Thursday, May 21, 2015

मक्खनबाजी का नया तरीका


मित्रो ! 

राजकीय सेवा काल में मेरी एक ऐसे समकक्ष अधिकारी से मुलाकात हुयी जिसका मानना था कि अपने बॉस की मक्खनबाजी का पुराना तरीका अनुपयोगी हो गया है। उनके अनुसार बॉस की मक्खनबाजी करने वाला व्यक्ति पहला व्यक्ति नहीं रहा होता है, उससे पहले भी उसी बॉस की मख्खनबाजी अनेक लोग कर चुके होते हैं और इस कारण बॉस के ऊपर मक्खन की अनेक परतें चढ़ीं होतीं है। अगर उनके ऊपर अपने मक्खन की पर्त चढ़ाने की कोशिश करोगे तो आपके मक्खन की परत ढह जाएगी। उनकी राय के अनुसार पहले से मक्खन की चढ़ी परतों को ठीक से साफ़ करो ताकि पहले मक्खन की विद्यमान परतें हट जांय फिर अपनी मक्खनबाजी की हल्की परत लगाओ। इसके बाद आपके पूर्वाधिकारी की तुलना में आपके द्वारा किया गया-गुजरा कार्य भी आपके बॉस को उत्कृष्ट लगने लगेगा। 
अब यह लग रहा है कि मेरे समकक्ष अधिकारी द्वारा मक्खनबाजी का बताया गया तरीका सर्वत्र प्रचलित एक सारभौमिक सत्य है। ऊपर वाले नीचे वालों को खुश करने के लिए और नीचे वाले ऊपर बालों को खुश करने के लिए यह तरीका निर्बाध रूप से अपना रहे हैं।

प्रजातन्त्र


मित्रो !

हम सब जानते हैं कि प्रजातांत्रिक तरीके से गठित सरकार लोगों की, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए होती है। हमारी वर्तमान पद्यति में जो नेता बनना चाहता है वह जनता के पास जाकर उसे नेता बनाने के लिए जनता से वोट माँगता है, हमारी जनता किसी व्यक्ति से यह नहीं कहती कि वह उनका नेतृत्व करे। नेता बनने के इच्छुक अधिकाँश लोग जनता से वोट पाने के लिए अनेक प्रकार के नैतिक और अनैतिक तरीके अपनाते हैं। झूठे - सच्चे वादे करते हैं। जब अधिक वोट पाकर नेता बन जाते हैं तब वह जनता के लिए कानून बनाते हैं। विडम्बना यह होती है कि अधिकाँश नेता स्वयं के द्वारा बनाये गए कानूनों से अपने को ऊपर समझते हैं। यही नहीं उनके निचले स्तर के छुटभैये नेता भी अपने को कानून से परे समझने लगते हैं। अधिकाँश नेता ऊपर से प्रकट होते हैं अतः वे अपने क्षेत्र की जमीनी हकीकत से भी अनभिज्ञ होते हैं।
हम सब तो पढ़े-लिखे हैं। अगर अनपढ़ कबीलों को ही ले लें तब हम पाएंगे कबीले के लोग अपना नेता कबीले में से चुनते हैं, किसी बाहरी व्यक्ति को कबीले का नेता नहीं बनाते। कोई बाहरी व्यक्ति किसी कबीले का तभी नेता बन सकता है जब वह कबीले को जीतकर अपने अधीन कर ले। मेरी इसी सोच ने निम्नप्रकार अपने विचार व्यक्त करने के लिए मुझे प्रेरित किया है :
जब किसी क्षेत्र की जनता के बीच से आने वाला कोई व्यक्ति उस जनता का हमदर्द और सेवक बनकर उस जनता के दिलों पर राज करने लगेगा और चुनाव आने पर जनता उसके पास जाकर कहेगी कि वह उनका नेतृत्व करे तब यह प्रजातन्त्र होगा। मेरे विचार से छल, बल, प्रपंच अथवा लोक लुभावने वादों का सहारा लेकर जनता पर अपने को थोपने वाले नेता प्रजातांत्रिक तरीके से चुने गए नेता नहीं कहे जा सकते।


असफलता का उन्मूलन


मित्रो !
जब अर्जुन (परीक्षार्थी ) आप, कर्मों (प्रश्नों) के निर्धारक भी आप और आप ही फल के दाता कृष्ण (परीक्षक) भी हों तब असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता, आवश्यकता केवल अच्छे परिणाम का ढिंढोरा पीटने की ही रह जाती है। 
ऐसे व्यक्ति के लिए सफलता उसकी चेरी (दासी) होती है। उसके असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मेरा तो कहना है कि परीक्षा, परीक्षक की आवश्यकता ही क्या है, बस एक आज्ञाकारी ढिंढोरा पीटने वाला अपना होना ही पर्याप्त है।


सभी की प्रगति में ही देश की प्रगति


मित्रो !

किसी भी सरकार को यह जानना चाहिए कि जब कोई बच्चा भूख से रो रहा होता है तब उसे झुनझुना (खिलौना) थमाकर या सुहावने भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर चुप नहीं कराया जा सकता। ऐसा नहीं है कि बच्चे को खिलोने या सुनहरे सपने अच्छे नहीं लगते। यथार्थ यह है कि भूखे पेट वाले की पहली आवश्यकता भोजन होती है। दूसरे यह कि पेट का दर्द सिर पर पट्टी बाँध देने से ठीक नहीं होता। मेरा तात्पर्य यह है कि सरकारों द्वारा जनता की समस्याओं के अनुरूप समाधान दिया जाना चाहिए। जनता की समस्यायों की अनदेखी कर समस्यायों के असंगत अपने विवेक से प्रस्तावित योजनाओं से, चाहे ऐसी योजनाएं कितनी भी अच्छी क्यों न हों, जनता का भला नहीं होता। तीसरे वर्ग विशेष के हितों को साध लेने और शेष लोगों को भगवान भरोसे छोड़ देने से वर्ग विशेष आगे बढ़ता है, देश या राज्य आगे नहीं बढ़ता। सभी देश या प्रदेश वासियों को साथ लेकर आगे बढ़ने से ही देश या प्रदेश आगे बढ़ता है। 
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रजातंत्र में सरकारों से वही किया जाना अपेक्षित होता है जो जनहित में हो। मेरा यह भी मानना है कि किसी सरकार द्वारा अपनी पीठ थपथपाने की बजाय अपने कार्य का मूल्यांकन किसी विशेषज्ञ निष्पक्ष संस्था से कराना चाहिए। यह संस्था सरकार की केवल उपलब्धियों की ही रिपोर्ट प्रस्तुत न करे, वल्कि सरकार के द्वारा लिए गए निर्णयों से जनता के हितों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का भी अध्ययन करे। इससे जनता का भी भला होगा और सरकार को जनहित में उचित निर्णय लेने में मदद मिलेगी। संत कबीर जी का निम्नलिखित दोहा अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकता है :
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय। 
बिनु साबुन पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।।


अधूरा आकलन


मित्रो ! 
जहाँ समग्र आकलन अपेक्षित हो वहां पर अधूरा आकलन कोई अज्ञानी, काम से जी चुराने वाला अथवा कोई पक्षपाती आकलनकर्त्ता ही करता है। अतः अधूरे आकलन को देखकर आकलनकर्त्ता के बारे में सहज ही उसके अज्ञानी, कामचोर या पक्षपाती होने का निष्कर्ष निकाला जा सकता है। ऐसे आकलन से बुद्धिमान व्यक्तियों का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।

मेरा मानना है कि हमें अधूरे आकलन से सदैव बचना चाहिये।


यह कैसी दरियादिली

मित्रो !
      कितनी विडम्बना है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम (The whole world is a family) की पैरवी कर रहे हैं किन्तु हमारा अपना परिवार जिसमें हम जन्में थे टूट कर तार-तार हो रहा है। जो अपनों के सगे नहीं हो सके, दुनियाँ के गैरों से उनके सगे होने की बात कैसे कर सकते हैं। वे यह भी भूल गए हैं कि Charity begins at home. क्या अपनो का यही गुनाह है कि वे अपने हैं। 

      ONE SHOULD TAKE CARE OF ONE'S OWN FAMILY AND PEOPLE CLOSE TO IT BEFORE IT WORRIES ABOUT HELPING OTHERS.
दरियादिली, गुनाह  


आन्तरिक मामला : कैसी परिभाषा


मित्रो ! 

कितनी विडम्बना है कि जब कोई बाहरी व्यक्ति हमारे आपसी मतभेदों की बात करता है तब हम उसे हम यह कहकर चुप रहने को कहते हैं कि यह हमारा आन्तरिक मामला है किन्तु जब हम स्वयं अपने परिवार के किसी सदस्य को दूसरे के सामने निर्वस्त्र करते हैं तब हम भूल जाते हैं कि यह हमारा आन्तरिक मामला है।
जरूरत इस बात की है कि हम अपने पड़ोसी के साथ आपसी सहयोग की बात करें, अपने परिवार के मतभेदों को नजरअंदाज करें।


कहीं हम इस ओर तो नहीं बढ़ रहे


इस पोस्ट को पब्लिश करने के पीछे मेरा उद्देश्य यह सुझाव देने का है कि हमें अपनी गरिमामयी संस्कृति बनाये रखने के लिए लगातार आत्मनिरीक्षण (Introspection) करते रहने की आवश्यकता है। 
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मित्रो !

मैं एक छोटा सा वृतांत आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। मेरे दो पुत्रों में से बड़ा पुत्र मेरे साथ रहता है, छोटा पुत्र एक पाश्चात्य देश में अनिवासी भारतीय है। मेरा छोटा पुत्र नियमित रूप से प्रत्येक शनिवार को इंटरनेट पर चैट करने के अतिरिक्त सप्ताह के अन्य दिनों में अपनी माँ या मुझसे फोन पर नियमित रूप से प्रत्येक दिन कुशल क्षेम पूछता है। प्रत्येक वर्ष आकर कम से कम 15 दिन हम लोगों के साथ रहता है। जब वह भारत में आता है तब माँ के लिए, मेरे लिए, अपने बड़े भाई के लिए, मेरे बड़े भाई और भाभी जी, जो दूसरे शहर में निवास करते हैं, के लिए, विवाहित बहिन जो अपने परिवार के साथ अलग रहती है तथा उसके पति और बच्चों के लिए परिधान तथा उपयोग की अन्य वस्तुयें लाता है। वह स्वयं मार्किट जाकर यह सब सामान खरीदता है। अविवाहित है। यद्यपि हम लोग उसे डांटते रहते हैं कि वह उतना अधिक सामान क्यों लाता है क्योंकि इतनी आवश्यकता नहीं रहती है। परिवार की दैनिक आवश्यकतायें भी वही देखता है। इसका एक कारण और भी है, बड़ा बेटा जो साथ रहता है वही कोई कमी नहीं होने देता। माँ-वाप के प्रति उसकी सेवाओं को कम करके नहीं आँका जा सकता। 

इस वर्ष फरबरी 2015 में वह भारत आया था। आदत के मुताविक पूर्व की भांति ही सामान लाया था। उसने एक बड़ी रोचक घटना हम लोगों को सुनाई। उसने बताया कि जब वह फैशन स्टोर से गारमेंट्स ले रहा था उसी समय वहाँ एक पढ़ी-लिखी उसी देश की निवासी एक बुजुर्ग महिला भी कुछ खरीदने वहाँ पर आ गयी। उसने मेरे बेटे से प्रश्न किया कि क्या वह अपनी महिला मित्र (Girl friend) को गिफ्ट करने के लिए परिधान खरीद रहा था। मेरे बेटे ने बताया कि उसकी कोई महिला मित्र या पत्नी नहीं है। वह अपने नेटिव प्लेस आ रहा था। वह परिधान आदि अपने माता-पिता, भाई, बहिन और उसके बच्चों के लिए खरीद रहा था। यह सुनकर वह बुजुर्ग महिला आश्चर्यचकित रह गयी। उसके मुँह से अचानक शब्द निकले "How lucky those parents are !". फिर उसने पूछा कि क्या वस्त्रों के चयन में वह सहायता कर सकती थी। इस पर मेरे बेटे ने उसे धन्यवाद कहकर मना कर दिया। इसके बाद उस महिला ने अपनी आप बीती निम्नप्रकार सुनाई। 

उसने बताया कि उसका अपना एक बेटा है जो उसी शहर में उससे अलग रहता है। उसका अपना परिवार और बच्चे हैं। वह अपने काम में व्यस्त रहता है। इस बजह से उससे कभी बात नहीं होती। उसी दिन वह दो वर्ष बाद उससे मिलने आया था। घर पर 15 मिनट रुका फिर उसे एक रेस्टोरेंट ले जाकर खाना दिलवाया और उसे घर छोड़ कर चला गया। आगे उस महिला ने कहा कि वह अपने बेटे की शुक्रगुजार थी कि उसने अपनी व्यस्तता से उसके लिए समय निकाला और उसे अच्छा खाना दिलवाया। उसके बाद उस महिला ने एक लम्बी सांस लेकर कहा "Man ! You are lucky."। उसके बाद मेरे बेटे ने महिला से कहा कि वह उसकी माँ के समान थी, यदि वह अनुमति देती तब वह उनको उनकी पसंद का परिधान उपहार में देना चाहता था। इस पर उस महिला ने धन्यवाद कहकर मना कर दिया। उसने जाते हुए कहा "I am sure, you are from India." मेरे बेटे ने उत्तर दिया "yes, madame, I am from India." जाते समय बेटे ने उनको अभिवादन किया, उस महिला ने जबाव में कहा "God bless you my son !".

इस छोटी सी घटना ने मुझे अपने देश में आ रहे सांस्कृतिक बदलाव पर सोचने के लिए विवश किया। इसी कारण यह पोस्ट मैं प्रकाशित कर रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मेरे मित्र इस पर जरूर चिंतन करेंगे। देश और शहर का नाम देना मैंने उचित नहीं समझा क्योंकि किसी देश की संस्कृति पर मेरे द्वारा टिप्पणी करने का कोई औचित्य नहीं है।


नींद का नियमितीकरण आवश्यक


मित्रो !

मनुष्य अपनी जीवन अवधि का कुल मिलाकर लगभग एक-तिहाई भाग (approximately 1/3rd of his life span) नींद पूरी करने में व्यतीत करता है। अनेक लोग नींद के मामले में अनियमित होते हैं, अनेक लोग नींद के लिए दवाइयों का सहारा लेते हैं, नींद पूरी न होने के कारण अधिक समय तक लेटे रहते हैं। इन सब का परिणाम यह होता है कि उनके शरीर और मांसपेशियों को विश्राम नहीं मिल पाता। दूसरी ओर अधिक समय गँवा कर हम अपने जीवन का उपयोगी समय खो देते हैं। इसका दुष्प्रभाव उनकी स्मरण शक्ति, स्वास्थ्य और कार्य क्षमता पर भी पड़ता है। मेरा विचार है कि हमें इस दिशा में सोचने की आवश्यकता है। जरूरी यह है कि नींद समय पर नियमित रूप से आये, नींद गहरी हो और 6 से 8 घंटे में पूरी हो जाए। इस ओर ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से यह पोस्ट मेरे द्वारा लिखी गयी है। 
नींद हमारे शरीर के लिए आवश्यक है। साधारणत: 6 से 7 घंटे की औसत नींद किसी मनुष्य के लिए पर्याप्त होती है। स्त्री व बच्चों को कुछ ज्यादा नींद की आवश्यकता होती है। हम कितनी देर सोते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना यह कि हम कितनी गहरी नींद में सोते हैं। गहरी नींद के लिए शारीरिक अथवा पेशीगत थकान आवश्यक है। जिन लोगों का दैनिक कार्य ऐसा है जिसमें शारीरिक श्रम निहित नहीं होता, ऐसे व्यक्तियों को चाहिए की वे व्यायाम करें या प्रतिदिन टहलने (Walk) की आदत डालें।
नींद का नियमित किया जाना अत्यंत आवश्यक है। यदि आवश्यकता से कम नींद ली जाय तब हमारी कार्य दक्षता प्रभावित होती है, शरीर गिरा-गिरा रहता है और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अर्ध चेतन अवस्था में विस्तर पर लेटे रहना सोना नहीं है। आवश्यकता से अधिक समय तक विस्तर पर लेटे रहने में हमारे जीवन का अमूल्य समय नष्ट होता है और थकान भी दूर नहीं होती। 
नींद को नियमित करने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना उपयोगी हो सकता है :
1. प्रति दिन सोने की एक नियमित दिनचर्या बना लें। निश्चित समय पर उठें। 
2. बिस्तर एवं शयन कक्ष आरामदायक हो। सोतेगद्दा समय कन्धों व कमर पर ज्यादा दबाव न पड़े। गद्दा बहुत ज्यादा मुलायम न हो।
3. नियमित रूप से व्यायाम करना करें, लेकिन आवश्यकता से अधिक न करें। टहलना सबसे उत्तम है।
4. अगर नींद नहीं आ रही है तब उठकर कुछ ऐसा करें जिससे हल्का महसूस हो जैसे पढ़ना, टीवी देखना या हल्का संगीत सुनना और जब थकान महसूस करें तो फिर सोने के लिए जायें।
5. सोने से पूर्व चाय या काफी पीने से परहेज करें।
6. मदिरा और अन्य मादक पदार्थों के सेवन से बचें। ये आपको जल्दी सोने में मदद तो कर सकती है किन्तु गहरी नींद नहीं आती। 
7. शाम का भोजन सोने के समय से कम से कम दो- रहे घंटे पूर्व ले लें।
8. बजन घटाने वाली दवाओ का प्रयोग न करें क्योंकि ये नींद में बाधा पहुंचाती हैं।
9. नशे की गोलियां एवं मादक पदार्थों का सेवन न करें क्योंकि ये कैफीन की तरह ही नींद में बाधा पहुंचाती हैं।


Wednesday, May 13, 2015

जीवन उतना जितना जिया जाय

मित्रो !

         जीवन जीने के लिये है। अपना जीवन जियें और व्यर्थ में 
समय गुजार कर इसे छोटा  करें।





             LIFE IS TO LIVE. SO LIVE EVERY MOMENT OF YOUR LIFE AND DON'T SHORTEN IT BY KILLING YOUR TIME.



पहले 100 प्रतिशत जियें फिर 100 वर्ष के जीवन की कामना करें


मित्रो ! 

जीवन में जितने समय में हम कोई शरीर निर्वाह, विश्राम, मनोविनोद, आदि का अथवा कोई अन्य कार्य नहीं करते, उस समय में हम केवल समय गुजारते हैं, जीवन नहीं जीते। जो जिया न जाय वह जीवन कैसे। समय गुजारना जीवन जीना नहीं है। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति अपनी जीवन अवधि का जितना समय निष्क्रिय रह कर गुजारता है वह अपनी जीवन की अवधि को उस सीमा तक कम कर लेता है। 
उदहारण के लिए यहाँ पर हम मान लेते हैं कि किसी व्यक्ति की उम्र दो दिन (48 घंटे) की है। इस समय को हम 8-8 घंटे के अंतरालों में बाँट लेते हैं। मान लेते हैं कि व्यक्ति ने इन 48 घंटों में से 8 से 16 घंटे और 24 से 32 घंटे के मध्य का समय निष्क्रिय रहकर गुजारा। नीचे देखते हैं कि क्या परिणाम प्राप्त होता है। 
दो दिन (48 घंटे) की जीवन अवधि
0--------8--------16--------24--------32--------40---------48 
अवधि जिसमें जीवन निष्क्रिय रहा गया 8 से 16 और 24 से 32
जिए गए जीवन के समय अंतराल 
0--------8 16--------24 32--------40 40--------48
कुल जिया गया जीवन 
0--------8----------16--------24--------32
यहां पर जीवन अवधि 48 घंटे के सापेक्ष जीवन केवल 32 घंटे ही जिया गया है। 16 घंटे की जीवन अवधि का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं रहा। इसका होना या न होना हमारे लिए कोई अर्थ नहीं रखता। 
ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है :
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥
अर्थात्- श्रेष्ठ कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए। ऐसा करते रहने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
इन्हीं विचारों ने मुझे निम्नलिखित विचार आपके सामने रखने के लिए प्रेरित किया :
हमारे बीच अधिकाँश लोग चाहते हैं कि उनकी जीवन अवधि अधिक और अधिक लम्बी हो, एक-दूसरे के दीर्घायु होने की कामना भी करते हैं किन्तु विडम्बना यह है कि हमें जो जीवन अवधि मिली है उसका एक बड़ा भाग हम निष्क्रिय रह कर बिना जिये ही गुजार देते हैं। हमें चाहिए कि हम पहले 100 प्रतिशत जियें फिर 100 वर्ष के जीवन की कामना करें।


Saturday, May 9, 2015

ईश्वर का अस्तित्व नकारना आत्मघाती : Denial of Existence of God is Fatal

मित्रो !
      जो लोग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं वे उसे सर्वव्यापीसर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ मानने के साथ-साथ वे उसको अपना माता और पिता भी मानते हैं। ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होने से, ईश्वर को मानने वालों की मान्यता होती है कि वे जो कुछ भी सही या गलत कर रहे हैं ईश्वर उसको देख रहा है, वे जो कुछ सोच रहे हैं अर्थात उनके मन में जो कुछ है, उसे भी ईश्वर जानता है। ऐसी सोच के कारण उन्हें गलत न करने और सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। वे निर्जन में भी अकेले होने का अनुभव नहीं करते क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी होने से निर्जन में भी उनके साथ होता है। फिर जब सर्वशक्तिमान मित्र के रूप में जिसके साथ हो उसके डरने का कोई कारण नहीं रह जाता।
      ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाले के लिए उसके माता- पिता का उसके सिर से छाया उठ जाने पर भी ईश्वर रुपी माँ-वाप का छाया सदैव बना रहता है। अतः ईश्वर को मानने वाला कभी अनाथ नहीं हो सकता। ईश्वर निष्पक्ष है, सत्य उसे प्रिय है, वह दयालु है और अहिंसा उसे प्रिय हैं, वह काम, क्रोध, मद और लोभ से परे हैं। अतः ईश्वर को मानने वाले उसे प्रसन्न रखने के लिए दया, सत्य, अहिंसा और निष्पक्षता में विस्वास रखते हैं, काम, क्रोध, मद और लोभ को घृणित आचरण मान कर उसके करने से बचते हैं। 
     मेरा विचार है कि ईश्वर को न मानने से उपर्यक्त प्राप्तियां होना संभव नहीं है। विपरीत इसके ईश्वर को न मानने से अराजकता फैलेगी और भय और असुरक्षा की भावनाओं का राज होगा। इन्हीं परिस्थितयों में मेरे अन्दर निम्नलिखित विचार ने जन्म लिया और मैंने यह उपयुक्त समझा कि इसे आपके साथ साझा किया जाय :
    यदि ईश्वर का अस्तित्व स्वीकारने से हमारे अन्दर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, हम निडर बनते हैं, अनाथ होने पर भी सनाथ होने का अनुभव करते हैं, दया, सत्य, अहिंसा और निष्पक्षता जैसे दैवीय गुणों से प्रेम करते हैं तथा काम, क्रोध, मद और लोभ से घृणा करते हैं, तब किसी के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व का नाकारा जाना उसका अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।




भोजन का पौष्टिक होना ही पर्याप्त नहीं

मित्रो !
उपयुक्त समय पर उपयुक्त वातावरण में उपयुक्त विधि से लिया गया उपयुक्त भोजन ही लाभकारी होता है। अन्यथा लिया गया पौष्टिक भोजन भी शरीर में गैस, कब्ज, अम्लता, आदि के साथ-साथ अनेक बिमारियों को जन्म देने वाले हानिप्रद विषाक्त पदार्थ (toxins) उत्पन्न करता है। ऐसा होने पर शाररिरिक शक्ति क्षीण होती है और कार्य क्षमता तथा दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

विस्तृत जानकारी के लिए मेरी Timeline पर निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत पोस्ट्स पढ़ींजा सकतीं हैं :
1. भोजनान्ते विषम वारी
2. खाने के समय तनाव रहित रहें
3. भोजन कैसा हो
4. भोजन का उपयुक्त समय
5. जाने जठराग्नि क्या है.


जाने जठराग्नि क्या है : What is digestive fire of the stomach

मित्रो !
भोजन में पाये जाने वाले प्रोटीन, फैट, कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन और मिनरल्स हमारे शरीर के लिए पोषक तत्व होते हैं। भोजन में इन पोषक तत्वों (nutrients) के अतिरिक्त शरीर के लिए अनुप्रयोज्य अपशिष्ट पदार्थ (waste materials) उपलब्ध रहते हैं। पाचन क्रिया के अंतर्गत पोषक पदार्थ और अपशिष्ट पदार्थ अलग किये जाते हैं और शरीर की विभिन्न ग्रंथियों से मिलने वाले एन्जाइम्स की सहायता से पोषक तत्व ऐसी अवस्था में परिवर्तित किये जाते हैं कि वे पाचन तंत्र द्वारा अवशोषित कर शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचाये जा सकें। भोजन को अत्यंत छोटे कणों (fine particles) में बदलने और उससे पोषक तत्वों और अपशिष्ट पदार्थों के अलग करने का कार्य आमाशय में होता है। यध्यपि आमाशय में क्रिया के उपरांत भोजन का स्वरुप अर्ध द्रव (semi liquid) हो जाता है किन्तु उसमें पोषक तत्व और अपशिष्ट पदार्थ के कण अलग-अलग होते हैं।

संस्कृत भाषा में आमाशय को जठर कहते हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पद्यति के अनुसार हमारे आमाशय में हमारे द्वारा भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने वाले पदार्थों को पचाने के लिए एक प्रकार की अग्नि होती है जिसे जठराग्नि कहा जाता है। जैसे ही भोजन ग्रास नाली से होकर आमाशय में पहुंचता है जठराग्नि इस पर अपना कार्य करना प्रारम्भ कर देती है। आमाशय में उपलब्ध जठराग्नि में उपलब्ध जठरीय रस की भोजन पर क्रिया द्वारा प्रोटीन अंततः पेप्टोन (peptone) में बदल जाते हैं। जठरीय रस में उपलब्ध तीन एंज़ाइम में से एक एंज़ाइम कारबोहाइड्रेट को गलाता है, दूसरा एंज़ाइम वसा को गला देता है तथा तीसरा एंज़ाइम, जिसमें जीवाणुनाशक शक्ति भी होती है, दूध को फाड़ (curding of milk) देता है।
आमाशय में होने वाली पाचन क्रिया के फलस्वरूप आहार अर्ध द्रव (semi liquid) रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी रूप में यह एक छिद्र द्वारा होते हुए ग्रहणी में पहुंचता है जहां पर अग्नाशय से आने रस जिसमें एंजाइम होते हैं तथा यकृत से आने वाला पित्त पाचन क्रिया में भाग लेते हैं। ग्रहणी से पाचित (digested) भोजन जिसका स्वरुप गाढ़े शहद के समान होता है क्षुद्रांत्र (small intestine) में जाता है। क्षुद्रांत्र का कार्य विशेषतया अवशोषण (absorption) का है। इस भाग में पोषक पदार्थ अवशोषित कर लिए जाते हैं। शेष बचा तरल पदार्थ जिसमें अपशिष्ट पदार्थ और पानी होता है आगे बृहदान्त्र (large intestine) में चला जाता है जहां इससे पाने अवशोषित कर अलग कर दिया जाता है और मल आगे धकेल दिया जाता है। हमारे शरीर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि हमारे द्वारा लिए गए भोज्य पदार्थ (eadibles) पर जठराग्नि के द्वारा की जाने वाली क्रिया (process) के बिना हमारा शरीर खाए गए पदार्थ से पोषक तत्व शरीर में अवशोषित कर सके। इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि यदि हमारे शरीर में जठराग्नि न हो तब कुछ भी खाने पर हमारे शरीर को पोषक तत्व नहीं मिल सकते।
जठराग्नि के अभाव में आमाशय में भोजन पचता नहीं है बल्कि भोजन के सड़ने (fermentation) की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। परिणामतः शरीर को पोषक तत्व तो नहीं ही मिलते, उल्टे भोजन के सड़ने के फलस्वरूप गैस, कब्ज, अम्लता, उलटी, सिर दर्द, शरीर में बेचैनी, आलस्य, काम में अरुचि होने, आदि की शिकायतों के साथ शरीर के लिए हानिकारक अनेक प्रकार के विषैले पदार्थ (toxins) बन जाते हैं। यह विषैले पदार्थ शरीर में अवशोषित होकर शरीर के अन्य भागों में फ़ैल कर अन्य बीमारियों को जन्म देते हैं।
वास्तव में जठराग्नि शरीर में उत्पन्न होने वाले हाइड्रोक्लोरिक एसिड और विभिन्न प्रकार के एन्जाइम्स से मिलकर बनती है। इसका प्रभाव ऊष्मा (Heat) का होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि पर पानी डालने से अग्नि बुझकर शान्त हो जाती है उसी प्रकार जठराग्नि पर पानी, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स, शरबत, आदि डालने से जठराग्नि मन्द पड़ जाती है और भोजन पचाने का कार्य नहीं कर पाती। जठराग्नि संतुलित होने पर कोई भी भोज्य पदार्थ आमाशय में पहुचने के लगभग पौने दो घंटे में खाये गए पदार्थ पर जठराग्नि अपनी क्रिया पूर्ण कर लेती है। क्रिया ठीक तरह से संपन्न हो जाय, इसके लिए जरूरी हो जाता है कि क्रिया के जारी रहते पानी, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स, शरबत, आदि न लिए जांय। खाने का तापमान शरीर के तापमान से कुछ अधिक होना चाहिए। खाने के साथ चाय या कॉफी लेने में कोई हानि नहीं है। यदि खाने के दौरान भोजन को ग्रास नली में आगे बढ़ाने में कठिनाई हो रही हो तब अल्प मात्रा में सामान्य तापक्रम का पानी या गुनगुना पानी लिया जा सकता है। खाना खाने के लगभग डेढ़ घंटे बाद पानी पीना उपयोगी माना गया है। यदि पानी खाना खाने के एक घंटे बाद भी लिया जाय तब भी जठराग्नि पर कोई विशेष प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता।
जठराग्नि ही हमें भूखे होने का अहसास दिलाती है। यदि जठराग्नि कमजोर पड़ जाय तब हमें भूख कम लगने लगती है और स्वास्थ्य ख़राब होने लगता है। खाने की इच्छा नहीं होती, यदि कुछ खा भी लिया जाय तब वह पचता नहीं है। ऐसी स्थिति में यह सुझाव दिया जाता है कि या तो उपवास रखा जाय या ऐसे फल या खाद्य पदार्थ लिए जांय जो आसानी से पच सकें। जठराग्नि को संतुलित करने के लिए आयुर्वेदा में ताजा अदरक के छोटे-छोटे चिप्स नीबू के रस में डुबोकर, काली मिर्च और काला नमक छिड़क कर चूसना या खाना उपयोगी पाया गया है। खाने के बाद सौंफ चबाना भी पाचन क्रिया में सहायक होता है। अजवायन से भी जठराग्नि में सुधार होता है।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह हो सकता है कि जठराग्नि के संतुलित होने अथवा असंतुलित होने की पहचान क्या है? मेरे विचार से संतुलित और असंतुलित जठराग्नि के निम्नलिखित प्रभाव या लक्षण होते हैं :
स्वस्थ अग्नि (जठराग्नि) के लक्षण
जीभ गुलाबी है।
अगले भोजन के लिए भूख लगी है।
नियमित रूप से मल त्याग होना।
बिना किसी आतंरिक दवाव के मल त्याग होना।
मल पानी पर तैरता हुआ केले की तरह मुलायम है।
मन की स्पष्टता।
चुस्ती -फुर्ती, त्वचा में कांति।
अच्छी ऊर्जा।

खराब अग्नि (जठराग्नि) के लक्षण
जीभ पर सफेद कोटिंग। 
कमजोर या भूख की कमी।
मल त्याग में कठिनाई, मल त्याग के लिए आंतरिक दवाव लगाने की आवश्यकता। 
मल त्याग टुकड़ों-टुकड़ों में होना तथा पानी में मल का डूब जाना। 
धूमिल सोच।
सूजन, गैस, कब्ज, खट्टी डकार, मिचली आदि की शिकायत होना।
सुस्ती, कार्य के प्रति अनिच्छा।
ऊर्जा में कमी।

जठराग्नि को संतुलित बनाये रखने के लिए क्या करें? (विस्तृत जानकारी के लिए कृपया मेरे द्वारा लिखित अन्य पोस्ट्स, जिनका उल्लेख इस पोस्ट के अंत में किया गया है, पढ़ने का कष्ट करें)
1. किसी भी प्रकार के तनाव पर शरीर की विभिन्न क्रियाओं और हार्मोन्स तथा एन्जाइम्स उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों पर भी पड़ता है। फलस्वरूप जठराग्नि मंद हो जाती है और भूख मर जाती है तथा जठराग्नि कमजोर पड़ जाती है। अतः भोजन करने से पूर्व या खाना खाने के दौरान तनाव नहीं होना चाहिए। 
2. सूर्योदय के समय से लगभग ढाई घंटे तक, मध्यान्ह में और सूर्यास्त के समय जठराग्नि संतुलित रहती है। मध्यान्ह में इसकी तीब्रता सबसे अधिक होती है। अतः सुबह का नास्ता सूर्योदय के ढाई घंटे के अंदर, दोपहर का भोजन 1 बजे से 3 बजे के बीच और शाम का भोजन सूर्यास्त के पूर्व करना उपयुक्त रहता है। अगर शाम का भोजन सूर्यास्त के समय करना संभव न हो तब रात्रि में सोने के दो-ढाई घंटे पूर्व भोजन अवश्य कर लेना चाहिए। भूख न हो तब खाना नहीं लेना चाहिए। 
3. भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होना चाहिए। अत्यधिक तिक्त (कड़ुए), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन नहीं करने चाहिए। भोजन के साथ घी के प्रयोग से जठराग्नि प्रबल हो जाती है। यदि शाम को दूध पीते हैं तब गरम दूध शाम का खाना खाने के एक घण्टे बाद पीना चाहिए। मात्रा में खाना इतना खाना चाहिए जिससे आपको आवश्यक ऊर्जा मिल सके और खाना खाने के बाद आपको भारीपन न लगे। आहार पदार्थों की सुंगध नाक से सूँघने और उनको नेत्रों से देखने से रस का स्राव होने लगता है। यही कारण है कि उत्तम आहार पदार्थों के बनने की गंध से ही भूख मालूम होने लगती है तथा उनको देखने से क्षुधा बढ़ जाती है।
4. खाना खड़े होकर अथवा कोई अन्य काम करते हुए भोजन नहीं करना चाहिए। खाना हमेशा बैठकर खाना चाहिए। वातावरण अधिक शोर-गुल वाला नहीं होना चाहिए, पास में ऐसी कोई वस्तुएं न हों जिनसे भोजन करने वाले को अरुचि हो। खाना प्रसन्नचित कर देने वाले वातावरण में खाना चाहिए।

विस्तृत जानकारी के लिए निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत पोस्ट्स  इसी ब्लॉग पर पढ़ीं जा सकतीं हैं :
1. भोजनान्ते विषम वारी 
2. खाने के समय तनाव रहित रहें
3. भोजन कैसा हो
4. भोजन का उपयुक्त समय
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विशेष : इस पोस्ट में शरीर में होने वाली पाचन क्रिया, पाचन तंत्र और पाचन क्रिया में भाग लेने वाले रसों के सम्पूर्ण विवरण नहीं हैं। एक आम आदमी के समझने के उद्देश्य से केवल विषय वस्तु से सम्बंधित मोटे-मोटे विवरण ही दिए गए हैं। इसी कारण पाचन क्रिया के अंतर्गत आने वाली कुछ क्रियाओं का उल्लेख भी नहीं हुआ है।


दया धर्म का मूल है : Compassion, the base of a religion

मित्रो !
किसी अन्य प्राणी को कष्ट में देखने पर उसके कष्ट दूर करने के उद्देश्य से उसकी सहायता करने की जिस इच्छा का मनुष्य के हृदय में जन्म होता है, वह दया या करुणा कहलाती है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में एक दोहे में धर्म के मूल के विषय में निम्नप्रकार उल्लेख किया है :

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान। 

तुलसी दया न छोड़िये जब लगि घट में प्रान ।।
विचारणीय यह है कि यदि दया धर्म का मूल है तब धर्म को स्थायित्व प्रदान करने और सशक्त बनाये जाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति, जो धर्म में विश्वास रखता है अथवा जो धर्म की उन्नति चाहता है अथवा जो अपने को धर्म का रक्षक कहता है, को अपने अन्दर के दया भाव को जागृत कर उसका प्रयोग धर्म की जड़ों के सशक्तिकरण के लिए करना होगा। सभी प्राणियों पर दया करते हुए असहाय दलितों, वंचितों और गरीबों पर विशेष दया दृष्टि से उनका दर्द कम करना होगा। कोरे भाषण देकर धर्म की पैरबी करने, दयनीय जीवन जी रहे लोगों को अल्पकालिक लालच देकर अपने समुदाय में शामिल करने अथवा उनके इर्द-गिर्द पहरेदार (watchmen) खड़े करने से धर्म की जड़ें मजबूत नहीं होंगी।

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