कि जिस समय किसी व्यक्ति को क्रोध आता है उसी समय अगर उसका ध्यान किसी अन्य वस्तु, विचार, दृश्य आदि की ओर मोड़ा जा सके तब उसका क्रोध शान्त हो सकता है । किन्तु यह तथ्य भी विचारणीय हैं कि व्यक्ति अकेला होने पर क्रोध के आवेश में आ सकता है और कुछ भी गलत करने का निर्णय ले सकता है। अगर किसी व्यक्ति के क्रोधित होने के समय अन्य व्यक्ति पास में हैं भी तब यह समस्या हो सकती है ऐसे व्यक्तियों को यह मालूम ही न हो कि जिस विषय या वस्तु को लेकर व्यक्ति क्रोधित हो रहा है उससे उसका ध्यान हटा दिया जाय अथवा यह भी हो सकता है कि उपस्थित व्यक्तियों में से किसी में भी क्रोधित हो रहे व्यक्ति से कुछ कह सकने का साहस न हो। ऐसा भी हो सकता है कि क्रोधित हो रहा व्यक्ति किसी की वात सुने ही नहीं। ऐसे में एक यही विकल्प बचता है कि क्रोध आने के समय क्रोध से ग्रसित होने वाले व्यक्ति के पास कोई वस्तु ऐसी होनी चाहिए जो उसे याद दिलाये कि उसे क्रोध नहीं करना है। क्रोध विनाशकारी है। साथ ही ऐसी वस्तु क्रोधित होने जा रहे व्यक्ति की सोच किसी अन्य विचार या वस्तु पर केंद्रित कर दे।
      मित्रो ! मेरा जन्म एक गाँव में हुआ है और मेरा बचपन गाँव में ही गुजरा है। मैंने बचपन में देखा है कि घरेलू कामकाजी अधेड़ उम्र और उम्रदराज अनेक महिलाएं किसी विशेष बात या कार्य को याद रखने के लिए अपनी साड़ी / धोती के एक छोर पर एक गाँठ बाँध लेतीं थी। यह गाँठ सदैव उनके साथ होती थी तथा जब तक खोली न जाय यह याद दिलाती रहती थी कि उन्हें अमुक काम करना है। अगर कार्य याद नहीं रहता था तब वह गाँठ देखकर अपनी याददास्त से पता करतीं थीं कि उन्होंने यह गाँठ किस लिए लगाई थी। मेरा विचार है कि प्रथा का उपयोग हम क्रोध नियंत्रण के लिए भी कर सकते हैं। पर आज पहले तो हम शरीर पर ऐसा वस्त्र धारण नहीं करते जिसमें गाँठ लगाई जा सके दूसरे अगर हम में से कोई ऐसा वस्त्र पहनते भी हैं तब ऐसे लोग गाँठ लगाना उपयुक्त नहीं पायेंगे। अगर गाँठ बाँध भी लें तब हम अनेक लोगों को इसका उद्देश्य बताने और समझाने में कठिनाई महसूस करेंगे। हमें ऐसा एक प्रतीक चाहिए जो हमारे संकल्प को याद दिलाता रहे, सदैव हमारे साथ रहे, इसके धारण करने से हमें अरुचि न हो और प्रतीक सामान्य लगे। यद्यपि हम क्रोध न करने का संकल्प ले सकते हैं किन्तु संभव है कि क्रोध आने के समय हमें संकल्प याद ही न रहे। ऐसी स्थिति में कोई वाह्य वस्तु या प्रतीक ही उपयुक्त हो सकता है।
      आजकल अनेक व्यक्ति अपनी उँगलियों में मुद्रिकाएं (Rings) पहनते है। किसी व्यक्ति को मुद्रिका पहने देखने पर कुछ भी असामान्य नहीं लगता है। कुछ लोग इन्हें आभूषण के रूप में धारण करते हैं, वहीं कुछ लोग ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से धारण करते हैं। कुछ लोग मुद्रिका को ring ceremony के अवसर पर धारण करते हैं। ऐसी मुद्रिका पर नज़र पड़ने पर ऐसे व्यक्ति के मन मष्तिष्क में रिंग सेरेमनी की याद ताज़ा हो जाती है। मुद्रिका का धारण करना सभ्य समाज में भी अशोभनीय नहीं माना जाता है। मेरा विचार है कि मुद्रिका का उपयोग प्रतीक के रूप में क्रोध पर नियंत्रण पाने में भी कर सकते हैं। हम जानते हैं कि कलाकार द्वारा निर्मित भगवान या किसी देवी-देवता की मूर्ति में श्रद्धा तब तक उत्पन्न नहीं होती जब तक उसमें विश्वास व्यक्त कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा न की जाय। इसी प्रकार जब तक हम मुद्रा में संकल्प रुपी प्राण प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तब तक वह एक सामान्य मुद्रा ही रहेगी। मुद्रिका धारण करने से पूर्व इसका सशक्तिकरण आवश्यक है ताकि क्रोध भावना के प्रकट होने से पूर्व ही हम इसके आगे आत्मसमर्पण कर सकें।
      इसके लिए बायें हाथ की तर्जनी उंगली में पहनने के लिए (अगर आप तर्जनी उंगली में पूर्व से ही कोई मुद्रिका धारण कर रहे हैं तब किसी अन्य उंगली के नाप की) अपनी पसंद की मुद्रिका ले सकते हैं। मुद्रिका देखने में रुचिकर लगे किन्तु ऐसी न हो जिसके सामने आपके विचारों का कोई महत्व ही न रह जाय। इसको धारण करने से पूर्व यदि आप ईश्वर में विश्वास रखते हैं तब पवित्र मन से ईश्वर का स्मरण करें, यदि ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं तब ऐसे व्यक्ति या देवी-देवता जिसमें आपकी अटूट श्रद्धा और विश्वास है अथवा जिससे आप अटूट प्रेम करते हैं, का स्मरण करें और संकल्प लें कि आप कभी भी क्रोध नहीं करेंगे। अगर क्रोध का भाव कभी उत्पन्न होगा तब यह मुद्रिका आपको आपके संकल्प का स्मरण कराएगी और आप इसके दर्शन को अपने इष्ट का आदेश मान कर क्रोध का त्याग कर देंगे। इसके उपरांत आप मुद्रिका को धारण कर सकते हैं।
      अपने विश्वास को दृढ़ करने के लिए आप जिस समय भी मुद्रिका उंगली से निकालें या धारण करें अपने द्वारा किये गये संकल्प को याद करें। आप अपने परिवारीय सदस्यों, मित्रों और संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मध्य गर्व से बतायें कि आपने क्रोध करना छोड़ दिया है। इससे क्रोध पर नियंत्रण पाने के लिए आपको आत्मबल मिलेगा। जब कभी भी आप महसूस करें कि आपको क्रोध आ रहा है आप दायें हाथ की उँगलियों से मुद्रिका पकड़ कर उंगली में घुमाने लगें और अपने इष्ट और संकल्प को याद करें। आपका ध्यान क्रोध से हट जायेगा, क्रोध के क्षण निकल जायेंगे। अगर किसी अवसर पर आप सफल नहीं होते तब क्रोधित होने के लिए पश्चात्ताप करें। जिस व्यक्ति पर क्रोधित होकर उसका दिल दुखाया है उसके सामने अपने कृत्य के लिए खेद (sorry) व्यक्त करें । मेरा विश्वास है कि इससे आपको क्रोध पर नियंत्रण पाने में अवश्य ही सफलता मिलेगी।

Friday, October 31, 2014

प्यार में संवादहीनता : Communication Gap in Love

       अनेक मामलों में पत्नी की शिकायत होती है कि उसके पति उसे प्यार नहीं करते जबकि पति का दावा होता है कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है अथवा पति को अपनी पत्नी से शिकायत होती है कि उसकी अपनी पत्नी उसे प्यार नहीं करती जबकि पत्नी का दावा होता है कि वह अपने पति को बहुत प्यार करती है। यह स्थिति होने पर परिवार में तनाव बढ़ता है। इसी तरह अनेक बच्चे यह शिकायत करते हैं कि उनके मम्मी-पापा उन्हें प्यार नहीं करते जबकि उनके मम्मी और पापा का दावा होता है कि वे अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं। यह स्थिति होने पर बच्चों के समग्र विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि पति द्वारा पत्नी को प्यार किये जाने, पत्नी द्वारा पति को प्यार किये जाने और मम्मी-पापा द्वारा अपने बच्चों को प्यार किये जाने के दावे सही हैं तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दूसरा पक्ष प्यार पाने से वंचित क्यों रह जाता है, उसे प्यार की अनुभूति क्यों नहीं होती है।
मेरे विचार से पति-पत्नी के मध्य ऐसा निम्नलिखित कारणों से हो सकता है :
(1) प्यार जताने के लिए उपयुक्त वातावरण और समय का न होना।
(2) प्यार जताने वाले व्यक्ति द्वारा उपयुक्त और स्पष्ट भाषा का प्रयोग न किया जाना।
(3) प्यार जताने वाले की भाव भंगिमा (हाव-भाव) का उपयुक्त न होना।
(4) प्यार पाने वाले की प्यार करने वाले के प्रति नकारात्मक सोच।
(5) प्यार जताने और प्यार पाने वालों के मध्य किसी बात को लेकर तनाव का होना।
(6) प्यार का स्वरुप विद्यमान परिस्थितियों के अनुकूल न होना।
(7) संवाद के समय वाणी में मधुरता और सरसता का अभाव।
(8) संवाद में अनौपचारिकता का अभाव।
(9) दूसरे की भावनाओं और सम्बन्धियों का समुचित आदर न करना।
(10) दूसरे की रूचि और ख़ुशी का ख्याल न रखना।
(11) प्यार और उसके स्वरूपों के प्रति अनभिज्ञता।
      मेरा विचार है कि प्यार करना एक कला है। इसके अनेक स्वरुप हैं। यह अत्यंत आवश्यक होता है कि प्यार करने वाले को यह आना चाहिए कि किस समय और किस परिस्थिति में प्यार को इसके किस स्वरुप में व्यक्त किया जाय। प्यार में त्याग की भावना का होना भी आवश्यक होता है।
      मित्रो ! मैंने अपने विवेक से प्यार में संवादहीनता के कारणों का विश्लेषण किया है। संभव है कि कुछ कारणों का उल्लेख होने से रह गया हो। मैं अनुगृहीत हूँगा यदि आप अन्य मित्रों की जानकारी के लिए ऐसे कारणों का उल्लेख अपने द्वारा टिप्पणी में अंकित करने की कृपा करेंगे। माँ-वाप और बच्चों की मध्य प्यार में संवादहीनता के विषय में मैं अलग से विचार करना चाहूँगा।
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Tuesday, October 28, 2014

ईश्वर - एक सोच : GOD - A CONCEPT

        कुछ लोगों की जिज्ञासा हो सकती है कि ईश्वर क्या है और वे ईश्वर के अस्तित्व को क्यों माने? कुछ लोगों की यह भी सोच हो सकती है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि ऐसे पहलू हैं जिन पर जीवन के अंतिम चरण में विचार किया जा सकता है। कुछ लोगों की यह सोच भी हो सकती है कि आत्मा, परमात्मा और उनका योग (Union) साधु-संतो के लिए हैं और इनका गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। इनकी सोच जीवन में वैराग्य को जन्म देती है।
       आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं जहाँ हम हर चीज की परिभाषा चाहते हैं, हम उसकी उत्पत्ति, गठन (constitution) और अपने लिए उसकी उपयोगिता जानना चाहते हैं। ऐसे में ईश्वर , धर्म, पूजा और साधु-संतों को लेकर उठने वाले प्रश्न स्वाभाविक ही हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए ये अहम प्रश्न हैं।
       ईश्वर के सन्दर्भ में कुछ भी कहने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इन प्रश्नों का उत्तर दे पाना मेरे लिए संभव नहीं है। शायद इस दुनिया में ऐसा कर पाना किसी के लिए संभव न हो। शायद इसलिए कि उसके विस्तार के आगे हम सब बौने हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, शर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता है, यह उसका विस्तार है। ईश्वर उदार है, दयालु है, न्यायी है, प्रकृति जिसका, जीवात्माएं भी एक हिस्सा हैं, का नियंता है, वह अकेले का साथी है, असहायों का सहायक है, एक सच्चा मित्र है, भय, रोग और अपराध-बोध से छुटकारा दिलाने वाला है, निर्बल का बल है, ज्ञान का भण्डार है, वह माता है, पिता है, कभी न समाप्त होने वाला समय है, वह सबका पोषक है, सबसे बड़ा न्यायालय है, निराशा में आशा की किरण है, सत्य का रक्षक है, जीवात्माओं के बीच प्रेम का जनक और पक्षधर है। … वह क्या - क्या है, समग्र रूप में सोच पाना मेरी और अन्य किसी की क्षमताओं के बाहर है।
       हम अनंत के विस्तार और स्वरुप को परिभाषित नहीं कर सकते किन्तु अनंत के अस्तित्व को मानते हैं। हम व्यवहारिक रूप में अनंत के गुणों और प्रभावों को मानते हैं और उनका उपयोग भी करते हैं। गणित और विज्ञान के उद्देश्य के लिए हम अनंत को एक सूक्ष्म चिन्ह या आकृति द्वारा प्रदर्शित भी करते हैं। उसी प्रकार हम ईश्वर के विस्तार और स्वरुप को सम्पूर्ण रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। किन्तु फिर भी हम उसके गुणों और प्रभावों को मानते और देखते हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ईश्वर गणितज्ञों और वैज्ञानिकों द्वारा माने जाने वाला अनंत है। ईश्वर अनंत है किन्तु वह अनन्त होकर भी अनंत से परे है।
       एक बौना अगर किसी विशाल पर्वत के पास खड़े होकर पर्वत को देखना चाहे तब समूचे पर्वत को देख पाना उसकी क्षमताओं के बाहर होगा। वह पर्वत का एक छोटा सा भाग ही देख पायेगा । अगर पर्वत अनेक प्रकार के दृश्यों से भरा हो तब बौना केवल कुछ ही दृश्य देख पाने में समर्थ होगा। पर्वत के पास अनेक स्थानों पर खड़े बौनों से अगर पर्वत के बारे में पूछा जाय तब प्रत्येक बौना पर्वत का स्वरुप वह बताएगा जिस सीमित स्वरुप में उसने पर्वत को देखा है। ईश्वर के सामने हम सब बौने हैं। इस कारण हम बौनों के बीच ईश्वर के बारे में भी भिन्न - भिन्न धारणायें या मान्यतायें होना भी होना स्वाभाविक है।
       ईश्वर के प्रभाव को देखने के लिए हम नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों पर विचार कर सकते हैं:
       ईश्वर के रहते आप इस दुनिया में अकेले होते हुए भी अकेले नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है और इस कारण निर्जन में भी आपके साथ होता है। कल्पना कीजिये कि आप एक रात्रि में ऐसे निर्जन से गुजर रहे हैं जिसमें हिंसक जंगली जानवरों या डाकू - लुटरों के मिल जाने की संभावना है और उनसे आपको खतरा हो सकता है। जैसे ही यह भाव आपके मन में आता है, आपके मन में भय उत्पन्न हो जाता है और आप घबरा जाते हैं। इसी समय याद आता है कि बजरंगवली (हनुमान  जी ) का स्मरण करने से भय दूर हो जाता है। आप हनुमान जी का स्मरण करते हैं। आप के अंदर नयी ऊर्जा का संचार होता है और आपके अंदर का भय समाप्त हो जाता है। आप का कोई स्नेही प्रतिदिन अपने नियमित कार्य से घर से दूर जाता है और रात्रि १० बजे तब बापस आ जाता है। एक दिन वह रात्रि के ११ बजे तक नहीं लौटता, आपको उसके बारे में चिंता होने लगती है। जैसे-जैसे विलम्व होता जाता है आपकी चिंता बढ़ती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब आपका धैर्य टूट जाता है और आप तरह - तरह की होनी और अनहोनी की कल्पना करके दुःख में डूब जाते हैं। किन्तु जैसी ही आप ईश्वर का स्मरण करके उसको रक्षा का भार सौंप देते हैं आपका मन शांत हो जाता है।
       ईश्वर अपराध बोध से छुटकारा दिलाता है। कभी-कभी आप भावावेश में या अनजाने में अपराध कर बैठते हैं। बाद में अपराध का बोध होने पर आपको आत्मग्लानि होती है। आपका मन अपने प्रति घृणा से भर जाता है। आप ह्रदय और मन में भारीपन (depression) महसूस करते हैं। जब-जब आपको अपराध की याद आती है आपको कष्ट होता है। अगर आपके मित्र हों और यदि आप मित्रों के समक्ष इसको स्वीकार लें तब आपका ह्रदय और मन हल्का हो जाता है और अपराध बोध से उत्पन्न होने वाले भारीपन से आप छुटकारा पा जाते हैं। मान लीजिये की आपका कोई मित्र नहीं है या फिर अपराध ऐसा है जिसको आप अपने किसी भी मित्र से साझा नहीं कर सकते। तब क्या होगा? तब आप ऐसी अपराध बोध की भावना को ढोते हुये जीवन भर कष्ट उठाते रहेंगे। ईश्वर सर्वव्यापी है अतः वह आपके द्वारा अपराध करने के समय भी आपके पास होता है और इस कारण वह आपके अपराध के बारे में जानता है। ईश्वर आपका मित्र है। अतः उसके साथ आप अपने प्रत्येक कृत्य को साझा कर सकते हैं। जब आप उसके सामने अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लेते हैं तब अपराध से उत्पन्न होने वाली आत्मग्लानि से आपको छुटकारा मिल  जाता है।
       ईश्वर निराशा में आशा की किरण है। जब कभी आप निराशा के अँधेरे में घिर जाते हैं और आपको कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर होता है जो आपको हिम्मत बँधाता है। जब डॉक्टर किसी रोगी के बारे में सभी चिकित्सा विकल्पों पर विचार कर लेता है और कोई विकल्प कारगर नहीं पाता तब वह भी यह सोचकर निराश नहीं होता कि अभी परम चिकित्सक ultimate doctor ईश्वर है जो रोगी को ठीक कर सकता है। ऐसी स्थिति में यह परम चिकित्सक ultimate doctor रोगी के तीमारदारों और चिकित्सकों के लिए आशा की किरण बन कर अस्तित्व में आता है।
       मेरा पुत्र यूनाइटेड किंगडम (इंग्लॅण्ड) में एक शहर में रहकर वहां से लगभग १२० किलोमीटर दूरी पर स्थित अन्य शहर में सर्विस कर रहा है। वह प्रतिदिन यह दूरी मोटर द्वारा तय करके आता-जाता है। घर की सफाई से लेकर घर के सभी काम स्वयं करता है। माँ-वाप का उसके कुशल क्षेम को लेकर चिंता करना स्वाभाविक है। सप्ताह में एक दिन शनिवार या रविवार को उसकी कुशल क्षेम पूछने का अवसर मुझे मिलता है। वाकी दिनों की कुशल क्षेम का भार मैंने ईश्वर पर छोड़ रखा है। इसलिए मैं निश्चिन्त रहता हूँ। कल्पना कीजिये कि अगर ईश्वर न होता तो मैं कितने कष्ट में होता।
       ईश्वर न्याय प्रिय है, दयालु है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, प्राणियों पर दया करता है। वह यही सब हमसे भी अपेक्षा करता है। जब हम इन गुणों को अपनाकर इनका समाज में पालन करते हैं तब समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता है। ऐसा करके हम अच्छे सामाजिक मूल्यों की स्थापना करते हैं।
       उपर्युक्त उदाहरणों का उल्लेख मैंने अपनी यह बात प्रमाणित करने के लिए किया है कि ईश्वर का अस्तित्व और उसकी मान्यता हमारे व्यवहारिक जीवन में ख़ुशी के लिए, हमारी सुख-समृद्धि के लिए और हमारे समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। यह हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए एक सत्य है। मैंने यहां पर ईश्वर की लीलाओं का उल्लेख नहीं किया है। लीलाओं को कुछ लोग कभी-कभी चमत्कार की संज्ञा भी देते हैं। ईश्वर यह लीलाएं किसी को प्रभावित करने के उद्देश्य से नहीं करते वल्कि वे लीलाओं के माध्यम से अपनी संतानों पर कृपा करते है। उनके कष्टों का निवारण करते हैं। जैसे एक पिता अपनी संतानों से वही सब-कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करता है। उसी प्रकार परम पिता ईश्वर अपनी संतानों से भी वही सब -कुछ करने की अपेक्षा करता है जो वह स्वम करना पसंद करता है। श्रीमद भगवद गीता के अद्ध्याय १२ के श्लोक २१ के अनुसार:
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तत् तद् एवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद अनुवर्तते।।
श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो आदर्श बताता है, जन समुदाय उसी का आचरण करता है। 

       स्पष्ट है की परमात्मा हमारा रोल मॉडल है और हमसे वही सब गुण धारण करने की अपेक्षा करता है जो उसने धारण किये हुए हैं। वह अनेक प्रकार के भोगों से प्रसन्न नहीं होता, "ताहि अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावें। ". वह प्रेमवश कदली के छिलके खाकर प्रसन्न होता है। दीन - दुखी मित्र सुदामा के कष्ट हरने के लिए अपने दो लोक देकर प्रसन्न होता है। दुखियारी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए चीर बढ़ाकर प्रसन्न होता है। वह प्रेम का भूखा है। उसे प्रेम चाहिए, वह अपनी सृष्टि में प्रेम देखना चाहता है।
       जहां तक कि इन्द्रियों पर नियंत्रण के औचित्य के सम्बन्ध में है हम जानते है कि हमारे स्थूल शरीर में ही भावनाओं, इच्छाओं और कल्पनाओं का जन्म होता है। भावनाओं का प्रभाव हमारे शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंगों यथा ह्रदय, लीवर, किडनी आदि के साथ-साथ हमारे विवेक पर भी पड़ता है। अतः क्रोध, राग, द्वेष जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक होता है । इच्छाएं, शरीर में जो कुछ उपलब्ध है, उसकी मांग नहीं करती, उनकी पूर्ति बाहर से ही संभव होती है। किन्तु अनेक इच्छाओं की पूर्ति घातक हो सकती है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति में अन्य किसी प्राणी की स्वतन्त्रता और अधिकारों का हनन हो सकता है, अनेक इच्छाओं की पूर्ति करने में समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। हमारे शरीर में पांच (५) ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच (५) कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के माध्यम से हम बाहरी जगत (outer world) से जुड़े होते हैं। इन्हीं के माध्यम से हमारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। अतः अवांछित इच्छाओं की पूर्ति इन पर नियंत्रण करने से ही रोकी जा सकती है। हमारे चरित्र विकास में वाणी का अत्यंत महत्व और योगदान होता है। वाणी पर नियंत्रण भी इन्द्रिय नियंत्रण के माध्यम से किया जा सकता है।
       मेरा विचार है कि ईश्वर में आस्था, ईश्वर की भक्ति, आत्मिक ज्ञान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, आदि विषय आचरण की दृष्टी से जीवन के अंतिम चरण के लिए छोड़ने के लिए नहीं हैं। अंतिम चरण तो इनमें विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने या पारंगत होने के लिए हो सकता है। ।
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Monday, October 27, 2014

अपेक्षित करें और अपेक्षित की अपेक्षा करें : Expect and Do What is Expected

      उन दिनों मैं आई. आई. टी. कानपुर में बी. टेक. प्रथम वर्ष का छात्र था। एक दिन भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में मेरी कक्षा के छात्रों को वर्नियर कैलिपर से एक क्यूबिकल शेप के मेटल ब्लॉक का आयतन (volume) निकालने का प्रयोग दिया गया। प्रयोगशाला में प्रक्रिया यह रहती थी कि प्रयोग करने के दौरान ली जाने वाली रीडिंग्स प्रयोगशाला में उपस्थित इंस्ट्रक्टर (जो उस विषय के कोई प्रोफेसर होते थे) को दिखाकर रीडिंग्स का वेरीफिकेशन कराना होता था। रीडिंग्स सही पाये जाने पर इंस्ट्रक्टर रीडिंग ली जाने वाली शीट पर वेरीफाइड शब्द लिखकर हस्ताक्षर कर देते थे। बाद में इन्हीं रीडिंग्स के आधार पर अपेक्षित गणनाएं की जाता थीं। जहाँ प्रोफेसर यह पाते थे कि रीडिंग्स सही नहीं हैं तब वह रीडिंग ली जाने वाली शीट पर रिपीट (Repeat) शब्द लिख देते थे। इसका अभिप्राय होता था कि वह छात्र अगले सप्ताह उस प्रयोग को पुनः करेगा। उस दिन डाक्टर रजत रे इंस्ट्रक्टर के रूप में कार्य देख रहे थे।
      सामान्यतः वर्नियर कैलिपर से प्रयोग छात्रों को आठवीं या नौंवीं कक्षा में कराये जाते हैं। बी. टेक कर रहे छात्र कम से कम इंटरमीडिएट पास मेधावी छात्र रहे थे। अतः मुझे वर्नियर कैलिपर से आठवीं कक्षा के छात्रों द्वारा किया जाने वाला एक्सपेरिमेंट का कराया जाना तुरन्त समझ में नहीं आया।
      मैंने अपने दिमाग पर जोर डाला। मैंने सोचा कि एक्सपेरिमेंट के लिए तीन चीजें थीं। वर्नियर कैलिपर, क्यूबिकल मेटल ब्लॉक और वर्नियर कैलिपर से मेजरमेंट लेने का मेरा ज्ञान। पहली और तीसरी चीज अपनी जगह पर सहीं थीं। अतः मैंने क्यूबिकल मेटल ब्लॉक पर ध्यान केंद्रित किया और कैलिपर से मोटे तौर पर उसके सभी किनारों (क्यूबिकल ब्लॉक में 12 किनारे होते हैं) की लम्बाइयां नापीं। मैंने पाया कि ब्लॉक पूरी तरह क्यूबिकल नहीं था। उसकी लम्बाई के समानांतर किनारों और ऊंचाई के समानांतर किनारों की लम्बाइयों (lengths) में बहुत ही थोड़ा (मिलीमीटर के दशमलव में पहले स्थान पर एक या दो अंकों में) फ़र्क़ था। इसके अतिरिक्त उसके दो सतहों पर बहुत ही छोटे दो गढढे थे। यह गढढे ऊपर वेलनाकार (cylindrical) और नीचे कोनिकल (conical) थे। यह गढढे इतने छोटे थे कि इनको अक्सर लोग महत्व नहीं देते और नज़रंदाज़ (ignore) कर देते हैं।
      यहां पर मुझे समझने में देर नहीं लगी कि मुझसे क्या अपेक्षा की गयी थी। मैंने ब्लॉक की सभी १२ किनारों पर लम्बाई नापने, दोनों गढढों के रेडियस नापने, वेलनाकार गहराई नापने और कोनिकल भाग की गहराई नापने का निर्णय लिया। प्रत्येक नाप के लिए मुझे एक-एक तालिका बनानी थी और प्रत्येक रीडिंग 4 बार लेनी थी ताकि नाप में होने वाली त्रुटि को न्यूनतम (minimize) किया जा सके। इस प्रकार मुझे कुल 18 तालिकाएं बनाकर कुल 72 रीडिंग्स लेनी थीं। दूसरी ओर मेरे बैचमेट्स ने कुल तीन तालिकाएं (एक लम्बाई, एक चौड़ाई और एक ऊंचाई के लिए ) बनाने तथा कुल 12 रीडिंग्स लेने का निर्णय लिया। मेरे बैचमेट्स ने लगभग आधे घंटे में रीडिंग लेने का काम पूरा कर लिया। उसके बाद वे एक-एक करके डाक्टर रजत रे को रीडिंग्स चेक कराने के लिए ले जाने लगे। डाक्टर रजत रे ब्लॉक देखते और शीट पर टेबल देखते और प्रत्येक शीट पर रिपीट (repeat) शब्द लिखकर हस्ताक्षर करके बिना कोई टिप्पणी किये शीट लौटा देते। जब १०-१२ स्टूडेंट्स के साथ ऐसा हो चुका तब अन्य स्टूडेन्ट्स चिंता में पड़ गए तथा शीट डाक्टर रजत रे के पास ले जाने से रूक गए। एक्सपेरिमेंट प्रारम्भ करने के लगभग ढाई घंटे बाद मेरा प्रयोग पूरा हुआ और मैं अपना ब्लॉक और रीडिंग शीट लेकर डाक्टर रजत रे के पास गया। उन्होंने ब्लॉक देखा और शीट पर टेबल कॉउंट कीं। दो टेबल की रीडिंग्स चेक कीं और इसके बाद शीट पर वेरीफाइड शब्द लिख कर शीट अपने पास रोक कर सभी स्टूडेंट्स को अपने पास बुला कर उनसे कहा :
"Look here. Lacs of students perform experiments every day in this country. This involves lot of money and years of time every day. What counts is what they learn. Even if they perform experiments correctly, it does not add anything new to the glory of the nation. But If they do not learn then it is shere wastage of time and money and a great loss to the nation. What they should know first is that they should know what is expected from them. You were expected to behave like a student of B. Tech. and not like a student of seventh or eighth class. What you have done, you have repeated what you had done 6-7 years back. Had you been student of seventh or eighrth class, I would have accepted gladly. But for being a student of B. Tech. it is sign of immaturity."
      देखिये ! देश में प्रतिदिन लाखों छात्र प्रयोग करते हैं। जिसमें ढेर सारा धन और प्रत्येक दिन वर्षों का समय व्यय होता है। मायने यह रखता है कि उन्होंने क्या सीखा। उनके ठीक प्रकार से प्रयोग करने पर भी देश के सम्मान में कोई बृद्धि नहीं होती। किन्तु यदि वे सीखते नहीं हैं तब यह मात्र समय और धन की बर्बादी और देश को होने वाली क्षति है। पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि उनसे क्या अपेक्षित है। उनसे बी. टेक. के विद्यार्थी की तरह व्यवहार की अपेक्षा की गयी थी जब कि उन्होंने कक्षा 6-7 के विद्यार्थियों की तरह व्यवहार किया है। उन्होंने वह किया है जो वह 6-7 वर्ष पूर्व ही कर चुके थे। अगर आप कक्षा छह या सात के विद्यार्थी रहे होते तब मैंने इसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर लिया होता। किन्तु बी. टेक. का स्टूडेंट होने के लिए यह अपरिपक्वता की निशानी है।
      इसके बाद डाक्टर रजत रे ने मेरी शीट दिखाकर पूछा कि क्या उनमें से किसी ने ऐसा किया है? किसी ने उत्तर नहीं दिया। इस पर उन्होंने मुझे छोड़ कर सभी को अगले सप्ताह प्रयोग ठीक से करने का निर्देश दिया।
      डाक्टर रजत रे ने अपने विद्यार्थियों से जो कुछ कहा उसमें मुझे दो वाक्य अच्छे लगे। प्रथम तो यह कि बी. टेक. प्रथम वर्ष के छात्रों ने जो कुछ किया अगर वही कक्षा 6 या 7 के विद्यार्थियों ने किया होता तब इसे उचित मान लेते, दूसरे यह कि बी. टेक. प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों ने जो कुछ किया वह उनकी अपरिपवता की निशानी थी। डाक्टर रजत रे के इन शब्दों में एक बहुत बड़ा सन्देश छिपा हुआ है। यह सन्देश हम सब के व्यवहारिक जीवन के लिए बहुत महत्व का है।
      अगर आप किसी विभाग में ५-६ वर्ष का कार्य करने का अनुभव रखने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी हैं और आपके अधीनस्थ कनिष्ठ अधिकारी और कर्मचारी कार्य करते हैं। आप समय- समय पर इन अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करते हैं। तब ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्य का मूल्यांकन विभाग में उनके कार्य करने के अनुभव के परिपेक्ष्य में किया जाना चाहिए। क्योंकि कनिष्ठ अधिकारियों और कर्मचारियों से उनके अनुभव के आधार पर ही कार्य की अपेक्षा की जा सकती है। आप अपने अनुभव के आधार पर उनसे कार्य की अपेक्षा नहीं कर सकते। यही आपके बच्चो के कार्य मूल्यांकन के लिए भी लागू होता है। आप पोस्ट ग्रेजुएट हैं और आप जो कुछ सूर्य के बारे में जानते हैं उसके जाने जाने की अपेक्षा आप अपने कक्षा 5 में पढ़ रहे बच्चे से नहीं कर सकते।
      बचपन बहुत अच्छा होता है, युवा होने पर भी बचपन की यादें सुख देतीं हैं किन्तु जहां तक युवावस्था में आपकी कार्य पद्यति, आपकी आदतों, आपके ज्ञान एवं आचरण के सम्बन्ध में है इनमें यदि बचपन की झलक दिखती है तब यह गंभीर दोष है। समाज आप से परिस्थितियों में श्रेष्ठ और विवेक से परिपूर्ण कार्य और निर्णय की अपेक्षा करता है। आपके उच्चाधिकारी भी आपके कार्य का मूल्यांकन करते समय आपसे अपेक्षित के अनुसार ही मानदंड बनाकर कार्य का मूल्यांकन करेंगे। जो कुछ आप से अपेक्षित है वही आपका दायित्व भी है। मेरा विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को वह करना चाहिए जो उससे अपेक्षित है और प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से उसकी अपेक्षा करनी चाहिए जो ऐसे दूसरे व्यक्ति से अपेक्षित है।
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विनाशकारी क्रोध Anger : The Destroyer

      क्रोध एक मानसिक विकार है। क्रोधित व्यक्ति की अन्य कुछ भी सोचने की क्षमता समाप्त हो जाती है। क्रोधित अवस्था में व्यक्ति जो कुछ कर रहा होता है उसके परिणामों को सोच पाने में असमर्थ होता है। क्रोध में वह ऐसे गंभीर अपराध भी कर सकता है जिससे उसका भरा-पूरा हँसता-खेलता परिवार भी उजड़ सकता है, उसके बच्चे अनाथ हो सकते हैं। स्वयं के अपराधी होने से उसे सजा भी हो सकती है जिसके परिवारीय सदस्यों को भयानक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। उसका व्यापर या रोजगार समाप्त हो जाता है और इस सबसे अलग उसे और उसके परिवार के सदस्यों को समाज का तिरस्कार भी सहन करना पड़ता है।
      बच्चों पर माता-पिता के क्रोध के भयंकर परिणाम होते हैं। बच्चों के अन्दर डर बैठ जाता है, क्रोध करने वाले माँ या वाप के प्रति बच्चों के अन्दर घृणा का भाव घर कर जाता है। उनका अध्ययन और अन्य कार्यों में जी नहीं लगता। अपनी आवश्यकताओं को भी माँ - वाप को बताने से कतराने लगते हैं। इन सब का प्रभाव यह होता है कि बच्चे का जीवन बर्वाद हो जाता है। इस सब के लिए माँ-वाप का क्रोध जिम्मेदार होता है। बच्चों के सामने अगर पति अपनी पत्नी पर भी क्रोध करता है तब भी बच्चों पर यही प्रभाव पड़ते हैं।
      मित्रो ! जब मैं किसी व्यक्ति को क्रोधित होते देखता हूँ तब मैं बहुत ही दुःखी और भयभीत हो जाता हूँ। मेरा मानना है कि क्रोध मानवता के लिए बहुत बड़ा श्राप है। इसका निदान खोजा जाना अत्यंत आवश्यक है। मेरे द्वारा फेसबुक पर पब्लिश किये गए आर्टिकल्स "Cause of Our Anger", "Where Battle is Won by Quitting the Battlefield" और "क्रोध पर नियंत्रण (बात पते की -१२)" क्रोध के प्रति मेरी भड़ास की ही उपज हैं। गत कुछ समय से मैं प्रयासरत हूँ कि कुछ ऐसा आपके सामने ला सकूँ जो स्वयं के क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक हो सके। किन्तु अब तक कुछ ठोस तलाश नहीं कर पाया हूँ। इतना अवश्य समझ पाया हूँ कि प्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि क्रोध आये ही नहीं, फिर भी अगर कभी क्रोध आता है तब कुछ ऐसा होना चाहिए जो हमारे अन्दर यह सोच पैदा कर सके कि हमें क्रोध नहीं करना है। ऐसा कुछ हो जो रेड कार्ड (Red Card) सावित हो सके।
      मेरा मानना है कि मेरे अधिकाँश मित्रो को क्रोध नहीं आता होगा। ऐसे मित्रों को मैं प्रणाम करता हूँ। किन्तु क्रोध के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है। मैं अपने उन मित्रो जो कभी-कभी क्रोध के शिकार हो जाते हैं से अनुरोध करना चाहूँगा कि वे क्रोध से छुटकारा पाने के लिए एक संकल्प लें कि उन्हें क्रोध से बचना है। संकल्प का अपनी दैनिक प्रार्थना में स्मरण करें। कोई चिन्ह रेड कार्ड के रूप में अपने साथ रखें जो उन्हें याद दिलाता रहे की उन्हें क्रोध नहीं करना है। प्रत्येक दिन सोने से पहले यह विचार करें कि क्या वे उस दिन क्रोध के शिकार हुए हैं? यदि हाँ, तब अपनी गलती मानकर इस पर शर्मिंदा हों। जिस व्यक्ति पर हम क्रोध करते हैं वह आहत होता है। हमें समय पाकर उससे Sorry कहकर अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए। इससे रिश्ते पुनः निर्मल और नार्मल हो जाएंगे और आपके संकल्प को भी बल मिलेगा।
जिन मित्रों को क्रोध नहीं आता, उनसे मेरा निवेदन है कि ऐसे लोगों की सहायता करें जिन्हें क्रोध आता है ताकि ऐसे लोग क्रोध विकार से छुटकारा पा सकें। उनके द्वारा मानवता की यह बहुत बड़ी सेवा होगी। ऐसे मित्रों का मैं जीवन भर आभारी रहूँगा।
साभार।
केशव दयाल।
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Sunday, August 10, 2014

THE WILLPOWER


         इच्छाओं की उत्पत्ति हमारे मष्तिष्क के अन्दर होती है। कुछ इच्छायें कम तीब्रता की हो सकती हैं वहीं पर कुछ इच्छाएं अधिक तीब्रता की भी हो सकतीं हैं। अपेक्षाकृत अधिक तीब्रता वाली इच्छाएं कम तीब्रता वाली इच्छाओं पर प्रबल होती हैं। अधिक तीब्रता वाली इच्छाओं की उपस्थिति में अल्प तीब्रता वाली इच्छाएं दब कर रह जातीं हैं या समाप्त हो जाती हैं।




       मान लीजिये आप धूम्रपान करते हैं। आपके पिता जी की जानकारी में यह तथ्य आता है। वे आपको समझाते हैं कि धूम्रपान से कैंसर हो सकता है, आपको धूम्रपान छोड़ देना चाहिए। आपके अंदर धूम्रपान छोड़ देने की इच्छा उत्पन्न होती है। आप कुछ समय तक धूम्रपान नहीं करते हैं किन्तु कुछ समय बाद आपके अंदर धूम्रपान करने की इच्छा उत्पन्न होती है। आप धूम्रपान करने की इच्छा को रोक नहीं पाते और पुनः धूम्रपान करना प्रारम्भ कर देते हैं। यहां पर स्पष्ट रूप में आपकी धूम्रपान छोड़ देने की इच्छा पर धूम्रपान करने की इच्छा प्रबल प्रमाणित हुयी और उसके सामने कमजोर इच्छा का दमन हो गया। अब मान लीजिये कि आप एक धूम्रपान से होने वाली क्षति से सम्बंधित एक लेख पढ़ते हैं। आपके अन्दर एक इच्छा जन्म लेती है कि आप किसी भी दशा में धूम्रपान नहीं करेंगे। आप दृढ़ता के साथ अपने से वादा करते हैं कि आप किसी भी दशा में धूम्रपान नहीं करेंगे। कुछ समय तक तो ठीक चलता है किन्तु थोड़े समय बाद आपके अन्दर धूम्रपान करने की इच्छा जाग्रत होती है। आप अपने संकल्प को याद करते हैं और निर्णय लेते हैं कि आप धूम्रपान नहीं करेंगे। आप धूम्रपान करने की नयी उत्पन्न हुयी इच्छा को दबाने में सफल हो जाते हैं। यहां पर यदि हम ध्यान दें तब हम देखते हैं कि -
(१) पहले मामले में धूम्रपान की करने की इच्छा धूम्रपान न करने की इच्छा पर प्रबल प्रमाणित हुयी और प्रबल इच्छा की जीत हुयी।
(२) दूसरे मामले में धूम्रपान न करने की इच्छा धूम्रपान करने की इच्छा पर प्रबल प्रमाणित हुयी और प्रबल इच्छा की जीत हुयी। 
(३) पहले मामले में धूम्रपान न करने की इच्छा का आपके अंदर जन्म आपके पिता जी के सुझाव पर हुआ था। दूसरे मामले में धूम्रपान न करने का आपका अपना लिया हुआ संकल्प था।

      आपने अनुभव किया होगा कि हमारे बीच कुछ लोग ऐसे भी होते है जो किसी कार्य विशेष को करने की इच्छा रखते हैं और कार्य का ठीक से शुभारम्भ करते हैं किन्तु कार्य करने के दौरान दिक्कतें आने पर उनके अन्दर कार्य छोड़ देने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और वे यह सोच कर कार्य करना छोड़ देते हैं कि यह काम उनसे नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जिनके अन्दर उसी कार्य को करने के दौरान वही दिक्कतें आने पर उनके मन में यह इच्छा एक विकल्प के रूप में आये कि कार्य छोड़ दिया जाए किन्तु उनके कार्य पूरा करने की इच्छा नयी इच्छा पर हावी हो जाय और नयी इच्छा विलुप्त हो जाय। इन दो श्रेणियों के अतिरिक्त कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके सामने वही दिक्कतें आने पर उनके मन में काम छोड़ देने की इच्छा उत्पन्न ही नहीं होती। वे अविचलित रह कर ऐसी दिक्कतों का धैर्य के साथ सामना करते हैं और उन पर विजय पाकर आगे बढ़ते जाते हैं। अगर आप समान परिस्थितयों में समान बुद्धि और कौशल वाले व्यक्तियों को भी लेकर यह प्रयोग करें तब भी आपको उपरोक्त तीनों श्रेणियों के व्यक्ति मिल जाएंगे। यदि हम कारणों का विश्लेषण करें तब हम देखते हैं कि -
(A) पहली श्रेणी के व्यक्तियों के सामने दिक्कतें आने पर कार्य पूरा करने की इच्छा कार्य छोड़ देने की नयी इच्छा के सामने समाप्त हो गयी।
(B) दूसरी श्रेणी के व्यक्तियों के सामने दिक्कतें आने पर कार्य छोड़ देने की नयी इच्छा उत्पन्न तो हुयी किन्तु कार्य करने की इच्छा के सामने कमजोर साबित हुयी और विलुप्त हो गयी। 
(C) तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों के सामने दिक्कतें आने पर उनके मन में कार्य छोड़ देने की इच्छा ने जन्म ही नहीं लिया, उनके मन में केवल कार्य पूरा करने की इच्छा ही रही।

      उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि इच्छाओं में तीब्रता होती है और प्रबल इच्छा कमजोर इच्छाओं पर विजय पाती है। अगर हम कोई लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा करें और हमारी यह इच्छा इतनी प्रबल हो कि लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के रास्ते में यदि कोई अन्य इच्छाएं उत्पन्न होतीं हैं तब उन सब पर विजय पा ले, तब लक्ष्य प्राप्त करने की हमारी इच्छा दृढ़ इच्छा कहलायेगी। यह हमारी दृढ़ इच्छा की शक्ति ही हमारी इच्छाशक्ति समझी जा सकती है। इच्छाशक्ति से अभिप्राय अपने मन (अंतरात्मा) की एक ऐसी शक्ति या ताक़त से होता है जो अपने द्वारा की गयी किसी ख़ास इच्छा को पूरा करने के लिए किसी की न सुने और वह तब तक प्रबलतम इच्छा के रूप विद्द्यमान रहकर कार्य करती रहे जब तक कि वह इच्छा या कार्य पूर्ण न हो जाए।

       इच्छाशक्ति को संकल्प, आत्म-नियंत्रण, आत्म-संयम आदि नामों से भी जाना जाता है। मनोवैज्ञानिक इसे इच्छाशक्ति और आत्म नियंत्रण जैसे विशिष्ट नामों से सम्बोधित करते हैं। इच्छाशक्ति हमें किसी दीर्घकालिक कार्य को पूरा करने के लिए अल्पकालिक लालच, विरोध या संतुष्टि की इच्छाओं को समाप्त करने या आस्थगित करने, अवांछित विचार, भावना या आवेग पर विजय पाने, शरीर में धैर्य संज्ञानात्मक प्रणाली को काम करने, स्वं के चेतन (Conscious) द्वारा स्वं पर नियंत्रण करने की क्षमता प्रदान करती है।

       इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है। छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रासदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है, दुष्कृत्य करने का अपराधी हो जाता है।

      आपने मुहाबरा "जहाँ चाह वहां राह" (Where there is will, there is way) सुना होगा। यह इच्छाशक्ति ही है जिसके रहते एक पैर वाली लड़की कुशल नृत्यांगना बनकर भारत नाट्यम नृत्य करती है। कोलम्बस नयी दुनिया की खोज करता है, विल्मा रुडोल्फ (Wilma Rudolph) जो बचपन में पोलियो की शिकार हुयी थी और अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती थी। जिसके बारे में चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि वह अपने पैरों पर कभी नहीं खड़ी हो सकेगी, किन्तु यह उसकी माँ की इच्छाशक्ति ही थी जिसने अपनी बेटी को उसके अपने पैरों पर खड़ा करने के प्रयास जारी रखे और 7 साल के अनवरत प्रयासों के बाद लड़की अपने पैरों पर खड़ी होने के काबिल ही नहीं हुयी वल्कि नंगे पैरों बास्केट बाल खेलने लगी और आगे चलकर उसने तीन बार ओलम्पिक खेलों में दौड़ (Race) में पदक भी जीते। महात्मा गांधी जी का मानना था कि किसी भी कार्य को करने के लिए लगाई गयी ताक़त या शक्ति मनुष्य की शारीरिक क्षमता से ना आकर उसके अदम्य इच्छाशक्ति से आती है।

        यह व्यवहारिक सत्य है कि स्वस्थ होने की इच्छाशक्ति रखने वाला एक रोगी उन रोगियों जिनके अंदर स्वस्थ होने की इच्छाशक्ति का आभाव होता है की तुलना में कम समय में ही स्वस्थ हो जाता है। जब किसी व्यक्ति में जीने की इच्छाशक्ति समाप्त हो जाती है तब उसे कोई चिकित्सक या दबाइयाँ स्वस्थ नहीं कर सकती हैं। चिकित्सक यह सोच कर परेशान हो जाते हैं कि जो दबाइयाँ समान परिस्थितियों में अन्य मरीजों पर कारगर हो रहीं हैं वही दबाइयाँ किसी एक मरीज पर विल्कुल कारगर नहीं हो रहीं हैं।

        भारतीय प्रशासनिक सेवा में पद पाने की इच्छा उन सभी में होती है जिन्होंने इसके बारे में सुन रखा है, आवश्यक शैक्षिक योग्यता रखते हैं और जिन्होंने प्रतियोगिता परीक्षा का फॉर्म भर रखा है। आप जानते हैं इनमें से अनेक युवक परिक्षा में बैठते ही नहीं। कुछ प्रारंभिक परीक्षा का बैरियर ही पास नहीं कर पाते। वास्तव में होता क्या है अधिकाँश लोगों में आई ए एस बनने की इच्छा मात्र होती है, उनके अन्दर इच्छाशक्ति  का अभाव होता है।

इच्छाशक्ति के सम्बन्ध में लाख टके के प्रश्न यह हो सकते है कि -
(१) क्या इच्छाशक्ति व्यक्ति की जन्म जात उपलब्धि है ?
(२) क्या इसको जागृत और प्रेरित किया जा सकता है?
(३) यदि जागृत और प्रेरित किया जा सकता है तब कैसे?

      मनोविज्ञान के अनुसार इच्छाशक्ति या संकल्प (Will या Volition) वह संज्ञानात्मक प्रक्रम है जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य को किसी विधि का अनुसरण करते हुए करने का प्रण करता है। संकल्प मानव की एक प्राथमिक मानसिक क्रिया है। इस आधार पर यह मान सकते हैं कि स्वस्थ मष्तिष्क में इच्छाशक्ति का जन्म होता है। स्वस्थ मष्तिष्क तो जन्म जात हो सकता है किन्तु मष्तिष्क में इच्छाशक्ति जन्म-जात नहीं है। जहाँ तक इच्छाशक्ति को अभिप्रेरित और जाग्रत किये जाने के सन्दर्भ में है मेरा मानना है कि प्रारम्भ में इस संकाय को अभिप्रेरित करने की आवश्यकता होती है किन्तु कुछ अभ्यास के उपरान्त यह क्रिया उपयुक्त वातावरण में स्वचलित हो जाती है।

        किसी-किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ लोग यह कहते हैं कि उसकी इच्छाशक्ति बहुत शक्तिशाली है। अगर उस व्यक्ति से कारण पूछा जाय कि उसकी इच्छाशक्ति किस प्रकार इतनी शक्तिशाली हुयी तब वह स्वं इसका कारण नहीं बता पाता। वास्तव में इच्छाशक्ति को अभिप्रेरित करने में आत्म-नियंत्रण का विशेष योगदान होता है। इच्छाशक्ति का दूसरा नाम भी आत्म-नियंत्रण है। कुछ मामलों में हमारे लालन-पालन में हमारे माता -पिता जो संस्कार देते हैं उनमें आत्म -नियंत्रण की प्रक्रियाएं भी शामिल रहतीं है। इस कारण आयु बढ़ने पर कुछ व्यक्तियों में इच्छाशक्ति प्रबल दिखाई देती है। इच्छाशक्ति का जागरण और अभिप्रेरण भी आत्म-नियंत्रण और एकाग्रता से ही किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण हमें तीन दिशाओं में करना होता है :
(१) शारीरिक आत्म-नियंत्रण 
(२) मानसिक आत्म-नियंत्रण 
(३) संसारिक आत्म-नियंत्रण।

       शारीरिक आत्म-नियंत्रण के अंतर्गत हमें अपने को पूर्णतया स्वस्थ रखना होता है। आपने यह कहावत अवश्य ही सुनी होगी "A sound mind in a sound body". शारीरिक आत्म-नियंत्रण में अपेक्षित होता है कि आप संतुलित आहार लें, हल्का और सुपाच्य भोजन करें। अधिक कड़ुआ, तीखा, चटपटा और अपाच्य भोजन न करें। न अधिक सोएं और न अधिक जागें, उचित व्यवधान रहित पर्याप्त नींद अवश्य लें। यदि प्राणायाम नहीं भी करते हैं तब प्रतिदिन कुछ एक्सरसाइज अवश्य करें। मानसिक आत्म-नियंत्रण में काम, क्रोध, लोभ, मद, अहंकार आदि से दूर रहकर सतत विनम्र बने। अहंकार और झूठ से बचें। इन व्यसनों से बचने के लिए जब भी इनसे सम्बंधित इच्छाएं आपके मष्तिष्क में जन्म लें उनसे आप तुरंत मुंह मोड़ लें, उनकी पूरी तरह अनसुनी कर दें। संतोष धारण करें, क्षमा को अपनायें, कम बोलें, मधुर बोलें, वाणी पर नियंत्रण रखें। एकाग्रता (Concentration) का अभ्यास करें। सांसारिक आत्म-नियंत्रण में सांसारिक प्रलोभनों से बचें। दूसरों से वादा सोच-समझकर करें और वादा करने के बाद उसे समय से निभाएं। कभी किसी से छल नहीं करें। सभी से प्रिय बोलें।

        मेरे विचार से इस प्रकार से आत्म-नियंत्रण रखे जाने पर इच्छाशक्ति अवश्य प्रबल होगी और हर क्षेत्र में सफलता हमारे हाथ लगेगी। इसी के साथ मैं अपनी बात इस आशा के साथ समाप्त कर रहा हूँ कि यह आर्टिकल इच्छाशक्ति को अभिप्रेरित करने में सहायक होगा।

Thursday, June 26, 2014

OMNIPRESENCE OF GOD

       I am not prepared to accept omnipresence of God with exceptions. Are you?
If not, then – being a Hindu, Muslim, Christian, Sikh or a follower of any other religion, do you find your God and offer your prayers to Him in a place built by followers of a religion other than the religion you follow?

If not, then - how you can say that your claim of omnipresence of God is not a lie or a foppishness?

Thursday, May 22, 2014

QUALITIES OF A GOOD CIVIL SERVANT

कामर्सियल टैक्स विभाग के मेरे मित्रो !
आप सभी राजपत्रित अधिकारी हैं , आपका चयन लाखों में से हुआ है।  राज्य सरकार ने आपको महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा है।  मेरी इक्षा और आप सब के लिए शुभकामना है कि आप एक अच्छे अधिकारी बने, आप अपने अच्छे कार्य और आचरण से अपने  उच्चाधिकारियों का विश्वास जीत कर उनका स्नेह पायें, नियमित रूप से समय पर प्रोन्नति पायें,  आप अपने अधीनस्थ  कार्यरत अधिकारियों, कर्मचारियों, आगंतुकों और संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों से सम्मान पायें और समाज के लिए जिम्मेदार व्यक्ति बनें। किन्तु यह सब कैसे सम्भव  हो सकता है? इस उद्देश्य से मैं अपने अनुभव के आधार पर यहां कुछ मार्गदर्शक विन्दुओं की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने की अनुमति चाहता हूँ। 
१.  आप आत्म-विश्वास और आत्म -सम्मान अर्जित करें। 
२. आप आचरण में विनम्रता और शालीनता का समावेश करें। माना आप किसी को गुड़ (मिठाई या sweet) नहीं दे सकते पर गुड़ जैसी मीठी बात तो कर सकते हैं ।  
३. अपने कार्य के सम्बन्ध में जो आगंतुक आप से मिलने आते हैं उनको अकारण प्रतीक्षा न करायें।  अगर आप किसी अन्य कार्य में व्यस्त हैं अथवा आगंतुक से मिल पाने में विलम्व होने की संभावना है तब आगंतुक को तदानुसार स्वम  अथवा कर्मचारी के माध्यम से सूचित अवश्य कर दें। 
४. किसी भी मामले में यदि आगंतुक के हितों के विपरीत आप कोई आदेश पारित कर रहे हैं तब आदेश में कारणों का उल्लेख अवश्य करें।  यहाँ तक मामलों की सुनवाई स्थगित किये जाने के लिए प्रार्थना-पत्रों को अस्वीकार करते समय भी कारण का उल्लेख अवश्य करें। लॉ ऑफ़ नेचुरल जस्टिस के सिद्धांत के आधार जहां सम्बंधित व्यक्ति के हितों के विपरीत निर्णय पारित होना है वहां उसे सुनवाई का अवसर अवश्य दिया जाय।  इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रार्थना-पत्र देने वाले को यह जानने का हक़ है कि उसके प्रार्थना पत्र पर क्या निर्णय हुआ और यदि विपरीत निर्णय लिया गया तब इसका कारण क्या रहा है।   
५. आपका मुख्य कार्य विभिन्न कर अधिनियमों, वैट एक्ट , एंट्री टैक्स एक्ट और सेंट्रल सेल्स टैक्स एक्ट  के अंतर्गत कार्यवाहियों पर आधारित है। इनके प्राविधानों की यथोचित जानकारी के अभाव में विधि सम्मत निर्णय लिया जाना सम्भव नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि आप इन एक्ट्स के प्राविधानों का ठीक प्रकार से अध्ययन कर लें।  माननीय उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों का अध्ययन करते रहें। विन्दु  जिस पर निर्णय लिया जाना है से सम्बंधित प्राविधान का यदि आपने अध्ययन नहीं किया है तब प्राविधान का अध्यन करने के बाद ही निर्णय दें। अगर आवश्यकता समझें तब अपने वरिष्ठ अधिकारी से मार्गदर्शन ले लें अथवा अपने ऐसे सहयोगी अधिकारियों जो विधिक प्राविधानों की समुचित जानकारी रखते हों से विचार विमर्श कर लें। विधिक प्राविधानों में जब कोई नए संशोधन आते हैं या जब कोई नयी विज्ञप्ति आती है या जब कोई परिपत्र आता है तब उसका अध्ययन सावधानीपूर्वक करें। 
६. आपके प्रत्येक निर्णय से यह परलक्षित होना चाहिए कि आपने न्याय किया है आपका निर्णय न्याय संगत है। 
७. आपका कोई निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रषित नहीं होना चाहिए। 
८.  कार्यालय आने के समय का ध्यान रखें। विलम्ब से कार्यालय आना किसी भी स्थित में क्षम्य नहीं है आपके देर तक कार्यालय में बैठने पर कार्यालय आने में विलम्ब क्षमा नहीं किया जा सकता है। यदि किसी दिन अपरिहार्य  कारणवश विलम्ब संभावित है तब इसकी सूचना अपने कार्यालय और निकटस्थ उच्चाधिकारी को दूरभाष पर अवश्य दे दें। 
९. आप अपने अधीनस्थों पर यथोचित नियंत्रण रखें।  जो कार्य आपके द्वारा किया जाना अपेक्षित है उसको किसी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी से न करवायें। अन्यथा आप अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियंत्रण का नैतिक दायित्व खो देंगे।   
१०. समय समय पर अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्य की मॉनिटरिंग भी करते रहें।  अगर कर्मचारी को किसी कार्य के करने में कठिनाई आ रही है तब उसे डाँटने फटकारने के बजाय उसकी कठिनाई जाने और उसका निवारण करें।  अगर कोई वरिष्ठ कर्मचारी उपलब्ध हो तब उसको कनिष्ट कर्मचारी की सहायता के लिए निर्देशित कर दें। 
 ११.  अगर आप चाहते हैं की कर्मचारी अपनी पूर्ण क्षमता और दक्षता से कार्य कर सकें तब कर्मचारियों का तनाव मुक्त रहना भी आवश्यक है। इसके लिए कर्मचारियों को करीब से भी जानने की आवश्यकता होती है साथ ही उनके अच्छे और समय से किये गए कार्य की सराहना भी आवश्यक होती है।   
१२. कभी कभी कुछ कार्यालयों में कुछ ऐसे कर्मचारी भी मिल जाते हैं जो न तो खुद काम करना चाहते हैं और न ही अन्य कर्मचारियों को उनका काम ठीक प्रकार से करने देते हैं।  ऐसे कर्मचारियों द्वारा की गयी त्रुटियों पर उनका स्पस्टीकरण लेकर अभिलेख पर रखना चाहिए।  प्रारम्भ में चेतावनी व्यक्तिगत पत्रावली से देनी चाहिये  किन्तु यदि कर्मचारी फिर भी अपने कार्य में सुधार नहीं करता है तब उसे दण्डित किया जाना चाहिए और उसके बारे में उच्चाधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिये। 
१३. आपके निर्णयों में एकरूपता होनी चाहिए। इससे आपकी निष्पक्षता प्रमाणित होती है. सामान प्रकार के मामलों में सामान प्रकार के निर्णय संवैधानिक आवश्यकता है।  यदि परिस्थितियां भिन्न हैं तब भिन्न भिन्न निर्णय लिए जा सकते हैं। माननीय उच्चतम न्यायलय या उच्च न्यायलय के निर्णय को लागू करते समय निर्णय को पूरा पढ़ें और समस्त परिस्थितयों पर विचार करें। 
१४. सम्परीक्षा आपत्तियों से बचें।  अनेक मामलों में केंद्रीय विक्रय कर अधिनियम के अंतर्गत पंजीयन प्रमाण पत्र (फॉर्म - बी ) जारी करते समय फॉर्म- सी का प्रयोग त्रुटिपूर्ण ढंग से अनुमन्य कर दिया जाता है। व्यापारी इसका फायदा उठाता है किन्तु उसके विरुद्ध कार्यवाही संभव नहीं रह जाती है। कालांतर में सम्परीक्षा दाल द्वारा आपत्ति उठायी जाती है।  अधिक राजस्व निहित होने पर मामला पब्लिक एकाउंट्स कमिटी में पेश होता है जहाँ पर उच्चाधिकारिर्यों को त्रुटि करने वाले अधिकारी के दण्डित हो जाने के बाद भी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।  यही सब कर लगने से छूट जाने वाले मामलों में भी होता है। 
१५. कार्य करने में हड़बड़ी न करें। आप अर्ध न्यायिक अधिकारी हैं। राज्य सरकार का राजस्व सुरक्षित रखकर उसकी समय से वसूली आपका दायित्व है इसे धैर्य और निष्ठां के साथ पूरा करें।