मित्रो !
सत्ता पक्ष के उपलब्धियों के ढ़िंढ़ोरों और उसकी नाकामियों के विपक्ष के नक्कारों के शोर-गुल में भोली-भाली जनता भ्रमित होकर रह गयी है। ऐसे में एक ऐसे निष्पक्ष मूल्यांकनकर्त्ता की जरूरत है जो सत्ता पक्ष की उपलब्धियों और नाकामियों का सही विश्लेषण कर जनता का भ्रम दूर कर सके।
जनता द्वारा चुनाव के माध्यम से नियुक्त सरकार द्वारा जनहित में किये गए कार्यों का जनता द्वारा मूल्यांकन कराया जाना जनता के अधिकार क्षेत्र के बाहर नहीं माना जा सकता।
पोस्ट पर टिप्पणियों पर मेरी प्रतिक्रिया
मित्रो !
पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी विशेष राजनैतिक दल का पक्षधर नहीं हूँ। मैंने अपनी पोस्ट में न तो किसी पार्टी की कार्य शैली पर आक्षेप किया है और न ही किसी की कार्य शैली को सराहा है। भ्रम की स्थिति की बात इसलिए मैंने कही है कि आजकल विभिन्न माध्यमों से सत्ता पक्ष उसके द्वारा एक वर्ष के शासन काल में जनहित में किये गए कार्यों / निर्णयों को जनता के सभी वर्गों तक पहुचाने के भगीरथ प्रयास कर रहा है वहीँ पर विपक्ष इन कार्यों को नकारने और अनुपयोगी बताने का कार्य जोर शोर से कर रहा है। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। जो दृष्टिकोण अपनाये जा रहे हैं उनसे दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक लगते हैं।
आगे कुछ कहने से पूर्व मैं अपने दृष्टिकोण के विषय में एक छोटा सा वृतांत देना चाहूँगा। वृतांत सुनाने के पीछे मेरा उद्देश्य मेरे अपने द्वारा किसी विषय पर मेरी सोच क्या है से परिचित कराने मात्र का है। तत्समय मैं उत्तर प्रदेश के व्यापार कर विभाग के अपर कमिशनर (विधि), व्यापार कर, उ. प्र. [Additional Commissioner (Law) Trade Tax, U.P. ] के पद पर तैनात था। उस समय शासन में व्यापार कर विभाग "संस्थागत वित्त एवं व्यापार कर" विभाग के अधीन आता था। किन्तु कुछ समय बाद इससे संस्थागत वित्त अलग हो गया और व्यापार कर, प्रवेश कर, मनोरंजन कर और अचल संपत्ति का पंजीयन का कार्य रह गया। उस समय रूलिंग पार्टी वह सत्ता में आ गयी जिसकी विरोधी पार्टी ने "बिक्री कर" का नाम बदल कर "व्यापार कर" कर दिया था। उस समय शासन द्वारा कमिशनर व्यापार कर से दो विन्दुओं पर सुझाव मांगे गए :
1. क्या व्यापार कर विभाग का नाम बदल कर "बिक्रीकर" या "वाणिज्यिक कर" रखना उचित होगा?
2. क्या शासन स्तर पर विभाग का नाम "संस्थागत वित्त एवं व्यापार कर" के स्थान पर "कर एवं पंजीयन" किया जाना उचित होगा?
कमिशनर व्यापार कर ने इस पर मेरी राय मांगी। इस पर मैंने सुझाव दिया कि ५-६ वर्ष पूर्व व्यापार कर विभाग का नाम "बिक्री कर" रहा था। उस समय नाम बदलने पर बहुत बड़े स्तर पर कार्यालय बोर्ड, स्टेशनरी, रबर की मोहरें एवं अभिलेखों में नाम बदलने में राजस्व व्यय करना पड़ा, नाम के पॉपुलर होने में भी कई वर्ष लग गए। अब जब नाम पॉपुलर हो चुका है पुनः बदलने में वही कठिनाइयाँ होंगी और जनता के पैसे का अपव्यय भी होगा। यह स्वस्थ परम्परा नहीं होगी। दूसरे प्रश्न के सम्बन्ध में मैंने प्रस्तावित "कर एवं पंजीयन" के स्थान पर "कर एवं निबंधन" नाम प्रस्तावित किया क्योंकि "पंजीयन" शब्द का प्रयोग व्यापार कर अधिनियम में अधिक प्रचलित था तथा अचल सम्पत्ति की रजिस्ट्री वाले विभाग में "रजिस्ट्रेशन, रजिस्ट्रार, आदि" शब्द अधिक प्रचलित थे। प्रस्ताव लॉजिकल था और सभी को अच्छा लगा। अन्तः राज्य सरकार ने भी इसे यथावत स्वीकार कर लिया।
अब मैं मेरे मित्रो द्वारा पोस्ट पर की गयी टिप्पणियों पर आता हूँ। कुछ मित्रो ने निष्पक्ष समीक्षा की व्यवस्था होने से सहमति व्यक्ति की है किन्तु ऐसी व्यवस्था हो पाना संभव नहीं पाया है, कुछ मित्रो ने प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में उपलब्धियों का सत्ता पक्ष द्वारा किया जाना बखान सत्ता पक्ष का अधिकार माना है, कुछ मित्रो ने खुले दिल से वर्तमान में प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के निर्णयों और उनके नेतृत्व में कार्य कर रही सरकार के कार्यों की भूरि-भूरि प्रसंशा की है, किसी मित्र ने शंका जाहिर की है कि कुछ लोग घुटाले करने वालों को छूट देने वाली सरकार ही चाहते हैं। मेरे मित्र श्री दिग्विजय नारायण सिंह जी ने सुझाव दिया है कि कार्य की निष्पक्ष समीक्षा तो की जानी चाहिए किन्तु चार साल बाद अर्थात नयी सरकार के सत्ता में काबिज होने के चार साल बाद समीक्षा की जानी चाहिए।
मेरे विचार से यह कहना कि निष्पक्ष विश्लेषण की व्यवस्था किया जाना संभव नहीं है, उचित नहीं है। कोई ऐसी स्वतंत्र संवैधानिक संस्था बनाई जा सकती है जिसको सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों के विवरण दे। संस्था इनका परीक्षण कर पक्ष-विपक्ष में अपनी राय दे। पक्ष और विपक्ष के एक-एक नामित सदस्य वास्तविकता तक पहुँचने में संस्था की मदद करें।
जो कुछ आम जनता को विभिन्न संचार माध्यमों या रैलियों में भाषण के माध्यम से बताया जाता है उसको समझने के लिए आम जनता सोसिओ-इकोनोमिक कोम्प्लेक्सिटीज (Socio-economic complexities) की जानकारी नहीं रखती है। दूसरे रैलियों में भले ही राजनेताओं का वक्त वर्बाद न होता हो किन्तु आम जनता का समय और धन दोनों बर्बाद होते हैं। इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि रैलियों में राजनैतिक दल के सपोर्टर्स और गरीब व्यक्ति ही आते हैं।
यदा-कदा चुने हुए प्रतिनिधियों के जनोपयोगी कार्य न करने पर जनता को उन्हें बापस बुलाने (Recall) का मुद्दा उठता रहा है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि जनता द्वारा जन प्रतिनिधियों के कार्य की उचित समीक्षा की जानी चाहिए।
सरकारों का कार्य केवल उनकी पार्टी के मैनिफेस्टो में अंकित कार्यों का पूरा करने तक ही सीमित नहीं होता। उनको पूर्व में लायी गयी योजनाओं जो जनहित में होतीं हैं का संरक्षण करना भी होता है। नए रोज़गार के अवसरों के सृजन के तरीके ढूंढने के साथ - साथ पुराने रोजगार के अवसरों के बनाये रखने का भी होता है। जनता के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सामयिक निर्णय भी लेने होते हैं।