Peace, Co-existence, Universal Approach Towards Religion, Life, GOD, Prayer, Truth, Practical Life, etc.
Friday, September 30, 2016
सबका ईश्वर एक : One God for All
मित्रो !
वह जो सृष्टि का कारण है, वह जो जगत का पालनहार भी है और संहारक भी है, वह जो दया का सागर है, वह जो कर्मों के फलों का दाता है, वह जो दोषियों को दण्डित करने वाला है, वह जो निष्पक्ष न्यायाधीश है, वह जो सबकी रचना करता है, वह जो सबके बारे में सब कुछ जानता है, वह जिसका न तो आदि है और न ही जिसका अंत है, जिसका विस्तार अनंत है, वह जो कण-कण में समाया हुआ है, वह जो खंड-खंड होकर भी अखंड है, वह जिसे अपनी सृष्टि से प्यार है, वह जो अपनी संतानों के बीच प्रेम देखना चाहता है, वह जो प्रेम का भूखा है, वह जो सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञानी है, वही ईश्वर है। मैं उस ईश्वर को प्रणाम करता हूँ।
वह जो सृष्टि का कारण है, वह जो जगत का पालनहार भी है और संहारक भी है, वह जो दया का सागर है, वह जो कर्मों के फलों का दाता है, वह जो दोषियों को दण्डित करने वाला है, वह जो निष्पक्ष न्यायाधीश है, वह जो सबकी रचना करता है, वह जो सबके बारे में सब कुछ जानता है, वह जिसका न तो आदि है और न ही जिसका अंत है, जिसका विस्तार अनंत है, वह जो कण-कण में समाया हुआ है, वह जो खंड-खंड होकर भी अखंड है, वह जिसे अपनी सृष्टि से प्यार है, वह जो अपनी संतानों के बीच प्रेम देखना चाहता है, वह जो प्रेम का भूखा है, वह जो सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञानी है, वही ईश्वर है। मैं उस ईश्वर को प्रणाम करता हूँ।
हम ऊपर उल्लिखित गुणों वाले किसी ईश्वर की कल्पना ही कर
सकते हैं, कोई मूर्ति नहीं बना सकते क्योंकि एक ही क्षण पर ऐसी किसी वस्तु जो
अनंत विस्तार लिए हो और किसी छोटे कण में भी समायी हुयी हो की मूर्ति या चित्र
कैसे बनाया जा सकता है। हम ऐसे गुणों को निरूपित करने वाले किसी प्रतीक की कल्पना
ही कर सकते हैं। प्रतीक कुछ भी हो सकता है, प्रतीक अच्छा दिखता है या नहीं इसका ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं
होता। ईश्वर के स्मरण के लिए आवश्यक होता है उसमें विश्वास व्यक्त करना और उसकी
सत्ता को स्वीकार करना। जो लोग प्रतिक के बिना ईश्वर का स्मरण कर सकते हैं उनके
लिए ईश्वर के प्रतीक की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
मेरे विचार से किसी भी
धर्म के अनुयायियों को ऐसा ईश्वर मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। प्रतीकों
पर भी कोई विवाद नहीं करना चाहिए। भिन्न भिन्न प्रतीकों को भी लेकर किसी को आपत्ति
नहीं होनी चाहिए।
One who
is creator of this universe, one who is savior as well as destroyer of the
nature, one who is ocean of compassion, one who gives us fruits of our actions,
One who punishes the guilty, one who is fair judge, One who creates all, one
who knows everything about everyone, one who has neither beginning nor end,
whose dimensions are infinite, he who dwells in every particle, he who,
although fragmented, is undivided, one who loves his creation, one who loves to
see love among all beings, one who is hungry of love, He who is paramount,
supreme, omniscient, he is the God. I bow to the God.
Tuesday, September 27, 2016
कोई ईश्वर को क्यों माने : Why One Should Accept God
मित्रो !
मैं अपना ईश्वर तुम्हारे ऊपर थोपना नहीं चाहता।
इसलिए इस बात का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम मेरे ईश्वर को अपना ईश्वर मानते
हो या नहीं। मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि तुम्हारा भी कोई ईश्वर हो ताकि
ईश्वरवादी को मिलने वाले लाभों से तुम वंचित न रह जाओ।
घोर निराशा में ईश्वर आशा का किरण पुंज है। जब
हमारे अपने भी हमारा साथ छोड़ जाते हैं तब भी वह हमारे साथ रहता है, उसके रहते हम कभी अनाथ नहीं होते। उसकी स्वीकृति से
हमें सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, हम अनाचार से बचते है। उसकी शरण में हमें तनाव और चिंता से
मुक्ति मिलती है। उसके डर से हम पाप कर्म करने से बचते हैं। हम अहंकार से बचते
हैं। उसकी स्वीकृति हमें विनम्र बनाती है। उसकी सोच हमें निडर बनाती है। ईश्वर
जितना हमारे निकट होता है उतना कोई दूसरा हमारे निकट नहीं होता। वह हमारा अंतरंग
मित्र होता है, हम उसके साथ वह सब कुछ
साझा कर सकते हैं जो किसी अन्य के साथ साझा नहीं कर सकते। उसके सामने अपराधों की
स्वीकृति से अपराध बोध से मन हल्का हो जाता है और हमारी अपराध मनोवृत्ति पर अंकुश
लगता है।
It does not matter to me if you don't
accept my God as your God. Also I do not want to impose my God upon you but I
certainly want that you should also have God so that you may not be deprived of
benefits available to a theist.
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किरण पुंज
Monday, September 19, 2016
स्वभाव में परिवर्तन का कारण क्या है? : Cause of Change in Our Nature
- मित्रो !प्रत्येक व्यक्ति सतो, रजो और तमो, तीन गुणों वाली प्रकृति के साथ जन्म लेता है। मनुष्य के जीवन में जिस क्षण पर जो गुण प्रधान (dominant) होता है, उस क्षण पर वह उसी गुण के अनुरूप कार्य एवं आचरण करता है।मनुष्य खान-पान, रहन-सहन और आचार-विचार में परिवर्तन कर अपनी प्रकृति में इच्छानुसार किसी भी गुण की प्रधानता को बढ़ा सकता है। अच्छी और बुरी संगति के प्रभाव से भी गुण (सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण) प्रभावित होते हैं। कभी-कभी कटु बचनों से भी गुणों की प्रधानता में अचानक परिवर्तन हो जाता है। गुणों में परिवर्तन के कारण ही लुटेरे बाल्मीकि महर्षि बाल्मीकि बने और उन्होंने हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ रामायण की रचना की। नारी आकर्षण से ग्रस्त तुलसी दास के अंदर पत्नी द्वारा कही गयी बातों से गुणों में परिवर्तन हुआ और वे गोस्वामी तुलसी दास कहलाये तथा उन्होंने पवित्र ग्रन्थ राम चरित मानस की रचना की। आचरण द्वारा तामसी प्रवृत्ति रखने वाला व्यक्ति सात्विकी प्रकृति का व्यक्ति बन जाता है।
Friday, September 16, 2016
कर्म करने में ईश्वर का दखल नहीं : No Interference of God in Karm
मित्रो !
ईश्वर को मानने वाले अधिकांश व्यक्ति यह मानते हैं कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। यदि इसे सही मान लें तब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे पाप कर्म करने में ईश्वर की सहमति या मर्जी होती है? मेरे विचार से ऐसा मान लेना पूर्णतः गलत है।
ऐसा मान लेना तीन कारणों से उचित नहीं है, पहला यह कि पाप कर्म करने के लिए प्रेरित करने या सहमति देने वाला ईश्वर नहीं हो सकता, दूसरे यह कि मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ कर्म करता है और तीसरे यह कि मनुष्य कर्म करने और किये जाने वाले कर्म का चयन करने के लिए स्वतंत्र है।
श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 3 (कर्मयोग) के श्लोक 5 का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अतः कोई भी एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। इसी अध्याय के श्लोक 8 में भगवान श्री कृष्णा अर्जुन को बताते हैं कि तुम अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर का निर्वाह भी नहीं होता।
यहां पर यह समझ लेना उचित होगा कि गीता में संदर्भित प्रकृति क्या है। प्रयेक जीव को जन्म के समय प्रकृति प्राप्त होती है। यह प्रकृति तीन प्रकार के गुणों से बनी होती है, सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण। मनुष्य का स्वभाव इन्हीं गुणों पर निर्भर करता है। मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ प्रकृति के अनुसार कर्म करता है।
अध्याय 3 के श्लोक 8 में "नियत कर्म" करने की बात कही गयी है। प्रश्न यह उत्पन्न होता है "किसके द्वारा नियत कर्म". इसका उत्तर भगवान श्री कृष्णा द्वारा इसी अध्याय के श्लोक 5, जिसका सन्दर्भ ऊपर दिया गया है, में यह कहते हुए दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा उसकी अपनी प्रकृति से मिलती है उसे भगवान या कोई अन्य प्रेरित नहीं करते।
यहां पर मैं गीता के अध्याय 2 के श्लोक 47 का भी देना चाहूँगा। यह श्लोक निम्प्रकर है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||
निश्चय ही तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानों, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
You have a right to perform your duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself to be the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction.
इस श्लोक में कर्म करने का अधिकार मनुष्य के पास होने की बात कही गयी है। कर्म करने के अधिकार के अन्दर, कर्म करने, कर्म न करने, विशिष्ट प्रकार का कर्म करने अथवा विशिष्ट प्रकार का कर्म न करने का अधिकार समाहित होता है। अतः यह समझना चाहिए कि कर्म के चयन का अधिकार भी मनुष्य को प्राप्त है।
अध्याय 3
के
श्लोक 36 में अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्णा से बहुत ही महत्वपूर्ण
प्रश्न (जो हम सब के मन में उठता है) निम्नप्रकार पूछा गया है।
अथ
केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: |
अनिच्छन्नपि
वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:||
हे
वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते भी पाप कर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है?
ऐसा
लगता है कि उसे बलपूर्वक उसमें लगाया जा रहा है?
Why is a person impelled to commit sinful acts, even unwillingly, as if by
force, O descendant of Vrishni (Lord Krishna)?
इस प्रश्न का उत्तर
भगवान् श्री कृष्ण द्वारा अगले श्लोक 37 में निम्नप्रकार दिया
गया है:
काम
एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ||
महाशनो
महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || 37||
हे
अर्जुन ! इसका कारण रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न काम है,
जो
बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
It is lust alone, which is born of contact with Rajogun, and later transformed
into anger. Know this as the sinful, all-devouring enemy in the world.
यहाँ
पर पाप कर्म करवाने के लिए रजोगुण का संपर्क उत्तरदायी बताया गया है,
जो
मनुष्य की प्रकृति के कारण उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि ईश्वर किसी व्यक्ति से कोई कर्म नहीं करवाता,
मनुष्य
स्वयं निर्णय लेकर अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ अच्छा या बुरा कर्म करता है।
सुलभ सन्दर्भ हेतु ऊपर संदर्भित श्लोकों का मूल पथ नीचे दिया जा
रहा है।
अध्याय
3 श्लोक 5
न
हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते
ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || 5||
There is no one who can remain without action even for a moment. Indeed, all
beings are compelled to act by their qualities born of the nature. (the nature
consists of three guṇas).
अध्याय
3 श्लोक 8
नियतं
कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: |
शरीरयात्रापि
च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: || 8||
You should thus perform your prescribed duties, since action is superior to
inaction. By ceasing activity, even your bodily maintenance will not be
possible.
ओइम
नमो भगवते वासुदेवाय।
Whether God Inspires Us To Do A Wrong : क्या ईश्वर गलत करने के लिए प्रेरित करता है?
Friends !
For three reasons, it is wrong to assume that God inspires us to do a sinful act, firstly, because by definition, God has no such quality within Him, secondly, because a person acts under the inspiration of its own nature and thirdly, because the person is free to act and to choose the act to be performed by him.
मित्रो !
ईश्वर को मानने वाले अधिकांश व्यक्ति यह मानते हैं कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। यदि इसे सही मान लें तब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे पाप कर्म करने में ईश्वर की सहमति या मर्जी होती है? मेरे विचार से ऐसा मान लेना पूर्णतः गलत है।
ऐसा मान लेना तीन कारणों से उचित नहीं है, पहला यह कि पाप कर्म करने के लिए प्रेरित करने या सहमति देने वाला ईश्वर नहीं हो सकता, दूसरे यह कि मनुष्य अपनी प्रकृति से प्रेरित हुआ कर्म करता है और तीसरे यह कि मनुष्य कर्म करने और किये जाने वाले कर्म का चयन करने के लिए स्वतंत्र है।
Tuesday, September 13, 2016
ज्ञान का अनन्य स्त्रोत श्रीमद भगवद गीता : The Infinite Source of Knowledge, Shrimad Bhagvad Gita
मित्रो !
जब आप सभी ओर से निराशा, हताशा, तनाव, चिंता, दुःख, भय, अज्ञान से घिरे हुए हों तब गीता का ज्ञान आपको इनसे छुटकारा दिलाता है। गीता में केवल जन्म-मृत्यु के बंधनों से छुटकारा दिलाने से सम्बंधित दिव्य ज्ञान ही नहीं अपितु इसमें साधारण मनुष्यों के व्यावहारिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों और कष्टों से छुटकारा दिलाने के लिए भी सम्पूर्ण ज्ञान उपलब्ध है।
सत्य और ज्ञान किसी भी धर्म से ऊपर उठकर होते हैं। किसी धर्म विशेष का अनुशरण करने वाले किसी परिवार में जन्मे व्यक्ति द्वारा दिया गया ज्ञान किसी अन्य धर्म के अनुयायी के लिए अज्ञान नहीं हो जाता और न ही किसी ज्ञान की महत्ता इस कारण से कम हो जाती है कि उसको देने वाला किसी दूसरे धर्म में अवतरित हुआ था। यदि सत्य इसके विपरीत रहा होता तब अब तक हुयी वैज्ञानिक खोजों का लाभ सभी को सुलभ हो पाना संभव नहीं रहा होता।
Whenever you find yourself surrounded by disappointment, frustration, stress, anxiety, sorrow, fear, ignorance then the Gita can help you in restoring your self. The Gita not only has the highest category of knowledge for getting rid of bondage of birth and death, but it also has the the knowledge to relieve a common man of his sufferings and pains in his practical life.
Truth and knowledge are independent of a religion. They are above all religions. Any knowledge, for a person following a particular religion, given by a person following another religion, does not become ignorance (agyaaan) nor importance of any knowledge diminishes because it was revealed by a person who was born in a family following any other religion. Had the truth been otherwise, then benefit of scientific researches could not have been available to people of all religions.
Monday, September 12, 2016
कुंठा, दुःख, चिन्ता और चिता : Frustrations, Sorrows, Worries and Pyre
मित्रो !
यहाँ तक कि उन व्यक्तियों, जो "खाओ, पियो और मस्त रहो" सिद्धान्त या जीवन शैली में विश्वास रखते हैं , को भी अपने जीवन में कुंठाओं, दुखों और चिंताओं का सामना करना पड़ता है और वे भी मृत्यु से भयभीत रहते हैं।
Friends !
Even those persons, who believe in "eat, drink and be merry" principle or style of life, also face encounters with frustrations, sorrows and worries in their lives and they too remain scared of death.
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कुंठा,
चिता : Frustrations,
चिन्ता,
दुःख
Saturday, September 10, 2016
Friday, September 9, 2016
Wednesday, September 7, 2016
• हम किस ओर जा रहे हैं? : Where We Are Heading?
- मेरा मानना है कि हमारे समाज में यौन अपराधों में लगातार
बृद्धि हो रही है, यहां
तक कि मासूम बच्चे भी इसके शिकार हो रहे हैं। वर्तमान में स्कूल, कालेज, पार्क, आदि भी
सुरक्षित नहीं हैं, अनेक
मामलों में रक्षक ही भक्षक बन रहे हैं। यह अपराध अपहरण और हत्या जैसे जघन्य
अन्य अपराधों को भी जन्म दे रहा है। युवाओं में खुलापन होना अच्छी बात है पर
प्रश्न यह है कि खुलापन किस सीमा तक? विवाह-विच्छेद की घटनाओं में बृद्धि भी
चिंता का विषय है, किसी
मासूम की माँ छिन रही है तो किसी मासूम का बाप छिन रहा है। उन मासूमों का दोष
क्या है? महत्वपूर्ण
प्रश्न यह है कि हम किस विकसित समाज की रचना कर रहे हैं?
- गर्लफ्रेंड-बोयफ़्रेंड कल्चर का यह प्रभाव हुआ है कि ऐसे
सम्बन्ध रखने वाले युवा लडके-लड़कियाँ ऐसे रिश्ते न रखने वाले युवक-युवतियों
को पिछड़ा (Backward)
समझने लगे हैं। बॉयफ्रेंड अपनी गर्लफ्रेंड की जरूरतें
पूरी करने और उसे खुश रखने के लिए राहजनी, लूट-पाट और हत्या करने जैसे अपराधों
में लिप्त हो रहे हैं। रिश्तों की आड़ में धोखा देने, ब्लैक मेल
करने जैसे अपराध बढ़ रहे हैं।
-
दुर्भावना रखने वाले व्यक्तियों द्वारा शादी के बादे की आड़ में अविवाहित युवतियों की अस्मिता से वर्षों तक खिलवाड़ किया जाता है और बाद में वे बादे से मुकर जाते हैं। बाद में युवतियों को विवश होकर न्यायलय की शरण लेनी पड़ती है। अनेक मामलों में अपने घर से दूरस्थ स्थान पर अकेले रह रहे विवाहित पुरुषों द्वारा शादी का झांसा देकर युवतियों की जिन्दगियां बर्बाद की जातीं है। अगर ऐसा व्यक्ति शादी कर भी लेता है तब उसकी पूर्व पत्नी और बच्चों (यदि कोई रहे होते हैं) की जिंदगियां बर्बाद हो जातीं हैं। -
मेरा मानना है कि जिस तरह शादी (marriage) के रजिस्ट्रेशन का प्राविधान है उसी तरह बिना शादी पति-पत्नी की तरह रह रहे अथवा अथवा विवाह सम्बन्ध बनाने का बादा कर आपस में पति-पत्नी की तरह यौन सम्बन्ध बनाने वाले युवक-युवतियों के संबंधों का एग्रीमेंट रजिस्टर कराये जाने का क़ानून बनना चाहिए। ऐसे बॉयफ्रेंड गर्लफ्रेंड संबंधों का भी रजिस्ट्रेशन होना चाहिए जिनमें आपस में शादी करने का कॉमिटमेंट हो। हमारा उद्देश्य किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के मौलिक अधिकार छीनने का नहीं है, हमारा उद्देश्य उन लोंगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है जिनके अधिकार बल या छल से छीने जाते हैं। समय आ गया है कि समाज शास्त्रियों को आगे आना चाहिए और इन विषयों पर विचार कर उचित रास्ता सुझाना चाहिए। -
मेरा तो मानना है कि हमारी सरकार को विद्वान समाज-शास्त्रयों के एक उच्च-स्तरीय स्थायी मंडल की स्थापना की जानी चाहिए। यह मंडल नियमित रूप से समाज में आने वाले परिवर्तनों, विकृतियों का अन्वेषण और अध्ययन करे तथा समाज में आने वाली विकृतियों पर नियंत्रण पाने के लिए उपयुक्त सुझाव दे। स्त्री-पुरुष के अनुपात संतुलन के लिए कारगर तरीका सुझाये। मेरा मानना है कि यौन अपराध प्रवृत्ति में कमी आने पर समाज में हो रहे अन्य अपराधों में भी कमी आएगी।
Openness is good among youths but the question is, to what extent openness is desirable. Incidents of divorce are on increase, some innocents are being deprived of their mothers and the others of their fathers. What is the fault of those innocents? Important question is that what type of developed society we are aiming at?
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Monday, September 5, 2016
ख़ुशी की तलाश : SEARCH OF HAPPINESS
मित्रो !
कभी - कभी हमें ख़ुशी न मिलने के निम्नलिखित कारण हो
सकते हैं:
1. हम ख़ुशी को पहचानने में गलती कर बैठते हैं।
2. ख़ुशी की गलत जगह या वक्त पर तलाश करते हैं।
3. हमारी प्राथमिकताएं हमें ख़ुशी से दूर कर देतीं हैं।
ख़ुशी अमूल्य होती है। दुःखी होने पर रसमय व्यंजन भी
अच्छे नहीं लगते जबकि खुश होने पर लोग रूखी रोटी भी बड़े चाव से खा लेते हैं। ख़ुशी
पाने के लिए यदि छोटी उपलब्धि को त्यागना भी पड़े तब उसका त्याग कर देना चाहिए।
ख़ुशी से भरे कुछ पल भी दुःख भरे लंबे जीवन से बेहतर होते हैं।
Sometimes, we are deprived of happiness due to following reasons:
Sometimes, we are deprived of happiness due to following reasons:
1. We
fail to recognize happiness.
2. We
search happiness at wrong place or wrong time.
3. Our
priorities keep us away from happiness.
Happiness
is precious. While sad, one can't relish even delicious food whereas in
happiness, a person enjoys dry breads. If someone can get happiness by
sacrificing small achievements, he should not hesitate in sacrificing small
achievements. A life of few happy moments is far better than a long life full
of sorrows.
Friday, September 2, 2016
मृत्यु से भय का कारण अज्ञान : Cause Of Fear Of Death Is Ignorance
मित्रो !
किसी कृति (creation) पर कृति की रचना करने वाले रचनाकार अथवा
ऐसे व्यक्ति जिसके आदेश पर या जिसके लिए रचनाकार ने रचना की है का ही अधिकार हो
सकता है। हमने स्वयं अपनी रचना नहीं की है और न ही हमारे आदेश पर किसी रचनाकार ने
हमारी रचना की है। अज्ञान और मिथ्या अहंकार के कारण हम दूसरे की रचना पर अपना
अधिकार मान बैठे हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने द्वारा दी गयी अपनी वस्तु बापस लेता है
तब इसमें शोक कैसा? जो वस्तु हमारी है ही नहीं उसके छिन जाने का भय कैसा? जब कोई दूसरा व्यक्ति अपनी वस्तु हमें
उपयोग के लिए देता है तब हमें उस वस्तु पर स्वामित्व का अधिकार नहीं मिलता। तब हम
वस्तु देने वाले से यह कैसे कह सकते हैं कि वह वस्तु बापस लेने का अधिकारी नहीं
है। हमें तो दूसरे के द्वारा हमारे उपयोग के लिए वस्तु दिए जाने के लिए उसका
कृतज्ञ होना चाहिए।
किसी वस्तु पर केवल उसके रचनाकार का ही अधिकार हो
सकता है। हमने स्वयं अपनी रचना नहीं की है, हमारा रचयिता कोई और ही है। अज्ञान और मिथ्या अहंकार के कारण हम
दूसरे की रचना पर अपना अधिकार मान बैठे हैं। हमारे मृत्यु से भय का कारण यही है।
Only creator of an object can have rights in the object
created. We have not created ourselves, our creator is someone else. Due to
false pride and ignorance we assume our authority over other's creation. This
is the sole cause of our fear of death.
Thursday, September 1, 2016
हमारे अपने शत्रु : Our Own Enemies
मित्रो / Friends !
The enemies within us are so
powerful that they have made us their slaves. Throughout our lives, we work to
please them and we forget our own identity.
मित्रो !
हमारे अन्दर के शत्रु इतने शक्तिशाली हैं कि उन्होंने हमें अपना दास (slave) बना लिया है। जीवन भर हम उन्हें प्रसन्न करने के लिए कार्य करते रहते हैं और हम अपनी स्वयं की पहचान भूल जाते हैं।
हमारे अन्दर के शत्रु इतने शक्तिशाली हैं कि उन्होंने हमें अपना दास (slave) बना लिया है। जीवन भर हम उन्हें प्रसन्न करने के लिए कार्य करते रहते हैं और हम अपनी स्वयं की पहचान भूल जाते हैं।
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