मित्रो !
अधिकांश लोगों के सम्पूर्ण
जीवन में ईश्वर को लेकर ज्ञान और क्रिया-कलाप एक जैसे रहते हैं। उन्हें बचपन में जो
कुछ, यथा घर में स्थापित मंदिर
या विभिन्न स्थानों पर विभिन्न मंदिरों में जाकर ईश्वर के चित्र या मूर्ति और वहां
उपलब्ध अन्य देवी -देवताओं के चित्रों और मूर्तियों के आगे शीश झुकाना,
उनकी चरण वंदना करना,
प्रार्थना करना,
दान करना आदि, सिखा दिया जाता हैं वे उसी के इर्द-गिर्द घूमते
रहते हैं।
बचपन में जो चित्र या मूर्तियां
बच्चे देखते हैं, उनसे मिलती-जुलती मूर्ति
या चित्र देखने पर वे उसे भगवान मानकर हाथ जोड़ लेते हैं। बचपन में उनसे यह भी कहा जाता
है कि अगर वे भगवान के हाथ नहीं जोड़ेंगे अथवा उनके पैर नहीं छुएंगे तब भगवान नाराज
हो जाएंगे। यह धारणा उनके अंदर घर कर जाती है। इसलिए उन्हें जहां-कहीं भी भगवान की
मूर्ति या उसके स्वरूप से मिलती - जुलती किसी और की मूर्ति (भले ही वह चित्र या मूर्ति
भगवान की न हो) दिखती है तब वे,
भगवान को नाराज
न करने के उद्देश्य से, उसे भगवान समझकर हाथ जोड़ लेते हैं।
लोग कहते हैं कि ईश्वर से
डरो, मैं भी कहता हूँ कि मनुष्य को ईश्वर
से डरना चाहिए किन्तु मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि भय से ईश्वर मानो। ईश्वर से डरने का मेरा अभिप्राय यह है कि कुछ ऐसा
न करो जो ईश्वर को प्रिय नहीं है क्योंकि ऐसा कुछ करने पर वह रुष्ट हो जायेगा। बच्चे
को प्यार करने वाले कोई भी माँ-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा ऐसा कुछ करे जिससे वह दंड का भागी बने। जब हम समझदार
हो जाते हैं तब यह जानने का भी हमारा दायित्व हो जाता है कि हम जाने कि ईश्वर को क्या
प्रिय है और क्या प्रिय नहीं है। कोई भी अपने प्रिय को रुष्ट नहीं करना चाहता। प्रिय को प्रसन्न
रखने के लिए व्यक्ति सदैव ऐसा कार्य करता है जो प्रिय को प्रिय हों। प्रिय के सिद्धांतो
को भी जीता है। ऐसे में ईश्वर से प्यार करने वाले को यह जानना जरूरी हो जाता
है की ईश्वर हमसे क्या चाहता है,
वह कैसे प्रसन्न
होता है।
बच्चा मासूम होता है, उसकी गलतियां माफी योग्य होतीं हैं
किन्तु वही गलतियां यदि युवा करे तब वह माफी योग्य नहीं रह जाता। उसी एक ईश्वर के अनेक
चित्र बनाने वाला या तो कोई बच्चा हो सकता है या कोई चित्रकार।
चिंतन का विषय यह है कि क्या
ईश्वर की अनेक स्वरूपों वाली मूर्तियां बनाने वाला शिल्पकार या अनेक चित्र बनाने वाला
चित्रकार जहां ऐसे मूर्तिकार और शिल्पकार ईश्वर के सिद्धांतों की अवहेलना करते हों
क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न होगा।
मेरा मानना है कि जब तक हम
बच्चे हैं तब तक के लिए यह सब ठीक है किन्तु जब हम इस काबिल हो जाते हैं कि हम साश्वत
मूल्यों को समझ सकते हैं तब चित्रो और मूर्तियों तक सीमित ईश्वर का ज्ञान पर्याप्त
नहीं है। इस स्तर पर हमें अपने और ईश्वर के बारे चिंतन और मनन करना चाहिए।