मित्रो!
समय के साथ-साथ किसी भी धर्म के मानने वालों की संख्या स्वतः ही बढ़ती जाती है क्योकि लगभग सभी मामलों में नयी पीढ़ी को धर्म के संस्कार संतान के माता-पिता से प्राप्त होते हैं। अतः धर्म का विस्तार तो लगातार होता रहता है। किन्तु अशिक्षा, अज्ञानता, अन्धविश्वास, स्वार्थपरता और धर्म के अनाचरण से धार्मिक मूल्यों का पतन होता रहता है। ऐसी स्थिति में धार्मिक मूल्यों के सशक्तिकरण के निरन्तर प्रयासों की आवश्यकता होती है।
मैं यह नहीं कहता कि किसी धर्म के अनुयायियों को अपने धर्म का प्रचार व प्रसार नहीं करना चाहिए किन्तु प्रचार का तरीका ऐसा होना चाहिए कि अन्य धर्मों के लोग नए धर्म की अच्छाइयों की बजह से उसे अपनाने का निर्णय करें, किसी को अपना धर्म किसी दूसरे पर थोपना नहीं चाहिए और न ही किसी व्यक्ति को अपना धर्म छोड़कर नया धर्म अपनाने के लिए लोभ-लालच दिया जाना चाहिए।
सनातन धर्म अनुयायियों के धार्मिक ग्रंथों श्रीमद भगवद गीता और रामचरित मानस में ईश्वर के अवतरण का उद्देश्य धार्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना ही बताया गया है।
श्रीमद भगवद गीता
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
(जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है)
रामचरित मानस
जब-जब होइ धरम की हानी।
बाढ़ेँ असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब धरि प्रभु मनुज शरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महाभारत में धर्म के अनुसार आचरण करने वाले पांडवों की छोटी सी सेना धर्म के विपरीत आचरण करने वाले कौरवों की विशालकाय सेना पर भारी पड़ी थी। कृष्ण ने भी धर्म के अनुयायियों का ही साथ दिया था। इससे तो यही लगता है कि धर्म का अनाचरण करने वाले सौ कौरवों और धर्म का आचरण करने वाले पांच पांडवों में से धर्म का आचरण करने वाले पांच पांडव ही ईश्वर को प्रिय थे।
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