मित्रो !
भोजन में पाये जाने
वाले प्रोटीन, फैट, कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन और मिनरल्स
हमारे शरीर के लिए पोषक तत्व होते हैं। भोजन में इन पोषक तत्वों (nutrients) के अतिरिक्त शरीर
के लिए अनुप्रयोज्य अपशिष्ट पदार्थ (waste materials) उपलब्ध रहते हैं। पाचन क्रिया के अंतर्गत पोषक
पदार्थ और अपशिष्ट पदार्थ अलग किये जाते हैं और शरीर की विभिन्न ग्रंथियों से
मिलने वाले एन्जाइम्स की सहायता से पोषक तत्व ऐसी अवस्था में परिवर्तित किये जाते
हैं कि वे पाचन तंत्र द्वारा अवशोषित कर शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचाये जा सकें।
भोजन को अत्यंत छोटे कणों (fine particles) में बदलने और उससे पोषक
तत्वों और अपशिष्ट पदार्थों के अलग करने का कार्य आमाशय में होता है। यध्यपि आमाशय
में क्रिया के उपरांत भोजन का स्वरुप अर्ध द्रव (semi liquid) हो जाता है किन्तु
उसमें पोषक तत्व और अपशिष्ट पदार्थ के कण अलग-अलग होते हैं।
संस्कृत भाषा में आमाशय को जठर कहते हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पद्यति
के अनुसार हमारे आमाशय में हमारे द्वारा भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने वाले
पदार्थों को पचाने के लिए एक प्रकार की अग्नि होती है जिसे जठराग्नि कहा जाता है।
जैसे ही भोजन ग्रास नाली से होकर आमाशय में पहुंचता है जठराग्नि इस पर अपना कार्य
करना प्रारम्भ कर देती है। आमाशय में उपलब्ध जठराग्नि में उपलब्ध जठरीय रस की भोजन
पर क्रिया द्वारा प्रोटीन अंततः पेप्टोन (peptone) में बदल जाते हैं।
जठरीय रस में उपलब्ध तीन एंज़ाइम में से एक एंज़ाइम कारबोहाइड्रेट को गलाता है,
दूसरा
एंज़ाइम वसा को गला देता है तथा तीसरा एंज़ाइम, जिसमें जीवाणुनाशक
शक्ति भी होती है, दूध को फाड़ (curding of milk) देता है।
आमाशय में होने वाली पाचन क्रिया के फलस्वरूप आहार अर्ध द्रव (semi
liquid) रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी रूप में यह एक छिद्र द्वारा
होते हुए ग्रहणी में पहुंचता है जहां पर अग्नाशय से आने रस जिसमें एंजाइम होते हैं
तथा यकृत से आने वाला पित्त पाचन क्रिया में भाग लेते हैं। ग्रहणी से पाचित (digested) भोजन
जिसका स्वरुप गाढ़े शहद के समान होता है क्षुद्रांत्र (small
intestine) में जाता है। क्षुद्रांत्र का कार्य विशेषतया अवशोषण (absorption)
का
है। इस भाग में पोषक पदार्थ अवशोषित कर लिए जाते हैं। शेष बचा तरल पदार्थ जिसमें
अपशिष्ट पदार्थ और पानी होता है आगे बृहदान्त्र (large intestine) में चला जाता है जहां
इससे पाने अवशोषित कर अलग कर दिया जाता है और मल आगे धकेल दिया जाता है। हमारे शरीर
में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि हमारे द्वारा लिए गए भोज्य पदार्थ (eadibles) पर जठराग्नि के द्वारा की जाने वाली क्रिया (process) के बिना हमारा शरीर खाए गए पदार्थ से पोषक तत्व शरीर में
अवशोषित कर सके। इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि यदि हमारे शरीर में जठराग्नि न हो तब कुछ भी खाने पर हमारे शरीर को पोषक तत्व नहीं
मिल सकते।
जठराग्नि के अभाव में आमाशय में भोजन पचता नहीं है बल्कि भोजन के सड़ने (fermentation)
की
क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। परिणामतः शरीर को पोषक तत्व तो नहीं ही मिलते, उल्टे भोजन के सड़ने के फलस्वरूप गैस, कब्ज,
अम्लता,
उलटी,
सिर
दर्द, शरीर में बेचैनी, आलस्य,
काम
में अरुचि होने, आदि की शिकायतों के साथ शरीर के
लिए हानिकारक अनेक प्रकार के विषैले पदार्थ (toxins) बन जाते हैं। यह
विषैले पदार्थ शरीर में अवशोषित होकर शरीर के अन्य भागों में फ़ैल कर अन्य
बीमारियों को जन्म देते हैं।
वास्तव में जठराग्नि शरीर में उत्पन्न होने वाले हाइड्रोक्लोरिक एसिड
और विभिन्न प्रकार के एन्जाइम्स से मिलकर बनती है। इसका प्रभाव ऊष्मा (Heat)
का
होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि पर पानी डालने से अग्नि बुझकर शान्त हो जाती
है उसी प्रकार जठराग्नि पर पानी, आइसक्रीम,
कोल्ड
ड्रिंक्स, शरबत, आदि डालने से जठराग्नि मन्द पड़
जाती है और भोजन पचाने का कार्य नहीं कर पाती। जठराग्नि संतुलित होने पर कोई
भी भोज्य पदार्थ आमाशय में पहुचने के लगभग पौने दो घंटे में खाये गए पदार्थ पर जठराग्नि अपनी क्रिया
पूर्ण कर लेती है। क्रिया ठीक तरह से संपन्न हो जाय, इसके लिए जरूरी हो
जाता है कि क्रिया के जारी रहते पानी, आइसक्रीम,
कोल्ड
ड्रिंक्स, शरबत, आदि न लिए जांय। खाने का तापमान शरीर के तापमान से कुछ अधिक होना चाहिए। खाने के
साथ चाय या कॉफी लेने में कोई हानि नहीं है। यदि खाने के दौरान भोजन को ग्रास नली
में आगे बढ़ाने में कठिनाई हो रही हो तब अल्प मात्रा में सामान्य तापक्रम का पानी
या गुनगुना पानी लिया जा सकता है। खाना खाने के लगभग डेढ़ घंटे बाद पानी पीना
उपयोगी माना गया है। यदि पानी खाना खाने के एक घंटे बाद भी लिया जाय तब भी जठराग्नि पर कोई विशेष प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता।
जठराग्नि ही हमें भूखे होने का अहसास दिलाती है। यदि जठराग्नि कमजोर
पड़ जाय तब हमें भूख कम लगने लगती है और स्वास्थ्य ख़राब होने लगता है। खाने की
इच्छा नहीं होती, यदि कुछ खा भी लिया जाय तब वह
पचता नहीं है। ऐसी स्थिति में यह सुझाव दिया जाता है कि या तो उपवास रखा जाय या
ऐसे फल या खाद्य पदार्थ लिए जांय जो आसानी से पच सकें। जठराग्नि को संतुलित करने
के लिए आयुर्वेदा में ताजा अदरक के छोटे-छोटे चिप्स नीबू के रस में डुबोकर,
काली
मिर्च और काला नमक छिड़क कर चूसना या खाना उपयोगी पाया गया है। खाने के बाद सौंफ
चबाना भी पाचन क्रिया में सहायक होता है। अजवायन से भी जठराग्नि में सुधार होता है।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह हो सकता है कि जठराग्नि के संतुलित होने
अथवा असंतुलित होने की पहचान क्या है? मेरे विचार से
संतुलित और असंतुलित जठराग्नि के निम्नलिखित प्रभाव या लक्षण होते हैं :
स्वस्थ अग्नि (जठराग्नि) के लक्षण
जीभ गुलाबी है।
अगले भोजन के लिए भूख
लगी है।
नियमित रूप से मल त्याग
होना।
बिना किसी आतंरिक दवाव
के मल त्याग होना।
मल पानी पर तैरता हुआ
केले की तरह मुलायम है।
मन की स्पष्टता।
चुस्ती -फुर्ती, त्वचा में कांति।
अच्छी ऊर्जा।
खराब अग्नि (जठराग्नि) के लक्षण
जीभ पर सफेद कोटिंग।
कमजोर या भूख की कमी।
मल त्याग में कठिनाई, मल त्याग के लिए आंतरिक
दवाव लगाने की आवश्यकता।
मल त्याग टुकड़ों-टुकड़ों
में होना तथा पानी में मल का डूब जाना।
धूमिल सोच।
सूजन, गैस, कब्ज, खट्टी डकार, मिचली आदि की शिकायत
होना।
सुस्ती, कार्य के प्रति
अनिच्छा।
ऊर्जा में कमी।
जठराग्नि को संतुलित
बनाये रखने के लिए क्या करें? (विस्तृत जानकारी के लिए
कृपया मेरे द्वारा लिखित अन्य पोस्ट्स, जिनका उल्लेख इस पोस्ट
के अंत में किया गया है, पढ़ने का कष्ट करें)
1.
किसी
भी प्रकार के तनाव पर शरीर की विभिन्न क्रियाओं और हार्मोन्स तथा एन्जाइम्स
उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों पर भी पड़ता है। फलस्वरूप जठराग्नि मंद हो जाती है और
भूख मर जाती है तथा जठराग्नि कमजोर पड़ जाती है। अतः भोजन करने से पूर्व या खाना
खाने के दौरान तनाव नहीं होना चाहिए।
2.
सूर्योदय
के समय से लगभग ढाई घंटे तक, मध्यान्ह में और सूर्यास्त
के समय जठराग्नि संतुलित रहती है। मध्यान्ह में इसकी तीब्रता सबसे अधिक होती है।
अतः सुबह का नास्ता सूर्योदय के ढाई घंटे के अंदर, दोपहर का भोजन 1 बजे से 3 बजे के बीच और शाम का
भोजन सूर्यास्त के पूर्व करना उपयुक्त रहता है। अगर शाम का भोजन सूर्यास्त के समय करना
संभव न हो तब रात्रि में सोने के दो-ढाई घंटे पूर्व भोजन अवश्य कर लेना चाहिए। भूख
न हो तब खाना नहीं लेना चाहिए।
3.
भोजन
रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने
वाला होना चाहिए। अत्यधिक तिक्त (कड़ुए), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने
वाले भोजन नहीं करने चाहिए। भोजन के साथ घी के प्रयोग से जठराग्नि प्रबल हो जाती
है। यदि शाम को दूध पीते हैं तब गरम दूध शाम का खाना खाने के एक घण्टे बाद पीना
चाहिए। मात्रा में खाना इतना खाना चाहिए जिससे आपको आवश्यक ऊर्जा मिल सके और खाना
खाने के बाद आपको भारीपन न लगे। आहार पदार्थों की सुंगध नाक से सूँघने और उनको
नेत्रों से देखने से रस का स्राव होने लगता है। यही कारण है कि उत्तम आहार
पदार्थों के बनने की गंध से ही भूख मालूम होने लगती है तथा उनको देखने से क्षुधा
बढ़ जाती है।
4.
खाना
खड़े होकर अथवा कोई अन्य काम करते हुए भोजन नहीं करना चाहिए। खाना हमेशा बैठकर खाना
चाहिए। वातावरण अधिक शोर-गुल वाला नहीं होना चाहिए, पास में ऐसी कोई
वस्तुएं न हों जिनसे भोजन करने वाले को अरुचि हो। खाना प्रसन्नचित कर देने वाले
वातावरण में खाना चाहिए।
विस्तृत जानकारी के लिए
निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत पोस्ट्स इसी ब्लॉग पर पढ़ीं जा सकतीं
हैं :
1.
भोजनान्ते
विषम वारी
2.
खाने
के समय तनाव रहित रहें
3.
भोजन
कैसा हो
4.
भोजन
का उपयुक्त समय
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विशेष : इस पोस्ट में
शरीर में होने वाली पाचन क्रिया, पाचन तंत्र और पाचन
क्रिया में भाग लेने वाले रसों के सम्पूर्ण विवरण नहीं हैं। एक आम आदमी के समझने
के उद्देश्य से केवल विषय वस्तु से सम्बंधित मोटे-मोटे विवरण ही दिए गए हैं। इसी
कारण पाचन क्रिया के अंतर्गत आने वाली कुछ क्रियाओं का उल्लेख भी नहीं हुआ है।