Tuesday, January 31, 2017

हमारा ईश्वर विषयक ज्ञान : Our Theological Knowledge

मित्रो !
          अधिकांश लोगों के सम्पूर्ण जीवन में ईश्वर को लेकर ज्ञान और क्रिया-कलाप एक जैसे रहते हैं। उन्हें बचपन में जो कुछ, यथा घर में स्थापित मंदिर या विभिन्न स्थानों पर विभिन्न मंदिरों में जाकर ईश्वर के चित्र या मूर्ति और वहां उपलब्ध अन्य देवी -देवताओं के चित्रों और मूर्तियों के आगे शीश झुकाना, उनकी चरण वंदना करना, प्रार्थना करना, दान करना आदि, सिखा दिया जाता हैं वे उसी के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।
           बचपन में जो चित्र या मूर्तियां बच्चे देखते हैं, उनसे मिलती-जुलती मूर्ति या चित्र देखने पर वे उसे भगवान मानकर हाथ जोड़ लेते हैं। बचपन में उनसे यह भी कहा जाता है कि अगर वे भगवान के हाथ नहीं जोड़ेंगे अथवा उनके पैर नहीं छुएंगे तब भगवान नाराज हो जाएंगे। यह धारणा उनके अंदर घर कर जाती है। इसलिए उन्हें जहां-कहीं भी भगवान की मूर्ति या उसके स्वरूप से मिलती - जुलती किसी और की मूर्ति (भले ही वह चित्र या मूर्ति भगवान की न हो) दिखती है तब वे, भगवान को नाराज न करने के उद्देश्य से, उसे भगवान समझकर  हाथ जोड़ लेते हैं।
            लोग कहते हैं कि ईश्वर से डरो, मैं भी कहता हूँ कि मनुष्य को ईश्वर से डरना चाहिए किन्तु मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि भय से ईश्वर मानो।  ईश्वर से डरने का मेरा अभिप्राय यह है कि कुछ ऐसा न करो जो ईश्वर को प्रिय नहीं है क्योंकि ऐसा कुछ करने पर वह रुष्ट हो जायेगा। बच्चे को प्यार करने वाले कोई भी माँ-बाप यह नहीं चाहते कि  उनका बच्चा ऐसा कुछ करे जिससे वह दंड का भागी बने। जब हम समझदार हो जाते हैं तब यह जानने का भी हमारा दायित्व हो जाता है कि हम जाने कि ईश्वर को क्या प्रिय है और क्या प्रिय नहीं है। कोई भी अपने प्रिय को रुष्ट नहीं करना चाहता। प्रिय को प्रसन्न रखने के लिए व्यक्ति सदैव ऐसा कार्य करता है जो प्रिय को प्रिय हों। प्रिय के सिद्धांतो को भी जीता है। ऐसे में ईश्वर से प्यार करने वाले को यह जानना जरूरी हो जाता है की ईश्वर हमसे क्या चाहता है, वह कैसे प्रसन्न होता है।
            बच्चा मासूम  होता है, उसकी गलतियां माफी योग्य होतीं हैं किन्तु वही गलतियां यदि युवा करे तब वह माफी योग्य नहीं रह जाता। उसी एक ईश्वर के अनेक चित्र बनाने वाला या तो कोई बच्चा हो सकता है या कोई चित्रकार। 
           चिंतन का विषय यह है कि क्या ईश्वर की अनेक स्वरूपों वाली मूर्तियां बनाने वाला शिल्पकार या अनेक चित्र बनाने वाला चित्रकार जहां ऐसे मूर्तिकार और शिल्पकार ईश्वर के सिद्धांतों की अवहेलना करते हों क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न होगा।


           मेरा मानना है कि जब तक हम बच्चे हैं तब तक के लिए यह सब ठीक है किन्तु जब हम इस काबिल हो जाते हैं कि हम साश्वत मूल्यों को समझ सकते हैं तब चित्रो और मूर्तियों तक सीमित ईश्वर का ज्ञान पर्याप्त नहीं है। इस स्तर पर हमें अपने और ईश्वर के बारे चिंतन और मनन करना चाहिए।

Monday, January 30, 2017

आत्मा की आवाज क्यों सुने

मित्रो !

श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 3 (Chapter 3) का श्लोक 42 (Verse 42) निम्नप्रकार है:
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः ।।
शब्दार्थ : इन्द्रियाणि = इन्द्रियों को; पराणि = परे (श्रेष्ठ); आहु: = कहते हैं (और); इन्द्रियेभ्य; = इन्द्रियों से; परम् = परे (श्रेष्ठ); मन: = मन है; तु = और; मनस: = मन से; परा = परे (श्रेष्ठ); बुद्धि: = बुद्धि है; तु = और; य: = जो; बुद्धे: = बुद्धि से (भी); परत: =अत्यन्त परे है; स: =वह (आत्मा है)

भावार्थ: इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है, इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ मन होता है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि होती है और बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा है।
The senses are superior but more than senses the mind is superior but more than mind the intellect is superior and the soul is superior the intellect.
मनुष्य की आत्मा जागृत होने पर आत्मा का नियंत्रण बुद्धि पर होता है और बुद्धि निष्क्रिय नहीं होने पाती, बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि का नियंत्रण मन पर होता है, मन पर पर नियंत्रण होने से मन का नियंत्रण इन्द्रियों पर होता है। ऐसा होने से जिस व्यक्ति की आत्मा जागृत नहीं रहती उसकी बुद्धि निष्क्रिय होने से व्यक्ति के विचारों और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रहने से मन और इन्द्रियाँ मनमानी करते हैं।



Friday, January 27, 2017

ज्ञान का प्रकटीकरण


मित्रो !
सभी प्रकार के ज्ञान सभी पर प्रकट नहीं किये जा सकते। ज्ञान प्रदाता को ज्ञान के प्रकटीकरण से पूर्व ज्ञान पाने वाले की पात्रता पर विचार अवश्य करना चाहिए अन्यथा ज्ञान के दुरुपयोग अथवा प्राप्तकर्त्ता द्वारा ज्ञान के प्रयोग से उसका अहित होने की संभावना बनी रहती है।
किसी व्यक्ति के साथ गोपनीय प्रकृति की जानकारी साझा करते समय इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति के साथ जानकारी साझा की जा रही है वह विश्वासपात्र है अथवा नहीं। बच्चों के साथ व्यावहारिक जीवन की जानकारियां साझा करते समय उनकी आयु का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

Sunday, January 22, 2017

श्रीमद भगवद गीता के अनुसार अनुपयुक्त भोजन के गुण

मित्रो !

श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 17 के श्लोक 9 के अनुसार निम्नप्रकार का भोजन अनुपयुक्त होता है:
अत्यधिक तिक्त (कड़ुए), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
Foods that are too bitter, too sour, salty, very hot, pungent, dry, and chiliful, are dear to persons in the mode of passion. Such foods produce pain, grief, and disease.


श्रीमद भगवद गीता के अनुसार उत्तम भोजन के गुण

मित्रो !
श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 17 के श्लोक 8 के अनुसार उत्तम भोजन के निम्नलिखित गुण होते हैं :
जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होता है।
Persons of saatwik nature prefer foods that promote the life span, and increase virtue, strength, health, happiness, and satisfaction. Such foods are juicy, succulent, nourishing, and naturally tasteful.


Friday, January 20, 2017

यह कृष्ण आहार विशेषज्ञ (Dietitian) भी है

मित्रो !
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 17 के श्लोक 8 व 9 में निम्प्रकार कहा है :
(1) अध्याय 17, श्लोक 8 आयु: सत्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: | रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्विकप्रिया: ||8||
āyuh sattva—which promotes longevity; bala — strength; ārogya — health; sukha — happiness; prīti — satisfaction; vivardhanāḥ —increase; rasyā — juicy; snigdhā — succulent; sthirā — nourishing; hidyā — pleasing to the heart; āhārā — food; sāttvika -priyā — dear to saatwiki persons.
जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होता है।
Persons of saatwik nature prefer foods that promote the life span, and increase virtue, strength, health, happiness, and satisfaction. Such foods are juicy, succulent, nourishing, and naturally tasteful.

(2) अध्याय 17, श्लोक 9:

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णंरूक्षविदाहि
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।
katu—bitter; amla—sour; lavana—salty; ati-ushna—very hot; tīkshna — pungent; ruksha—dry; vidāhinah—chiliful; āhārāh—food; rājasasya—to persons in the mode of passion; ishtāh—dear; duhkha—pain; śhoka—grief; āmaya—disease; pradāh —produce.
अत्यधिक तिक्त (कड़ुए), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
Foods that are too bitter, too sour, salty, very hot, pungent, dry, and chiliful, are dear to persons in the mode of passion. Such foods produce pain, grief, and disease.
REQUEST:

For details, friends may read post published by me earlier with title “हमारा भोजन कैसा हो”.


महा मन्त्र LORD KRISHNA

महा मन्त्र

Tuesday, January 17, 2017

ईश्वर के अवतरित होने का प्रयोजन

मित्रो !
       सनातन धर्म के सुविख्यात पवित्र ग्रन्थ श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 4 के श्लोक 7 व श्लोक 8 में भगवान श्री कृष्ण द्वारा युग -युग में अवतरित होने का वर्णन निम्न प्रकार किया गया है:
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
     हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब -तब मैं अपने रूपको रचता हूँ (अर्थात् साकाररूपसे प्रकट होता हूँ)।
    साधु पुरुषों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

Yada yada hi dharmasya glanirbhavati bharata
Abhythanamadharmasya tadatmanam srijamyaham
Paritranaya sadhunang vinashay cha dushkritam.
Dharmasangsthapanarthay sambhabami yuge yuge.

यदा/Yada = when; हि/Hi = indeed; धर्मस्य/Dharmasya = of religion/duty; ग्लानि  / Glani = decay; भवति/Bhavati = is; भारत/Bharata = O Bharata; (name of Arjuna); अभ्युत्थानम्/Abhuthanam = rising up; अधर्मस्य / Adharmasya = of sin / chaos (something against religion.); तदा /Tada = Then; आत्मानं/Atmanam =  Myself; सृजामि/Srijami = Create ("Srijami" means "I create"); अहम्/Aham = I;

परित्राणाय/Paritranay= to protect/save; साधूनां/Sadhunang =of the good or good people; विनाशाय/Vinashay = to destroy/for the destruction; च/Cha = And; दुष्कृताम्/Dushkritam = of the evil or evil-doers; धर्म/Dharma = religion; संस्थापन/Sangsthapan = to establish; अर्थाय/Arthay = to/for the sake of; सम्भवामि/Sambhabami = I am born; युगे/Yuge = In age; युगे/Yuge = In age.



Monday, January 16, 2017

हमारा अंगूठा अपरिहार्य OUR THUMB IS UNAVOIDABLE

मित्रो !  
          मनुष्य के सामान्य हाथ में चार उंगलियां और एक अंगूठा होते हैं। चारों  उँगलियों में  से प्रत्येक में तीन-तीन पोर  (phalanges) और अंगूठे में दो पोर होते हैं। हस्त रेखा विशेषज्ञ प्रत्येक पोर के साथ व्यक्ति के जीवन से सम्बंधित विशिष्ट गुण (properties) और शक्तियां सम्बद्ध मानते  हैं।
         मनुष्य की हथेली में अंगूठे का विशेष महत्व होता है। वास्तव में अंगूठे के बिना उंगलियां किसी कार्य को ठीक से नहीं कर सकतीं। यदि किसी वस्तु को चार उँगलियों से आप मजबूती से पकड़ना चाहें तब यह आपके लिए संभव नहीं है। किन्तु जब उँगलियों को अंगूठे का साथ मिल जाता है तब यह कार्य आप आसानी से कर सकते हैं।    
          जिस तरह से किसी वस्तु को उठाने या पकड़ने के लिए हाथ की उँगलियों को अंगूठे के संबल (support) की आवश्यकता होती है उसी तरह, हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार, जीवन पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए अंगूठे के दो पोरों (phalanges) से सम्बद्ध शक्तियों (powers) के उपयोग की आवश्यकता होती है। ये दो शक्तियां तार्किक शक्ति (Power of reasoning or Logic) और इच्छा शक्ति (willpower) होतीं हैं। इच्छा शक्ति के अभाव में कोई कार्य नहीं किया जा सकता है, तर्क की कसौटी पर परीक्षण किये बिना कार्य करने में सफलता के अवसर कम होते हैं। कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व क्यों, कैसे पर विचार करने के साथ ही आवश्यक शक्ति और साधनों पर भी विचार किया जाना चाहिए।  
   

Saturday, January 14, 2017

Conservation of Greenery

मित्रो !

हरे भरे बाग़-बगीचे, लहलहाते हरी घास के मैदान, वन्य पशुओं की शरण स्थली घने जंगल किसे नहीं भाते। किन्तु विडम्बना यह है कि हम इनको उगाने और संरक्षित करने के स्थान पर बड़ी-बड़ी कोठियां (Big Houses) बनाकर ईंटों और पत्थरों का रोपण कर रहे हैं। कोठियों के लिए आवश्यकता से अधिक भूमि पर कब्ज़ा तो कर ही रहे हैं, इसके साथ ही इनके निर्माण में लगने वाली सामिग्री भी पृथ्वी से प्राप्त कर रहे हैं। इससे धरती माँ का स्वरुप बदल रहा है और बाढ़ - सूखा और सुनामी जैसी आपदाओं को आमंत्रण दे रहे हैं।
हमें चाहिए कि हम पृथ्वी पर आवश्यकता से अधिक न लें और आवश्यकता से अधिक क्षेत्र पर कब्ज़ा न करें। 



कोई ईमानदार कष्ट क्यों भोग रहा है

मित्रो !
          कुछ सत्यनिष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ संस्कारी व्यक्ति जब किसी बेईमान और कर्तव्य - विमुख व्यक्ति को सुख और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते हुए देखते हैं तब ऐसे संस्कारी व्यक्तियों के मन में ईश्वर के न्याय के प्रति प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है। शंका का कारण अज्ञान होता है। जाने कैसे?
          विज्ञान भी मानता है कि किसी क्रिया के बिना कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। इस आधार पर बिना कर्म किये किसी फल का सृजन संभव नहीं है। दूसरा पहलू यह है कि फल पेड़ पर लगता है।  ऐसे में यदि पेड़ ही काट दिया जाय तब फल खाने को कैसे मिल सकता है।  यदि यह माना जाय कि पेड़ काटने वाले को फल खाने को ईश्वर को देता है तब इससे यह निष्कर्ष निकलेगा कि ईश्वर बुरा कर्म करने वाले को अच्छा फल देता है। किन्तु ऐसा सत्य नहीं है क्योंकि ऐसा कोई पक्षपाती ही कर सकता है जबकि हमारी यह धारणा है कि ईश्वर परम निष्पक्ष  न्यायाधीश है। अतः ईश्वर से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह किसी के साथ पक्षपात करके उसके द्वारा किये गए बुरे कर्म का  भी उसे अच्छा फल देगा।
         उपर्युक्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बुरा काम करने वाला यदि जश्न मना रहा है तब उसका जश्न मनाना उसके बुरे कर्म का फल नहीं है अपितु यह उसके द्वारा कभी पूर्व में किये गए शुभ कर्मों का फल है। 
         कर्म और कर्म - फल के सिद्धांत के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपने वर्तमान जन्म में बिना कोई शुभ कर्म किये शुभ कर्मों के फल का उपभोग  कर रहा दिखता है तब ऐसा उसके द्वारा किसी पूर्व जन्मों में किये गए शुभ कर्मों के कारण है। विपरीत इसके जो वर्तमान जन्म में अच्छे कर्म करने के बाद भी दुःख का भोग करता दिख रहा है, इसका कारण उसके द्वारा अपने किसी पूर्व जन्म में किये गए अशुभ कर्मों के फल का भोग करना है। मेरे विचार से यही भाग्य का खेल है।


अपने लिए भी कुछ करें

मित्रो !
         अगर अपने लिए कुछ करने का जज्बा है तब गरीबों के हमदर्द, असहायों के सहाय और वंचितों के मसीहा बनकर उनके लिए कुछ करें। उनकी दुआओं से ही तुम्हारी अपनी अक्षय पूँजी का निर्माण होगा।
        समाज में बुराई की जड स्वार्थ है किन्तु अच्छाई का कारण परम स्वार्थ है।एक ऐसा स्वार्थ जो सबके लिये हितकारी है जिसमें स्वयं के साथ साथ दूसरों को भी सुख मिले।जब हम असहायों,वंचितों,दीनों के हित की सोचते हैं तो जिस प्रसन्नता का अनुभव होता है उसकी कल्पना नही की जा सकती।यह सुख स्थायी होता है जो हमारी अक्षय पूंजी बन कर जन्म जन्मांतरों तक हमारे साथ होता है।

जज्बा = Spirit, भावना।

अक्षय = Inexhaustible, कभी नष्ट न होने वाली।

Thursday, January 12, 2017

व्यावहारिक सत्य

मित्रो !
        यह एक व्यावहारिक सत्य है कि जब तक हम किसी वस्तु को जानते न हों तब तक हम वस्तु की  तलाश नहीं कर सकते क्योंकि ऐसी स्थिति में वस्तु हमारे सामने आने पर भी हम उसकी उपेक्षा कर आगे निकल जाएँगे।
        लक्ष्य को जाने बिना, कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता।
    Nobody can achieve the target unless he knows it.

Tuesday, January 10, 2017

सकाम कर्म क्या है

मित्रो !

       सकाम कर्म ऐसे कर्म हैं जिनके फल अवश्य प्राप्त होते हैं। सकाम कर्म अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। इनमें से कुछ कर्म तुरन्त फल देने वाले होते हैं, कुछ कर्म बाद में फल देते हैं। बाद में फल देने वाले कर्म, संचित कर्म कहलाते हैं। फल प्राप्ति की आशा से किये गए कर्म ही सकाम कर्म हैं। 

     पहला उदहारण आपको प्यास लगाने पर आपके द्वारा पानी पिए जाने का लेते हैं। जैसे ही आपने पानी पिया, आपकी प्यास बुझ गयी। इसमें पानी पीने का कर्म आपने किया और इस कर्म का फल (प्यास बुझाने के रूप में) आपको तुरंत मिल गया। दूसरा उदाहरण आपके द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को पानी पिलाने का लेते हैं। आप जानते हैं कि किसी प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाने से अच्छा फल मिलता है। आपने एक प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाया। इससे आपको तुरंत कुछ लाभ नहीं मिला। आपका यह कर्म संचित कर्म बन गया और इसका फल आपको भविष्य में मिलेगा।  तीसरा उदाहरण एक ऐसे किसी व्यक्ति का लेते हैं जो छाया का लाभ लेने और आम का फल खाने के उद्देश्य से एक आम का पौधा लगता (वृक्षारोपण करता) है। पौधारोपण के कई वर्ष बाद यह पौधा बड़ा पेड़ होकर फल देने लायक होगा।  वह व्यक्ति इसकी देख-भाल करता रहा किन्तु दुर्भाग्यवश पेड़ पर आम लगने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गयी।  उस व्यक्ति को पौधा लगाने और उसकी देख-भाल करने में किये गए कर्मों का फल जीवित रहते प्राप्त नहीं हुआ। उस व्यक्ति के ऐसे कर्म संचित कर्म बन जाएंगे और इसका फल उसे अगले जन्म में बिना कर्म किये मिलेगा। ऐसे फलों का मिलना उसका भाग्य होगा।



Monday, January 9, 2017

भोजन को साझा करने में आनंद Food sharing gives pleasure


मित्रो !

अपना भोजन किसी के साथ साझा (Sharing) करके खाने में आनन्द की अनुभूति होती है। भोजन रूखा-सूखा होने पर भी रसमय लगता है। भोजन साझा करने में तृप्ति मिलती है।
जिस व्यक्ति को ख़ुशी की तलाश है उसे चाहिए कि वह ऐसे अवसरों को न गँवाए। यह आवश्यक नहीं की भोजन मनुष्यों के साथ ही साझा किया जाय, भोजन पशु-पक्षियों के साथ भी साझा किया जा सकता है। 



Saturday, January 7, 2017

वैवाहिक जीवन में समझौता अहम

मित्रो !
मेरे विचार से वैवाहिक जीवन में आने वाली कटुता और सम्बन्ध विच्छेद का मुख्य कारण पति या पत्नी का अपनी पसन्द या नापसन्द (liking and disliking) से समझौता न कर पाना है। मेरा विचार है कि विवाह सूत्र में बंधने से पहले युगल को खुले मन से इस सम्बन्ध में बात कर लेनी चाहिए। पुराने ज़माने में शादी से पहले यह अवसर लडके - लड़की को उपलब्ध नहीं होता था किन्तु फिर भी जन्म-पत्री और ज्योतिष के आधार पर दोनों के गुणों का मिलान पुरोहित करते थे। अशिक्षित समाज में आज भी यह प्रथा जारी है। आजकल शिक्षित परिवारों में (अपवादों को छोड़कर) एक-दूसरे से वार्ता करने में कठिनाई नहीं है। प्रस्तुत विचार मेरी इसी सोच से प्रेरित है।

"जो व्यक्ति, आदतन, अपनी पसन्द और नापसन्द (liking and disliking) से समझौता (compromise) बिलकुल नहीं कर सकता, उसे विवाह बन्धन से बचना चाहिए क्योंकि वैवाहिक जीवन में कंधे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए अनेक स्तरों पर समझौते और समायोजन करने होते हैं।"
अविवाहित के पास इस बिंदु पर विचार करने के लिए अवसर उपलब्ध है किन्तु ऐसे जोड़ों जो वैवाहिक सूत्र में बंध चुके हैं और वे जोड़े जो टूटने की प्रक्रिया में हैं अथवा वे जोड़े जो अपने वैवाहिक जीवन में असहमति को लेकर कठिनाई महसूस कर रहे हैं सभी से मेरा अनुरोध है कि वे मेरी राय पर विचार करें। हो सकता है कि वे इस बात को समझें और उनके सम्बन्ध सामान्य हो जांय। और अगर ऐसा एक भी मामले में होता है तब मुझे बड़ी ख़ुशी मिलेगी।


Friday, January 6, 2017

आनन्द ही आनन्द

मित्रो !
आपके आराध्य कोई भी हों, आप उनका स्मरण किसी भी वस्तु में कर सकते हैं क्योंकि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। ऐसे में यदि आप खाली समय में आनन्द लेना चाहते हैं तो आँखें बन्द कीजिये और धीमी गति से लगातार गुनगुनाइए -

श्री राम जय राम, जय - जय राम। 
जय श्री राम, जय श्री राम।।
श्री राम जय राम, जय - जय राम। 
जय श्री राम, जय श्री राम।।
श्री राम जय राम - - -

इससे आपके अंदर आनंद की अनुभूति होगी। गुनगुनाते हुए आप अपने आराध्य का स्मरण भी कर सकते है। 


Thursday, January 5, 2017

क्या उनका विरोध करना हमारा धर्म नहीं


मित्रो!

मेरी समझ से यह परे है कि जो लोग धर्म के सशक्तिकरण की बात करते हैं, उन लोंगों, जो धर्म के नाम पर अपने ही धर्म के मानने बाले अज्ञानी, अल्प -शिक्षित, अनपढ़ या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों को गुमराह कर उनका शोषण कर रहे हैं, ईश्वर के नाम पर अपनी तिजारत चला रहे हैं, स्वयं को ईश्वर या उसका दूत बताकर भोली - भाली जनता से अपनी पूजा करवा रहे हैं, का हम विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं।
वे जो धर्म के सशक्तिकरण की बात नहीं भी करते हैं किन्तु धर्म में आस्था रखते हैं, वे लोग यह सब देखकर भी चुप क्यों हैं। जब दया धर्म का मूल है तब क्या धर्म के मानने वालों से धर्म यह अपेक्षा नहीं करता कि वे उन पर जिनका धर्म के नाम पर शोषण हो रहा है, दया करें और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाएं। बात समूह बनाकर लड़ने की नहीं है। इस कार्य को व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रारम्भ किया जा सकता है। गुमराह हुए एक-एक व्यक्ति को लक्षित करके उसका विश्वास दया और सहानुभूति से जीता जा सकता है और तब उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाई जा सकती है। इस कार्य में समय लग सकता है किन्तु कार्य इतना भी दुरूह नहीं है कि पूरा न हो सके। गुमराह न होने की तुलना में गुमराह हुए लोंगों की संख्या भी अधिक नहीं है।
ऐसे गुमराह हुए न जाने कितने लोंगों के घर उजड़ गए हैं। मेरा तो आपसे यही अनुरोध है कि गुमराह हो रहे लोंगों में से यदि आप किसी के संपर्क में आते हैं तब आप अपना धर्म समझकर उसकी सहायता करें और शोषण से उसकी रक्षा करें। यह ईश्वर की पूजा भी है और हमारा धर्म भी।

धर्म किस लिए


मित्रो !

ईश्वर ने धार्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए मानव रूप धारण कर हमारे लिए अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत किया। दुर्भाग्य है कि हमने अपना आचरण तो नहीं सुधारा किन्तु ईश्वर के हाथ जोड़ कर कह दिया कि प्रभु यह सब आपकी लीला है।


चिंतन हमारा परम हितैषी


मित्रो !
व्यक्तिगत मामलों में मनुष्य स्वयं के चिंतन से ही सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकता है क्योंकि किसी व्यक्ति के विषय में कोई अन्य व्यक्ति इतनी जानकारी नहीं रखता जितनी जानकारी ऐसा व्यक्ति स्वयं अपने बारे में रखता है।


संसार में आपका इतना बड़ा हितैषी कोई नहीं हो सकता, जितने बड़े हितैषी आप स्वयं हो सकते हैं। यदि आप जीवन में सदमार्ग पर बने रहना चाहते हैं तब आपने जो कुछ किया है और आप जो कुछ करने जा रहे हैं पर नियमित रूप से चिंतन करने की आदत डालें।

मेरा सुझाव है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन पांच मिनट का समय निकल कर अपने द्वारा किये गए कार्यों का नियमित रूप से अनुश्रवण और उनके सही या गलत होने का विश्लेषण करना चाहिए। छात्रों को उनके द्वारा पिछले 24 घंटे में प्राप्त किये गये ज्ञान का अनुश्रवण भी करना चाहिये। इससे उनकी स्मरणशक्ति (memory) बढ़ेगी। इस कार्य के लिए रात को सोने से पूर्व का 5 मिनट का समय उपयुक्त हो सकता है।


Tuesday, January 3, 2017

HE IS OMNIPRESENT


मित्रो!
मैं नास्तिक हूँ किंतु इतना बड़ा नहीं कि राह में आए मंदिरों में भगवान् के अस्तित्व को नकार दूँ , साथ ही इतना बड़ा आस्तिक भी नहीं हूँ कि भगवान् को ढूढने के लिए मंदिरों की खोज में ही घूमा करुँ , क्यों कि मेरा अपना विश्वाश है कि भगवान् मंदिरों में ही नहीं मंदिरों में भी है क्यों कि वह सर्वविद्यमान है ।
OMNIPRESENCE OF GOD
I am an atheist but I cannot afford to deny existence of God in the temples* which fall on my way . At the same time, I am not so big a priest that I should run after temples in search of God . Because, temple is not the only place where God exists, but temple is also one of the places where God exists, because He is omnipresent.
Notes:
*Here temple word has been used to symbolize a worship place. How God, the Creator of whole universe can be confined within the four walls of a temple? He also cannot be thought of composed of many ….. Almighty is always with us. We can feel Him at any time and at any place. Temples may be thought necessary for reminding us about God like Ashoka Pillars (Stambh), but for offering our prayers, temple is not a necessity. A temple is not required to feel His presence.

Sunday, January 1, 2017

ईश्वरवादी दिशाहीन नहीं होता


  • मित्रो !
         ईश्वरवादी की जीवन की आचार संहिता (code of conduct) निश्चित होती है। इस आचार संहिता में ईश्वरीय सिद्धांत होते है। इससे ईश्वरवादी की जीवन की दिशा तय हो जाती है। अनीश्वरवादी की कोई आचार संहिता न होने से वह दिशाहीन होकर जीवन जीता है।
        ईश्वरवादी नियंत्रित जीवन जीता है। वहीं पर अनीश्वरवादी की कोई दिशा तय न होने से अनियंत्रित जीवन जीने को विवश होता है। ईश्वरवादी द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों का अनुमान लगाया जा सकता है अतः उसकी विश्वसनीयता अनीश्वरवादी की अपेक्षा अधिक होती है।

आशा, एक अंतरंग मित्र Hope, the Intimate Friend

Friends !
         As long as there is life, there is hope. Never lose hope. Hope for the best and nourish the hope.
       जब तक सांस तब तक आस। आशा कभी मत छोड़ो । अच्छे के लिए आशा करो और उसका पोषण करो ।